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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 62 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 62/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्र बा॒हवा॑ सिसृतं जी॒वसे॑ न॒ आ नो॒ गव्यू॑तिमुक्षतं घृ॒तेन॑ । आ नो॒ जने॑ श्रवयतं युवाना श्रु॒तं मे॑ मित्रावरुणा॒ हवे॒मा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । बा॒हवा॑ । सि॒सृ॒त॒म् । जी॒वसे॑ । नः॒ । आ । नः॒ । गव्यू॑तिम् । उ॒क्ष॒त॒म् । घृ॒तेन॑ । आ । नः॒ । जने॑ । श्र॒व॒य॒त॒म् । यु॒वा॒ना॒ । श्रु॒तम् । मे॒ । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । हवा॑ । इ॒मा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र बाहवा सिसृतं जीवसे न आ नो गव्यूतिमुक्षतं घृतेन । आ नो जने श्रवयतं युवाना श्रुतं मे मित्रावरुणा हवेमा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । बाहवा । सिसृतम् । जीवसे । नः । आ । नः । गव्यूतिम् । उक्षतम् । घृतेन । आ । नः । जने । श्रवयतम् । युवाना । श्रुतम् । मे । मित्रावरुणा । हवा । इमा ॥ ७.६२.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 62; मन्त्र » 5
    अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ स्वभावोक्त्यलङ्कारेण प्राणापानौ सम्बोध्य इन्द्रियसंयमः प्रार्थ्यते। 

    पदार्थः

    (मित्रावरुणा) हे प्राणापानरूपवायू ! (नः) अस्माकं (जीवसे) जीवनार्थं (प्र) विशेषतया (बाहवा) युवाभ्यां शक्तिरूपौ भुजौ (सिसृतम्) प्रसारयतम्, अपरञ्च (नः) अस्माकं (गव्यूतिम्) इन्द्रियगणं (घृतेन) सुस्निग्धतया सुमार्गे (उक्षतम्) सिञ्चतम्, हे प्राणापानौ ! भवन्तौ (युवाना) सदैव युवावस्थां प्राप्तौ, अत एव (नः) अस्माकं (जने) मादृशे मनुष्ये (आ) किञ्च (श्रुतम्) ज्ञानगतिं (श्रवयतम्) वर्द्धयतां (मे) मम (इमा, हवाः) प्राणापानरूपा आहुतीः (श्रुतम्) प्रवाहिताः कुरुताम् ॥५॥

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    हिन्दी (1)

    विषय

    अब स्वभावोक्ति अलंकार से प्राणापान को संबोधन करके इन्द्रियसंयम की प्रार्थना करते हैं।

    पदार्थ

    (मित्रावरुणा) हे प्राणपानरूप वायो ! आप (नः) हमारे (जीवसे) जीवन के लिए (प्र) विशेषता से (बाहवा, सिसृतम्) प्राणापानरूप शक्ति को विस्तारित करें (आ) और (नः) हमारी (गव्यूतिम्) इन्द्रियों को (घृतेन, उक्षतम्) अपनी स्निग्धता से सुमार्ग में सिञ्चित करें, हे प्राणापान ! आप नित्य (युवाना) युवावस्था को प्राप्त हैं, इसलिए (नः, जने) हमारे जैसे मनुष्यों में (श्रवयतम्) ज्ञानगति बढ़ायें (आ) और (मे) हमारी (हवा, इमा) इन प्राणापानरूप आहुतियों को (श्रुतम्) प्रवाहित करें ॥५॥

    भावार्थ

    मनुष्य की स्वाभाविक गति इस ओर होती है कि वह अपने मन, प्राण तथा इन्द्रियों को संबोधन करके कुछ कथन करे, साहित्य में इसको स्वभावोत्ति अलंकार और दर्शनिकों की परिभाषा में उपचार कहते हैं, यहाँ पूर्वोक्त अलंकार से प्राणापान को संबोधन करके यह कथन किया है कि प्राणयाम द्वारा हमारी इन्द्रियों में इस प्रकार का बल उत्पत्र हो, जिससे वे सन्मार्ग से कभी च्युत न हों अर्थात् अपने संयम में तत्पर रहें और इनको “युवाना” विशेषण इसलिए दिया है कि जिस प्रकार अन्य शारीरिक तत्त्व वृद्धावस्था में जाकर जीर्ण हो जाते हैं, इस प्रकार प्राणों में कोई विकार उत्पत्र नहीं होता, नित्य नूतन रहने के कारण इनको “युवा” कहा गया है ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Mitra and Varuna, loving and discriminative pranic vitalities of our health system, extend your power and energy like helping hands for our life and health and sprinkle the vital movement of our senses and mind with liquid rejuvenation and replenishment of energy. O youthful powers of rejuvenation, vest our people with the glow of health and light of intelligence in response to my invocation and input of pranayamic exercise for the pranic energy system.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसाची स्वाभाविक प्रवृत्ती अशी असते, की आपले मन, प्राण व इंद्रियांना संबोधित करून काही सांगावे, बोलावे. साहित्यात त्याला स्वभावोक्ती अलंकार म्हणतात व दार्शनिक परिभाषेत उपचार म्हणतात. येथे पूर्वोक्त अलंकाराने प्राणापानाला संबोधित करून म्हटले आहे, की प्राणायामाद्वारे आमच्या इंद्रियात या प्रकारचे बल उत्पन्न व्हावे, की ती सन्मार्गापासून दूर जाता कामा नयेत. अर्थात ती सतत संयमित असावीत. त्यांना ‘युवाना’ विशेषण यासाठी दिलेले आहे, की ज्या प्रकारे इतर शारीरिक तत्त्वे वृद्धावस्थेत जीर्ण होतात तसा प्राणांमध्ये कोणताही विकार होत नाही. नित्य नूतन असल्यामुळे त्यांना ‘युवा’ म्हटले आहे. ॥५॥

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