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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 100 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 100/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - विष्णुः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    किमित्ते॑ विष्णो परि॒चक्ष्यं॑ भू॒त्प्र यद्व॑व॒क्षे शि॑पिवि॒ष्टो अ॑स्मि । मा वर्पो॑ अ॒स्मदप॑ गूह ए॒तद्यद॒न्यरू॑पः समि॒थे ब॒भूथ॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    किम् । इत् । ते॒ । वि॒ष्णो॒ इति॑ । प॒रि॒ऽचक्ष्य॑म् । भू॒त् । प्र । यत् । व॒व॒क्षे । शि॒पि॒ऽवि॒ष्टः । अ॒स्मि॒ । मा । वर्पः॑ । अ॒स्मत् । अप॑ । गू॒हः॒ । ए॒तत् । यत् । अ॒न्यऽरू॑पः । स॒मि॒थे । ब॒भूथ॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    किमित्ते विष्णो परिचक्ष्यं भूत्प्र यद्ववक्षे शिपिविष्टो अस्मि । मा वर्पो अस्मदप गूह एतद्यदन्यरूपः समिथे बभूथ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    किम् । इत् । ते । विष्णो इति । परिऽचक्ष्यम् । भूत् । प्र । यत् । ववक्षे । शिपिऽविष्टः । अस्मि । मा । वर्पः । अस्मत् । अप । गूहः । एतत् । यत् । अन्यऽरूपः । समिथे । बभूथ ॥ ७.१००.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 100; मन्त्र » 6
    अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 25; मन्त्र » 6
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (विष्णो) हे विभो ! (किम्, ते) किं तव रूपं (परिचक्ष्यम्, भूत्) कथनीयमस्ति (यद्, ववक्षे, शिपिविष्टः, अस्मि) यत् त्वं स्वयमवोचत् अहं तेजोमयोऽस्मि, (यत्, अन्यरूपः, समिथे, बभूथ) यच्च अन्यरूपवान् सङ्ग्रामे भवसि (एतत्) इदं (वर्पः, अस्मत्, मा, अपगूहः) रूपं मत्तो नान्तर्धापय ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (विष्णो) हे व्यापक परमेश्वर ! (किं ते) क्या तुम्हारा वह रूप कथन करने योग्य है, जिसको तुम स्वयं (शिपिविष्टः अस्मि) कि मैं तेजोमय हूँ, अपनी वेदवाणी में कथन करते हो, अर्थात् वह स्वयं सिद्ध है, किसी के कथन की अपेक्षा नहीं रखता और (यत्) जो (अन्यरूपः) दूसरा रूप जो (समिथे) संग्राम में (बभूथ) होता है, (एतत्, वर्पः) इस रूप को (अस्मत्) हमसे (मा) मत (अपगूहः) छिपा ॥

    भावार्थ

    परमात्मा का ‘स्वप्रकाशतेजोमयरूप’ सृष्टि की रचना और पालने से सबको प्रसिद्ध है, अर्थात् उसकी विचित्र रचना से प्रत्येक सूक्ष्मदर्शी पुरुष जानता है कि यह विविध रचना किसी सर्वज्ञ तेजोमय परमात्मा से बिना कदापि नहीं हो सकती।दूसरी ओर जो उसका ‘मन्युमयरूप’ है अर्थात् दुष्टों को दमन करनेवाला ओज है, वह शीघ्र सबकी समझ में नहीं आता, इसलिये इस मन्त्र में यह बतलाया गया है कि जिज्ञासु जन इसको भी समझने का यत्न करें।(बभूथ) क्रिया यहाँ भूतकाल की बोधक नहीं, किन्तु वैदिक व्याकरण के नियम से तीनों कालों का बोधन करती है, अर्थात् परमात्मा तीनों कालों में रुद्ररूप से दुष्टों का दमन करते हैं।और उस रूप के वर्णन करने का प्रकरण यहाँ इसलिये बतलाया है कि आगे सातवें अध्याय में उस रूप का विशेषरूप से वर्णन करना है।कई एक लोग इन दो रूपों के ये अर्थ करते हैं कि एक विष्णु का न देखने योग्य और न सुनने योग्य रूप है, अर्थात् ऐसा अश्लील लज्जाकर है, जिसका भले आदमी नाम लेने से भी लज्जा करते हैं।या यों कहो कि शेप नाम उनके मत में मनुष्य के प्रजा-उत्पादक इन्द्रिय का है। उस जैसे मुखवाले को ‘शिपिविष्टः’ कहते हैं, इसलिये उसके देखने का यहाँ निषेध किया है। यह अर्थ सायणाचार्य्य, महीधरादि सबने किये हैं, जिनकी विशेष समीक्षा करने से ग्रन्थ बढ़ता है, इसलिये इतना ही कहते हैं कि यह उनकी अत्यन्त भूल है, क्योंकि निरु० ५।८ में शेप के अर्थ स्वयं निरुक्तकार ने किये हैं कि ‘शेप’ नाम प्रकाश का है। प्रकाश से आविष्ट का नाम ‘शिपिविष्ट’ है।हमें यहाँ इनके ऐसे घृणित रूप मानने का उतना शोक नहीं, जितना प्रोफेसर मैक्समूलर, विलसन, ग्रिफिथ और सर रमेशचन्द्रदत्त के ऐसे लज्जाकर अर्थों की ज्यों की त्यों नकल कर देने का है। ये लोग यदि इस मन्त्र के भाव पर तनिक भी ध्यान देते, तो ऐसे घृणित अर्थ कदापि न करते।और जो यह कहा जाता है कि निरुक्त के कर्त्ता ने स्वयं यहाँ लज्जाजनक अर्थ किये हैं और यह कहा है कि विष्णु की हँसी उड़ाने के लिये दूसरा लज्जाप्रधान नाम रखा है। यह कथन उन लोगों का है, जो निरुक्तकार के आशय को न समझ कर अन्यथा टीका-टिप्पणी करते हैं, अस्तु ॥मुख्य बात यह है कि ‘शिपिविष्ट’ नाम ज्योतिःस्वरूप परमात्मा का है, क्योंकि ‘शिपि’ नाम ज्योति का स्वयं निरुक्तकार ने माना है, यह हम अनेक स्थलों में दर्शा आये हैं ॥६॥

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    विषय

    विष्णु, व्यापक प्रभु की स्तुति-उपासना।

    भावार्थ

    ( ते ) तेरा ( किम् इत् ) कौनसा रूप ( परिचक्ष्यं भूत् ) सर्वत्र दर्शनीय या कथन करने योग्य है ( यत् ) जिसको तू ( ववक्षे ) स्वयं उपदेश कर रहा है कि मैं ( शिपिविष्टः अस्मि ) रश्मियों में प्रविष्ट, उनसे घिरे सूर्य के समान तेजोरूप होकर सर्वत्र व्यापक हूँ। ( अस्मत् ) हम से अपने ( एतत् ) उस तेजोमय ( वर्पः ) रूप को ( मा अप गूह ) मत छिपा ( यत् ) क्योंकि तू ( समिथे ) प्राप्त होने पर ( अन्यरूपः मा बभूथ ) दूसरे रूपों में भी मत प्रकट हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः॥ विष्णुर्देवता॥ छन्दः—१, २, ५, ६, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। ३ विराट् त्रिष्टुप्। ४ आर्षी त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    तेजोरूप परमेश्वर

    पदार्थ

    पदार्थ- (ते) = तेरा (किम् इत्) = कौन-सा रूप (परिचक्ष्यं भूत्) = कथन योग्य है (यत्) = जिसको तू (ववक्षे) = स्वयं बता रहा है कि मैं (शिपिविष्टः अस्मि) = रश्मियों में प्रविष्ट, उनसे (घिरे) = सूर्य तुल्य तेजोमय हूँ। (अस्मत्) = हमसे अपने (एतत्) = उस तेजोमय (वर्पः) = रूप को (मा अप गूह) = मत छिपा। (यत्) = क्योंकि तू (समिथे) = मिलने पर (अन्यरूपः बभूथ) = दूसरे रूपों में प्रकट होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- वह परमेश्वर अपने तेजोमय रूप के द्वारा विश्व के समस्त पदार्थों में बसा हुआ है। संसार के जिस भी पदार्थ को देखो ऊपर से तो वे भिन्न-भिन्न नजर आएँगे किन्तु उन सबके अन्दर वही एक प्रभु अपने तेजोमय रूप में समाया हुआ है। प्रत्येक पदार्थ में उस तेजस्वी के तेज को ही देखा करो।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Vishnu, can that manifestive form of your presence be described or ignored? You yourself reveal in the Veda that you are self - refulgent. Pray do not hide off that form of yours from me, nor the other one which manifests in the divine wrath and punishment in the existential battle between good and evil.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा ‘स्वप्रकाशतेजोमय रूप’ सृष्टीची रचना व पालन करण्याने सर्वत्र प्रसिद्ध आहे. अर्थात, त्याच्या चित्रविचित्र रचनेला प्रत्येक सूक्ष्मदर्शी पुरुष जाणतो, की ही विविध रचना सर्वज्ञ तेजोमय परमात्म्याशिवाय कधीही होऊ शकत नाही.

    टिप्पणी

    परमात्म्याचे मन्युमयरूप आहे, दुष्टांचे दमन करणारे ओज आहे, ते सर्वांच्या लक्षात येत नाही. त्यामुळे या मंत्रात जिज्ञासू जनांनी हे जाणण्याचा प्रयत्न करावे हे सांगितलेले आहे. $ (बभूथ) येथे क्रिया भूतकाळाची बोधक नाही, तर वैदिक व्याकरणाच्या नियमाने तिन्ही काळाचे बोधन करते. अर्थात, परमात्मा तिन्ही काळात रुद्ररूपाने दुष्टांचे दमन करतो. $ त्या त्याच्या रूपाचे वर्णन येथे यासाठी केलेले आहे, की पुढे सातव्या अध्यायात त्या रूपाचे विशेष रूपाने वर्णन करावयाचे आहे. $ कित्येक लोक या दोन रूपांचा अर्थ करतात, की एक विष्णूचे न पाहण्या व न ऐकण्यायोग्य रूप आहे, असे अश्लील व लज्जास्पद आहे, की सज्जन लोक त्याचे नाव घेण्यासही संकोच करतात. $ शेप नाव त्यांच्या मते माणसाच्या प्रजा उत्पादन इंद्रियाचे आहे. त्याला ‘शिपिविष्ट:’ म्हणतात. त्यासाठी त्याला पाहण्याचा येथे निषेध आहे. हा अर्थ सायणाचार्य, महीधर इत्यादींनी केलेला आहे. ज्यांची विशेष समीक्षा करण्याने ग्रंथ वाढतो. त्यासाठी एवढेच म्हणता येईल, की ही त्यांची चूक आहे. कारण निरु. ५।८ मध्ये शेपचा अर्थ स्वत: निरुक्तकाराने केलेला आहे की ‘शेप’ नाव प्रकाशाचे आहे. प्रकाशाने संपन्न (आविष्ट) असल्याने नाव ‘शिपिविष्ट’ आहे. $ आम्हाला येथे असे घृणित रूप मानण्याची इतकी आवड नाही जितकी म्ॉकसमूलर, विल्सन, ग्रिफिथ व सर रमेशचंद्र दत्त सारख्या लाज वाटेल अशा अर्थाची जशीच्या तशी नक्कल करण्याची आहे. या लोकांनी या मंत्राकडे किंचित जरी लक्ष दिले असते, तर असे घृणित अर्थ कधीही केले नसते. $ असेही म्हटले जाते, की निरुक्तकर्त्याने स्वत: लज्जास्पद अर्थ केलेले आहेत व म्हटले आहे, की विष्णूची टर उडविण्यासाठी दुसरे लज्जास्पद नाव दिलेले आहे. जे लोक निरुक्तकाराचा आशय न समजता विनाकारण दोष काढतात, त्यांना काय म्हणावे? $ मुख्य गोष्ट ही आहे की ‘शिपिविष्ट’ नाव ज्योतिस्वरूप परमेश्वराचे आहे. कारण स्वत: निरुक्तकार ‘शिपि’चा अर्थ ज्योती मानतो. हे अनेक ठिकाणी आम्ही उद्धृत केलेले आहे. ॥६॥

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