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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 42 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 42/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    समु॑ वो य॒ज्ञं म॑हय॒न्नमो॑भिः॒ प्र होता॑ म॒न्द्रो रि॑रिच उपा॒के। यज॑स्व॒ सु पु॑र्वणीक दे॒वाना य॒ज्ञिया॑म॒रम॑तिं ववृत्याः ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । ऊँ॒ इति॑ । वः॒ । य॒ज्ञम् । म॒ह॒य॒न् । नमः॑ऽभिः । प्र । होता॑ । म॒न्द्रः । रि॒रि॒चे॒ । उ॒पा॒के । यज॑स्व । सु । पु॒रु॒ऽअ॒नी॒क॒ । दे॒वान् । आ । य॒ज्ञिया॑म् । अ॒रऽम॑तिम् । व॒वृ॒त्याः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समु वो यज्ञं महयन्नमोभिः प्र होता मन्द्रो रिरिच उपाके। यजस्व सु पुर्वणीक देवाना यज्ञियामरमतिं ववृत्याः ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्। ऊँ इति। वः। यज्ञम्। महयन्। नमःऽभिः। प्र। होता। मन्द्रः। रिरिचे। उपाके। यजस्व। सु। पुरुऽअनीक। देवान्। आ। यज्ञियाम्। अरऽमतिम्। ववृत्याः ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 42; मन्त्र » 3
    अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वांसः किं कुर्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे पुर्वणीक राजन् ! त्वं देवान् सुयजस्व यज्ञियामरमतिमा ववृत्या मन्द्रो होता सन्नुपाके प्र रिरिचे, हे विद्वांसो ! ये नमोभिर्वो यज्ञं सम्महयन् तानु यूयं सत्कुरुत ॥३॥

    पदार्थः

    (सम्) (उ) (वः) युष्माकम् (यज्ञम्) विद्याप्रचारमयम् (महयन्) सत्कुर्वन्ति (नमोभिः) अन्नादिभिः (प्र) (होता) दाता (मन्द्रः) आनन्दप्रदः (रिरिचे) अन्यायात् पृथग्भव (उपाके) समीपे (यजस्व) सङ्गच्छस्व (सु) (पुर्वणीक) पुरूण्यनीकानि सैन्यानि यस्य तत्सम्बुद्धौ (देवान्) विदुषः (आ) (यज्ञियाम्) या यज्ञमर्हति ताम् (अरमतिम्) पूर्णां प्रज्ञाम् (ववृत्याः) प्रवर्त्तय ॥३॥

    भावार्थः

    ये विद्वांसः सत्कर्मानुष्ठानाख्यं यज्ञमनुतिष्ठन्ति ते पुष्कलवीरसेनास्सन्तः सर्वेषामानन्दप्रदा भवन्ति ॥३॥

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    हिन्दी (2)

    विषय

    फिर विद्वान् क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (पुर्वणीक) बहुत सेनाओंवाले राजा ! आप (देवान्) विद्वानों को (सु, यजस्व) अच्छे प्रकार प्राप्त होओ (यज्ञियाम्) जो यज्ञ के योग्य होती उस (अरमतिम्) पूरी मति को (आ, ववृत्याः) प्रवृत्त कराओ (मन्द्रः) आनन्द देने वा (होता) दान करनेवाले होते हुए (उपाके) समीप में (प्र, रिरिचे) अन्याय से अलग रहिये, हे विद्वानो ! जो (नमोभिः) अन्नादिकों से (वः) तुम लोगों के (यज्ञम्) विद्याप्रचारमय यज्ञ का (सम्, महयन्) सम्मान करते हैं (उ) उन्हीं का तुम सत्कार करो ॥३॥

    भावार्थ

    जो विद्वान् जन सत्कर्मानुष्ठानयज्ञ का अनुष्ठान करते हैं, वे पुष्कल वीर सेनावाले होते हुए सबको आनन्द देनेवाले होते हैं ॥३॥

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    विषय

    यज्ञरूप परमेश्वर की पूजा

    पदार्थ

    पदार्थ- हे विद्वान् जनो! (वः) = आप लोगों में (मन्द्रः) = स्तुत्य (होता) = उपदेष्टा (नमोभिः) = नमस्कार योग्य मन्त्रों से (यज्ञं) = यज्ञमय परमेश्वर की (महयन्) = पूजा करता हुआ (उपाके) = हमारे पास रहकर (प्र रिरिचे) = पापों से पृथक् रहता है। हे (पुर्वणीक) = बहुत सैन्यों के स्वामिन् ! तू (देवान् सु यजस्व) = विद्वान् पुरुषों का सत्संग कर, उनको दान दे और (यज्ञियानाम्) = यज्ञ, प्रभु की ध्यानोपासना और सत्संगोचित्त (अरमतिं) = उत्तम बुद्धि को (आ ववृत्याः) = सब प्रकार प्रयुक्त कर ।

    भावार्थ

    भावार्थ - उत्तम विद्वानों के संग से सभी मनुष्य प्रभु की ध्यानोपासना तथा यज्ञ क्रिया में संलग्न होकर उत्तम बुद्धि को प्राप्त करें। इस प्रकार यज्ञमय परमेश्वर की पूजा द्वारा समस्त पापों से पृथक् रह सकेंगे।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे विद्वान सत्कर्मानुष्ठान यज्ञ करतात त्यांना प्रचंड वीरसेना प्राप्त होते व ते सर्वांना आनंद देतात. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Together and holily they sing, celebrate and glorify your yajna with reverence and homage while close at hand the happy and meditative yajaka and generous priest excels in faith and generosity. O lord of manifold forces, Agni, join the divinities of nature and humanity and keep on the holy and yajnic vision and wisdom of the life divine for us without relent.

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