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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 83 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 83/ मन्त्र 10
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्रावरुणौ छन्दः - आर्षीजगती स्वरः - निषादः

    अ॒स्मे इन्द्रो॒ वरु॑णो मि॒त्रो अ॑र्य॒मा द्यु॒म्नं य॑च्छन्तु॒ महि॒ शर्म॑ स॒प्रथ॑: । अ॒व॒ध्रं ज्योति॒रदि॑तेॠता॒वृधो॑ दे॒वस्य॒ श्लोकं॑ सवि॒तुर्म॑नामहे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्मे इति॑ । इन्द्रः॑ । वरु॑णः । मि॒त्रः । अ॒र्य॒मा । द्यु॒म्नम् । य॒च्छ॒न्तु॒ । महि॑ । शर्म॑ । स॒ऽप्रथः॑ । अ॒व॒ध्रम् । ज्योतिः॑ । अदि॑तेः । ऋ॒त॒ऽवृधः॑ । दे॒वस्य॑ । श्लोक॑म् । स॒वि॒तुः । म॒ना॒म॒हे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्मे इन्द्रो वरुणो मित्रो अर्यमा द्युम्नं यच्छन्तु महि शर्म सप्रथ: । अवध्रं ज्योतिरदितेॠतावृधो देवस्य श्लोकं सवितुर्मनामहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्मे इति । इन्द्रः । वरुणः । मित्रः । अर्यमा । द्युम्नम् । यच्छन्तु । महि । शर्म । सऽप्रथः । अवध्रम् । ज्योतिः । अदितेः । ऋतऽवृधः । देवस्य । श्लोकम् । सवितुः । मनामहे ॥ ७.८३.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 83; मन्त्र » 10
    अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 5
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्रः) वैद्युतविद्याभिज्ञः (वरुणः) जलीयविद्यावेत्ता (मित्रः) राजमन्त्री (अर्यमा) न्यायाधीशः (अस्मे) अस्मभ्यं (द्युम्नम्) दीप्तिमत् (महि) महत् (सप्रथः) सुप्रख्यातं (शर्म) सुखं (यच्छन्तु) ददतु (ज्योतिः) ज्योतिःस्वरूपः (अवध्रं) नित्यः (अदितेः) अखण्डनीयो विभुः (ऋतावृधः) सत्यस्वरूपः (देवस्य) दिव्यात्मा (सवितुः) विश्वजनको यो भगवान् तस्य (श्लोकम्) स्तुतिं (मनामहे) कुर्महे ॥१०॥ इति त्र्यशीतितमं सूक्तं पञ्चमो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (इन्द्रः) वैद्युतविद्यावेत्ता (वरुणः) जलीयविद्या के ज्ञाता (मित्रः) राजमन्त्री (अर्यमा) न्यायाधीश (अस्मे) हमको (द्युम्नं) दीप्तिवाला (महि) बड़ा (सप्रथः) विस्तृत (शर्म) सुख (यच्छन्तु) प्राप्त करायें, (ज्योतिः) हे दिव्यस्वरूप (अवध्रं) नित्य (अदितेः) अखण्डनीय (ऋतावृधः) सत्यस्वरूप (देवस्य) दिव्यस्वरूप (सवितुः) सबके उत्पादक परमात्मन् ! मैं आपकी (श्लोकं) स्तुति (मनामहे) करता हूँ ॥१०॥

    भावार्थ

    हे न्यायाधीश परमात्मन् ! आप इन्द्रादि विद्वानों द्वारा हमको नित्य सुख की प्राप्ति करायें और ऐसी कृपा करें कि हम आपके सत्यादि गुणों का गान करते हुए सदैव आपकी स्तुति में तत्पर रहें ॥१०॥ यह ८३वाँ सूक्त और ५वाँ वर्ग समाप्त हुआ।

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    विषय

    दश राजा, सुदास, तृत्सु उनका रहस्य, सभा-सेनाध्यक्षों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    व्याख्या देखो सू० ८२ । म० १० ॥ इति पञ्चमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ इन्द्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः - १, ३, ९ विराड् जगती। २,४,६ निचृज्जगती। ५ आर्ची जगती। ७, ८, १० आर्षी जगती॥ दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    माता-पिता के समान राजा

    पदार्थ

    पदार्थ- इन्द्र ऐश्वर्यवान्, तेजस्वी (वरुण:) = मेघवत् उदार, वरणीय, (मित्रः) = स्नेही, (अर्यमा) = शत्रुओं के नियन्त्रण में कुशल पुरुष (अस्मे) = हमें (महि द्युम्नं) = बड़ा ऐश्वर्य और (सप्रथः शर्म) = विस्तारयुक्त शरण, गृह आदि (यच्छन्तु) = प्रदान करें। ये सब (ऋत-वृधः) = सत्य, न्याय, धन आदि को बढ़ाने और स्वयं बढ़नेवाले होकर (अदितेः) = अखण्ड शासनकर्त्ता, प्रजा के माता, पिता एवं (पुत्रवत्) = पालक के (अवध्रं) = न नाश होनेवाले (ज्योतिः) = ज्ञान और प्रताप का प्रदान करें। हम भी उसी (देवस्य) = दाता (सवितुः) = प्रभु की (श्लोकं) = वाणी - वेद तथा आज्ञा का (मनामहे) = मान तथा मनन करें।

    भावार्थ

    भावार्थ- राजा को योग्य है कि वह अपने राष्ट्र में प्रजा के लिए गृह निर्माण, उद्योग विस्तार करके आजीविका व निवास स्थान प्रदान करे। प्रजा को न्याय व सुरक्षा प्रदान कर माता-पिता के समान पालन करे। अगले सूक्त का भी ऋषि वसिष्ठ व देवता इन्द्रावरुणौ है ।

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    मन्त्रार्थ

    (उत्) और पूषा तू (गोषणिम्) गौओं की सम्मक्तिप्राप्ति को उन से प्राप्त होने वाले दूध भार वहन को (अभ्वसाम्) घोडों की सम्भक्ति-प्राप्ति को उनसे आरोहण या चालन को (वाजसाम्) अन्नसम्भक्ति-प्राप्ति को सम्बन्धी जनों की सम्मक्ति-प्राप्ति को हमारी तृप्ति के लिये कर ॥१०॥

    टिप्पणी

    नॄन् वनति नृवत् 'क्विप्' ततः ‘सुपां सुलुक्’

    विशेष

    ऋषिः– वसिष्ठः (राजपरिवार, राजसभा और प्रजाजनों में अपने विद्यागुणों से अत्यन्त वसने वाला सर्वमान्य विद्वान्) देवता- इन्द्रवरुणौ देवते (मेघताडक इन्द्र- विद्यत् "यदशनिरिन्द्रः") (कौ० ६।९) उसका प्रयोक्ता उस जैसी शक्तिवाला संहारक सेनानायक और वरुण आकाश में फैलकर रहने वाले सूक्ष्म जल“अपः–यच्च वृत्वाऽतिष्ठस्तद्वरुणोऽभवत्तं वा एतं वरणं सन्तम् वरुण इत्याचक्षते परोक्षेण" (गो० पू० १।७) उसका प्रयोक्ता शत्रुप्रहारवारक स्वसेना का रक्षणकर्मनिधायक नीतिज्ञ सेनाध्यक्ष।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    May Indra, Varuna, Mitra and Aryama bless us with power, justice, love and friendship, and passion for progress, honour and excellence with settlement in a happy home wherein, ever advancing, we may live a life of truth, observing the eternal law of Dharma operative in nature and humanity. We pray for the blissful light of mother Infinity and celebrate in song the glory of Savita, lord giver of the light of life and inspiration for the True, the Good and the Beautiful in existence.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे न्यायाधीश परमेश्वरा! तू इंद्र इत्यादी विद्वानांकडून आम्हाला नित्य सुख दे व अशी कृपा कर, की आम्ही तुझ्या सत्य इत्यादी गुणांचे गान करून सदैव तुझ्या स्तुतीत तत्पर असावे. ॥१०॥

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