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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 9 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 9/ मन्त्र 1
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - वैश्वानरः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अह॑श्च कृ॒ष्णमह॒रर्जु॑नं च॒ वि व॑र्तेते॒ रज॑सी वे॒द्याभिः॑। वै॒श्वा॒न॒रो जाय॑मानो॒ न राजावा॑तिर॒ज्ज्योति॑षा॒ग्निस्तमां॑सि ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अहः॑ । च॒ । कृ॒ष्णम् । अहः॑ । अर्जु॑नम् । च॒ । वि । व॒र्ते॒ते॒ इति॑ । रज॑सी॒ इति॑ । वे॒द्याभिः॑ । वै॒श्वा॒न॒रः । जाय॑मानः । न । राजा॑ । अव॑ । अ॒ति॒र॒त् । ज्योति॑षा । अ॒ग्निः । तमां॑सि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अहश्च कृष्णमहरर्जुनं च वि वर्तेते रजसी वेद्याभिः। वैश्वानरो जायमानो न राजावातिरज्ज्योतिषाग्निस्तमांसि ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अहः। च। कृष्णम्। अहः। अर्जुनम्। च। वि। वर्तेते इति। रजसी इति। वेद्याभिः। वैश्वानरः। जायमानः। न। राजा। अव। अतिरत्। ज्योतिषा। अग्निः। तमांसि ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राजप्रजे परस्परं कथं वर्त्तेयातामित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! अहः कृष्णं चाऽहरर्जुनं च रजसी वेद्याभिस्सह वि वर्त्तेते राजा न जायमानो वैश्वानरोऽग्निर्ज्योतिषा तमांस्यवातिरत् ॥१॥

    पदार्थः

    (अहः) दिनम् (च) (कृष्णम्) रात्रिः (अहः) व्याप्तिशीलम् (अर्जुनम्) ऋजुगत्यादिगुणम् (च) (वि) विरोधे (वर्त्तेते) (रजसी) रात्र्यहनी (वेद्याभिः) वेदितव्याभिः (वैश्वानरः) विश्वस्मिन् नरे नेतव्ये प्रकाशमानः (जायमानः) उत्पद्यमानः (न) इव (राजा) (अव) (अतिरत्) तरति (ज्योतिषा) प्रकाशेन (अग्निः) (तमांसि) रात्रीः ॥१॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा रात्रिदिने संयुक्ते वर्त्तेते तथैव राजप्रजे अनुकूले भवेतां यथा सूर्य्यः प्रकाशेनाऽन्धकारं निवर्त्तयति तथैव राजा विद्याविनयप्रकाशेनाऽन्धकारं निवर्त्तयेत् ॥१॥

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    हिन्दी (1)

    विषय

    अब सात ऋचावाले नवम सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में राजा प्रजा परस्पर कैसे वर्त्ताव करें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो (अहः) दिन (कृष्णम्) रात्रि (च) और (अहः) व्याप्तिशील (अर्जुनम्) सरलगमन आदि गुणों को (च) भी (रजसी) रात्रिदिन (वेद्याभिः) जानने योग्यों के साथ (वि, वर्त्तेते) विविध प्रकार वर्त्तते हैं और (राजा) राजा के (न) समान (जायमानः) उत्पन्न हुआ (वैश्वानरः) सम्पूर्ण करने योग्य कामों में प्रकाशमान (अग्निः) अग्नि (ज्योतिषा) प्रकाश से (तमांसि) रात्रियों का (अव, अतिरत्) उल्लङ्घन करता है ॥१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जैसे रात्रिदिन संयुक्त हैं, वैसे ही राजा और प्रजा अनुकूल हों और जैसे सूर्य्य प्रकाश से अन्धकार को निवृत्त करता है, वैसे ही राजा विद्या और विनय के प्रकाश से अविद्यारूप अन्धकार को निवृत्त करे ॥१॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात दिवस व रात्र, अपत्य, जीव, परमेश्वराच्या स्थितीचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे रात्र व दिवस संयुक्तपणे राहतात तसे राजा व प्रजा यांनी अनुकूलतेने वागावे. जसा सूर्यप्रकाशाने अंधकार नष्ट होतो तसे राजाने विद्या व विनयाने अविद्यारूपी अंधकार नष्ट करावा. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The dark half of the earth’s daily round, the night, and the bright half, the day, revolve alternately in the terrestrial atmosphere alongwith their cognizable characteristics. Yaishvanara Agni, the sun, darling of the world, as it rises, overcomes and dispels the darkness with light like a ruler eliminating the dark and evil forces of society.

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