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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 13 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 13/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - वैश्वानरः छन्दः - स्वराट्पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    प्राग्नये॑ विश्व॒शुचे॑ धियं॒धे॑ऽसुर॒घ्ने मन्म॑ धी॒तिं भ॑रध्वम्। भरे॑ ह॒विर्न ब॒र्हिषि॑ प्रीणा॒नो वै॑श्वान॒राय॒ यत॑ये मती॒नाम् ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । अ॒ग्नये॑ । वि॒श्व॒ऽशुचे॑ । धि॒य॒म्ऽधे॑ । अ॒सु॒र॒ऽघ्ने । मन्म॑ । धी॒तिम् । भ॒र॒ध्व॒म् । भरे॑ । ह॒विः । न । ब॒र्हिषि॑ । प्री॒णा॒नः । वै॒श्वा॒न॒राय॑ । यत॑ये । म॒ती॒नाम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्राग्नये विश्वशुचे धियंधेऽसुरघ्ने मन्म धीतिं भरध्वम्। भरे हविर्न बर्हिषि प्रीणानो वैश्वानराय यतये मतीनाम् ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। अग्नये। विश्वऽशुचे। धियम्ऽधे। असुरऽघ्ने। मन्म। धीतिम्। भरध्वम्। भरे। हविः। न। बर्हिषि। प्रीणानः। वैश्वानराय। यतये। मतीनाम् ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 13; मन्त्र » 1
    अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ संन्यासिनः कीदृशो भवन्तीत्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! मतीनां मध्ये वैश्वानराय विश्वशुचे धियन्धेऽसुरघ्नेऽग्नये यतये बर्हिषि प्रीणानो राजा भरे हविर्न मन्म धीतिञ्च यूयं प्र भरध्वम् ॥१॥

    पदार्थः

    (प्र) (अग्नये) अग्निरिव विद्यादिशुभगुणैः प्रकाशमानाय (विश्वशुचे) यो विश्वं सर्वं जगच्छोधयति तस्मै (धियन्धे) यो धियं दधाति तस्मै (असुरघ्ने) योऽसुरान् दुष्टकर्मकारिणो हन्ति तिरस्करोति तस्मै (मन्म) विज्ञानम् (धीतिम्) धर्मस्य धारणाम् (भरध्वम्) धरध्वं पोषयत वा (भरे) सङ्ग्रामे (हविः) दातव्यमत्तव्यमन्नादिकम् (न) इव (बर्हिषि) सभायाम् (प्रीणानः) प्रसन्नः (वैश्वानराय) विश्वेषां नराणां नायकाय (यतये) यतमानाय संन्यासिने (मतीनाम्) मनुष्याणां मध्ये ॥१॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। हे गृहस्था ! येऽग्निवद्विद्यासत्यधर्मप्रकाशका अधर्मखण्डनेन धर्ममण्डनेन सर्वेषां शुद्धिकराः प्रज्ञाः प्रमाप्रदा अविद्वत्ताविनाशका मनुष्याणां विज्ञानं धर्मधारणं च कारयन्तो यतयः संन्यासिनो भवेयुस्तत्सङ्गेन सर्वे यूयं प्रज्ञां धृत्वा निःसंशया भवत। यथा राजा युद्धस्य सामग्रीमलङ्करोति तथैव यतिवराः सुखस्य सामग्रीमलंकुर्वन्ति ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब तीन ऋचावाले तेरहवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में संन्यासी कैसे होते हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो (मतीनाम्) मनुष्यों के बीच (वैश्वानराय) सब मनुष्यों के नायक (विश्वशुचे) सब को शुद्ध करनेवाले (धियन्धे) बुद्धि को धारण करनेहारे (असुरघ्ने) दुष्ट कर्मकारियों को मारने वा तिरस्कार करनेवाले (अग्नये) अग्नि के तुल्य विद्यादि शुभ गुणों से प्रकाशमान (यतये) यत्न करनेवाले संन्यासी के लिये (बर्हिषि) सभा में (प्रीणानः) प्रसन्न हुआ राजा (भरे) संग्राम में (हविः) भोगने वा देने योग्य अन्न को जैसे (न) वैसे (मन्म) विज्ञान (धीतिम्) धर्म की धारणा को तुम लोग (प्र, भरध्वम्) धारण वा पोषण करो ॥१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमावाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे गृहस्थो ! जो अग्नि के तुल्य विद्या और सत्य धर्म के प्रकाशक, अधर्म के खण्डन और धर्म के मण्डन से सब के शुद्धिकर्त्ता, बुद्धिमान्, निश्चित ज्ञान देनेवाले, अविद्वत्ता के विनाशक, मनुष्यों को विज्ञान और धर्म का धारण कराते हुए संन्यासी हों, उनके सङ्ग से सब तुम लोग बुद्धि को धारण कर निस्सन्देह होओ। जैसे राजा युद्ध की सामग्री को शोभित करता है, वैसे उत्तम संन्यासी जन सुख की सामग्री को शोभित करते हैं ॥१॥

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    विषय

    सर्वहितैषी वैश्वानर प्रभु की स्तुति ।

    भावार्थ

    हे विद्वान् पुरुषो ! आप लोग ( विश्व-शुचे ) सब जगत् को प्रकाशित और पवित्र करने वाले और ( विश्व-शुचे ) सब के प्रति शुद्ध अन्तःकरण वाले, (धियन्धे ) उत्तम बुद्धि, ज्ञान और कर्म को धारण करने, कराने वाले, (असुरघ्ने) दुष्टों का नाश, तिरस्कार करने वाले ( मतीनां यतये ) ज्ञान बुद्धियों के देने वाले एवं मननशील पुरुषों के बीच संयम से रहकर ईश्वर प्राप्ति और जगत् के सुधार का यत्न करने वाले, (वैश्वानराय ) समस्त मनुष्यों के हितकारी, सर्वनायक रूप ( अग्नये ) ज्ञानस्वरूप प्रभु के लिये ( बर्हिषि अग्नये ) यज्ञ में अग्नि के लिये ( हविः न ) हवि के समान ( मन्म धीतिम् भरे ) मननयोग्य, में उत्तम संकल्प और स्तुति प्रस्तुत करता हूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः॥ वैश्वानरो देवता ॥ छन्दः – १, २ स्वराट् पंक्ति: । ३ भुरिक् पंक्तिः ॥

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    विषय

    विश्वशुचे धियन्धे

    पदार्थ

    [१] (विश्वशुचे) = सारे संसार को दीप्त करनेवाले दीप्ति के लिये ही (धियन्धे) = बुद्धि को धारण करनेवाले, बुद्धि धारण के द्वारा (असुरघ्ने) = आसुर वृत्तियों का विनाश करनेवाले (अग्नये) = उस अग्रणी प्रभु के लिये (मन्म) = मननीय स्तोत्र को तथा (धीति) = उत्तम यज्ञ आदि कर्म को (प्रभरध्वम्) = प्रकर्षेण धारण करो। [२] मैं (मतीनां यतये) = बुद्धियों के देनेवाले (वैश्वानराय) = सब मनुष्यों का हित करनेवाले प्रभु के लिये (बर्हिषि) = यज्ञ में (हविः न) = हवि के समान, (प्रीणान:) = (प्रीणयन्) प्रीणित करता हुआ भरे= स्तुति का भरण करता हूँ। मैं यज्ञों में हवि को देता हुआ तथा स्तुति करता हुआ प्रभु की प्रीति का कारण बनता हूँ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु को हम यज्ञों व स्तुति द्वारा प्रीणित करें। प्रभु हमारे जीवनों को दीप्त करते हैं, बुद्धि को देते हैं और आसुरभावों का विनाश करते हैं।

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात अग्नीचा दृष्टांत देऊन संन्याशाच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. हे गृहस्थांनो ! अग्नीप्रमाणे विद्या व सत्यधर्म प्रकाशक, अधर्माचे खंडन व धर्माचे मंडन करून सर्वांचे शुद्धिकर्ता, बुद्धिमान ज्ञानप्रपापक, अविद्या विनाशक, माणसांना विज्ञान व धर्म धारण करविणारे जे संन्यासी असतात त्यांच्या संगतीत राहून तुम्ही बुद्धी धारण करून संशयरहित बना, जसा राजा युद्धसामग्री सुशोभित करतो तसे उत्तम संन्यासी सुखाची सामग्री सुशोभित करतात. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    To Agni, purifier of the world, inspirer of the mind and soul, and destroyer of evil and darkness, bear and offer all your thought, will and action in dedication as I, happy at heart in the assembly house of social yajna, dedicate mine to the leading light of the world, selfless guide and pioneer of action and endeavour for humanity.

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