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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 7/ मन्त्र 4
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स॒द्यो अ॑ध्व॒रे र॑थि॒रं ज॑नन्त॒ मानु॑षासो॒ विचे॑तसो॒ य ए॑षाम्। वि॒शाम॑धायि वि॒श्पति॑र्दुरो॒णे॒३॒॑ग्निर्म॒न्द्रो मधु॑वचा ऋ॒तावा॑ ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒द्यः । अ॒ध्व॒रे । र॒थि॒रम् । ज॒न॒न्त॒ । मानु॑षासः । विऽचे॑तसः । यः । ए॒षा॒म् । वि॒शाम् । अ॒धा॒यि॒ । वि॒श्पतिः॑ । दु॒रो॒णे । अ॒ग्निः । म॒न्द्रः । मधु॑ऽवचाः । ऋ॒तऽवा॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सद्यो अध्वरे रथिरं जनन्त मानुषासो विचेतसो य एषाम्। विशामधायि विश्पतिर्दुरोणे३ग्निर्मन्द्रो मधुवचा ऋतावा ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सद्यः। अध्वरे। रथिरम्। जनन्त। मानुषासः। विऽचेतसः। यः। एषाम्। विशाम्। अधायि। विश्पतिः। दुरोणे। अग्निः। मन्द्रः। मधुऽवचाः। ऋतऽवा ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 7; मन्त्र » 4
    अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः को मनुष्यो योग्यो राजा भवतीत्याह ॥

    अन्वयः

    विचेतसो मानुषासोऽध्वरे यं रथिरं सद्यो जनन्त य एषां मध्ये दुरोणेऽग्निरिव मन्द्रो मधुवचा ऋतावा विशां विश्पतिर्विद्वद्भिरधायि स एव राजा भवितुमर्हति ॥४॥

    पदार्थः

    (सद्यः) (अध्वरे) अहिंसामये व्यवहारे (रथिरम्) यो रथिषु रमते तम् (जनन्त) जनयन्ति (मानुषासः) मनुष्याः (विचेतसः) विविधप्रज्ञायुक्ताः (यः) (एषाम्) विदुषाम् (विशाम्) प्रजानाम् (अधायि) धीयते (विश्पतिः) प्रजापालकः (दुरोणे) गृहे (अग्निः) पावक इव (मन्द्रः) आनन्दप्रदः (मधुवचाः) मधूनि मधुराणि वचांसि यस्य सः (ऋतावा) य ऋतं सत्यमेव वनति सम्भजति सः ॥४॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यं सुशिक्षया विद्यां ग्राहयित्वा विपश्चितं विद्वांसो जनयन्ति स योग्यो भूत्वा गृहे दीप इव प्रजासु न्यायप्रकाशको जायते ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर कौन मनुष्य योग्य राजा होता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    (विचेतसः) विविधप्रकार की बुद्धि से युक्त (मानुषासः) मनुष्य (अध्वरे) अहिंसारूप व्यवहार में जिस (रथिरम्) रथवालों में रमण करनेवाले को (सद्यः) शीघ्र (जनन्त) प्रकट करते हैं (यः) जो (एषाम्) विद्वानों के बीच (दुरोणे) घर में (अग्निः) अग्नि के तुल्य (मन्द्रः) आनन्ददाता (मधुवचाः) कोमल वचनों (ऋतावा) और सत्य का सेवन करनेवाला (विशाम्) प्रजाओं का (विश्पतिः) रक्षक विद्वानों से (अधायि) धारण किया जाता, वही राजा होने को योग्य होता है ॥४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जिसको उत्तम शिक्षा से विद्या ग्रहण कराके विद्वान् लोग पण्डित करते हैं, वह योग्य होकर घर में दीप के तुल्य प्रजाओं में न्याय का प्रकाशक होता है ॥४॥

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    विषय

    गार्हपत्य अग्निवत् उसकी स्थापना ।

    भावार्थ

    ( ये ) जो ( एषाम् ) इन प्रजावर्गों में से ( वि-चेतसः ) विविध और विशेष ज्ञान वाले ( मानुषासः ) मनुष्य हैं वे ( सद्यः) शीघ्र ( अध्वरे ) यज्ञ में अग्नि के समान तेजस्वी एवं ( रथिरं ) रथ-सैन्य के संचालन का स्वामी (जनन्त ) बनावें । ( दुरोणे अग्निः ) दुःख से चढ़ने योग्य अन्तरिक्ष में, दूर जिस प्रकार सूर्य है उसी प्रकार वह भी ( दुरोणे ) गृह में ( अग्निः ) गार्हपत्य अग्नि को स्थापन किया जाता है (विशां विश्पतिः) प्रजाओं का स्वामी, (विशां दुरोणे) प्रजा के गृहस्थवत् राष्ट्र में ( मन्द्रा ) सबको अनन्दप्रद हो । ( मधुवचा: ) मधुरभाषी ( ऋतावा ) सत्य न्याय का सेवन करने वाला पुरुष ( अधायि ) राजा पद पर स्थापित हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ३ त्रिष्टुप् । ४, ५, ६ निचृत्त्रिष्टुप् । २ भुरिक्ं पंक्तिः । ७ स्वराट् पंक्तिः । सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    प्रभु को सारथि बनाना

    पदार्थ

    [१] (विचेतसः) = विशिष्ट चेतनावाले (मानुषास:) = विचारशील लोग (सद्यः) = शीघ्र ही (अध्वरे) = जीवनयज्ञ में उस प्रभु को (रथिरं जनन्त) = शरीररूप रथ का संचालक बनाते हैं। (यः) = जो प्रभु (एषाम्) = इन (विशाम्) = प्रजाओं के (दुरोणे) = इस शरीररूप गृह में (अधायि) = स्थापित हैं। हम सब के हृदयों में स्थित हुए-हुए प्रभु ही वस्तुतः हमारे जीवन यज्ञ को चलाते हैं। इस शरीर-रथ के सारथि प्रभु ही हैं। प्रभु को अपने रथ की बागडोर सौंपनेवाला व्यक्ति भटकता नहीं। [२] ये प्रभु ही (विश्पतिः) = सब प्रजाओं के रक्षक हैं। (अग्निः) = अग्रणी हैं। (मन्द्रः) = स्तुत्य व सदा प्रसन्न हैं। (मधुवचाः) = अत्यन्त मधुर वचनोंवाले हैं और (ऋतावा) = यज्ञोंवाले व ऋत [सत्य] वाले हैं। प्रभु के उपासक का जीवन भी अनृत शून्य हो जाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ-समझदार व्यक्ति प्रभु को ही अपने रथ का सारथि बनाते हैं। प्रभु इनका रक्षण करते हैं। इनको 'प्रगतिशील, प्रसन्न, मधुर व ऋतवाला' बनाते हैं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्याला उत्तम शिक्षणाद्वारे विद्या ग्रहण करवून विद्वान लोक पंडित करतात तो योग्य बनून घरातील दीपकाप्रमाणे प्रजेत न्यायाचा प्रकाशक होतो (राजा) ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, high priest and ruler of the social order, whom people of discernment and wisdom create and initiate as the leader of leaders in the yajna without delay, is happy at heart, sweet of tongue and observant of the laws of truth. He is the ruler and protector of the people and is held in high esteem in the heart and home of these people who have elected him to the office.

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