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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 17/ मन्त्र 4
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अग्निः छन्दः - आर्च्युष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    स्व॒ध्व॒रा क॑रति जा॒तवे॑दा॒ यक्ष॑द्दे॒वाँ अ॒मृता॑न्पि॒प्रय॑च्च ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒ऽअ॒ध्व॒रा । क॒र॒ति॒ । जा॒तऽवे॑दाः । यक्ष॑त् । दे॒वान् । अ॒मृता॑न् । पि॒प्रय॑त् । च॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वध्वरा करति जातवेदा यक्षद्देवाँ अमृतान्पिप्रयच्च ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुऽअध्वरा। करति। जातऽवेदाः। यक्षत्। देवान्। अमृतान्। पिप्रयत्। च ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 17; मन्त्र » 4
    अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    केऽध्यापकाः वराः सन्तीत्याह ॥

    अन्वयः

    यो जातवेदाः अध्यापको विद्यार्थिनो देवान् स्वध्वरा करत्यमृतान् यक्षदेतान् पिप्रयच्च स विद्यार्थिभिः सेवनीयोऽस्ति ॥४॥

    पदार्थः

    (स्वध्वरा) सुष्ठ्वहिंस्रस्वभावयुक्तान् (करति) कुर्यात् (जातवेदाः) प्रसिद्धविद्यः (यक्षत्) सङ्गच्छेत् (देवान्) विदुषः (अमृतान्) स्वस्वरूपेण मृत्युरहितान् (पिप्रयत्) प्रीणीयात् (च) ॥४॥

    भावार्थः

    येषामध्यापकानां विद्यार्थिनः सद्यो विद्वांसः सुशीला धार्मिका जायन्ते त एवाऽध्यापकाः प्रशंसनीयाः सन्ति ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    कौन अध्यापक श्रेष्ठ हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    जो (जातवेदाः) विद्या में प्रसिद्ध अध्यापक विद्यार्थियों को (देवान्) विद्वान् और (स्वध्वरा) अच्छे प्रकार अहिंसा स्वभाववाले (करति) करे (अमृतान्) अपने स्वरूप से मृत्युरहितों को (यक्षत्) सङ्गत करे (च) और इनको (पिप्रयत्) तृप्त करे, वह विद्यार्थियों को सेवने योग्य है ॥४॥

    भावार्थ

    जिन अध्यापकों के विद्यार्थी शीघ्र विद्वन्, सुशील, धार्मिक होते हैं, वे ही अध्यापक प्रशंसनीय होते हैं ॥४॥

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    विषय

    यज्ञाग्निवत् विद्वान् शासक के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( जातवेदाः ) ऐश्वर्य और ज्ञान वाला पुरुष ( सु-अध्वरा करति ) उत्तम २ यज्ञ करे । वह ( देवान् यक्षत् ) विद्वानों का सत्संग और सत्कार करे वह ( अमृतान् पिप्रयत्) मरण रहित, जीवित पुरुषों को अन्नों से पालन करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ३, ४, ६, ७ आर्च्युष्णिक् । २ साम्नी त्रिष्टुप् । ५ साम्नी पंक्तिः । सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    यज्ञ-देवसंग- अमृतत्व

    पदार्थ

    [१] वह (जातवेदा:) = सर्वधनों को देनेवाला प्रभु इन धनों के द्वारा हमें (स्वध्वरा) = उत्तम यज्ञोंवाला (करति) = करता है और (देवान्) = देववृत्ति के पुरुषों को (यक्षत्) = हमारे साथ संगत करते हैं। इस सत्संग के द्वारा यज्ञ आदि उत्तम कर्मों में हमारी वृत्ति बढ़ती है। [२] (च) = और वे प्रभु (अमृतान्) = विषय-वासनाओं के पीछे न मरनेवाले और अतएव नीरोग जीवनवाले हम सबको (पिप्रयत्) = प्रभु प्रीणित करते हैं - प्रीति का अनुभव कराते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु की प्रेरणा हमें यज्ञों में प्रवृत्त करती है- हमें देवसंग प्राप्त कराती है। और इस प्रकार नीरोग जीवनवाले हम सबको प्रीति का अनुभव कराती है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्या अध्यापकांचे विद्यार्थी शीघ्र विद्वान, सुशील, धार्मिक असतात तेच अध्यापक प्रशंसनीय असतात. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Jataveda, all knowing, all reaching power of nature and humanity, yajna fire and teacher, communicates with the undecaying bounties of nature and the immortal souls of enlightened humans and seekers of enlightenment, renders them favourable to the yajnic programmes of peace and non-violent development and thus gives them fulfilment.

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