ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 1/ मन्त्र 1
ऋषि: - प्रगाथो घौरः काण्वो वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - उपरिष्टाद् बृहती
स्वरः - मध्यमः
मा चि॑द॒न्यद्वि शं॑सत॒ सखा॑यो॒ मा रि॑षण्यत । इन्द्र॒मित्स्तो॑ता॒ वृष॑णं॒ सचा॑ सु॒ते मुहु॑रु॒क्था च॑ शंसत ॥
स्वर सहित पद पाठमा । चि॒त् । अ॒न्यत् । वि । शं॒स॒त॒ । सखा॑यः । मा । रि॒ष॒ण्य॒त॒ । इन्द्र॑म् । इत् । स्तो॒त॒ । वृष॑णम् । सच॑ । सु॒ते । मुहुः॑ । उ॒क्था । च॒ । शं॒स॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मा चिदन्यद्वि शंसत सखायो मा रिषण्यत । इन्द्रमित्स्तोता वृषणं सचा सुते मुहुरुक्था च शंसत ॥
स्वर रहित पद पाठमा । चित् । अन्यत् । वि । शंसत । सखायः । मा । रिषण्यत । इन्द्रम् । इत् । स्तोत । वृषणम् । सच । सुते । मुहुः । उक्था । च । शंसत ॥ ८.१.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
Acknowledgment
विषय - अब परमात्मा से भिन्न की उपासना का निषेध कथन-करते हैं।
पदार्थ -
(सखायः) हे सबका हित चाहनेवाले उपासक लोगो ! (अन्यत्, मा, चित्, विशंसत) परमात्मा से अन्य की उपासना न करो (मा, रिषण्यत) आत्महिंसक मत बनो (वृषणं) सब कामनाओं को पूर्ण करनेवाले (इन्द्रं, इत्) परमैश्वर्य्यसम्पन्न परमात्मा की ही (स्तोत) स्तुति करो (सचा) सब एकत्रित होकर (सुते) साक्षात्कार करने पर (मुहुः) बार-बार (उक्था, च, शंसत) परमात्मगुणकीर्तन करनेवाले स्तोत्रों का गान करो ॥१॥
भावार्थ - इस मन्त्र में यह उपदेश किया है कि हे उपासक लोगो ! तुम परमैश्वर्य्यसम्पन्न, सर्वरक्षक, सब कामनाओं को पूर्ण करनेवाले और सबके कल्याणकारक एकमात्र परमात्मा की ही उपासना करो, किसी जड़ पदार्थ तथा किसी पुरुषविशेष की उपासना परमात्मा के स्थान में मत करो, सदा उसके साक्षात्कार करने का प्रयत्न करो और जिन आर्ष ग्रन्थों में परमात्मा का गुणवर्णन किया गया है अथवा जिन ग्रन्थों में उसके साक्षात्कार करने का विधान है, उन ग्रन्थों का नित्य स्वाध्याय करते हुए मनन करो।उक्त मन्त्र में स्पष्टतया वर्णन किया है कि जो परमात्मा से भिन्न जड़ोपासक हैं, वे आत्महिंसक=अपनी आत्मा का हनन करनेवाले हैं और आत्मा का हनन करनेवाले सदा असद्गति को प्राप्त होते हैं, जैसा कि यजु० ४०।३ में भी वर्णन किया है किः− असुर्य्या नाम ते लोका अन्धेन तमसाऽऽवृताः। तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः॥अर्थ−आत्महनः=आत्मा का हनन करनेवाले जनाः=जन मरने के पश्चात् असुरों के लोकों को प्राप्त होते हैं, जो अन्धतम से ढके हुए अर्थात् अन्धकारमय हैं। इस मन्त्र में “लोक” शब्द के अर्थ अवस्थाविशेष के हैं, लोकान्तर प्राप्ति के नहीं और इसी भाव को “अन्धन्तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते” यजु० ४०।९ में इस प्रकार वर्णन किया है कि जो अविद्या=विपरीत ज्ञान की उपासना करते हैं, वे अन्धतम को प्राप्त होते हैं, या यों कहो कि जो परमात्मा के स्थान में जड़ोपासना करते हैं, वे अपने इष्टफल को प्राप्त नहीं होते अर्थात् परमात्मा से अन्य की उपासना करनेवाले आत्महिंसक ऐहिक और पारलौकिक सुख से सदा वञ्चित रहते हैं, इसलिये उचित है कि सुख की कामनावाला पुरुष एकमात्र परमात्मा की ही उपासना करे, क्योंकि परमात्मा सजातीय विजातीय तथा स्वगतभेदशून्य है, इसलिये उसका सजातीय कोई पदार्थ नहीं, इसी कारण यहाँ अन्य उपासनाओं का निषेध करके परमात्मा की ही उपासना वर्णित की है ॥१॥
Bhashya Acknowledgment
विषय - N/A
पदार्थ -
(सखायः) हे सखायो ! हे सुहृद्गण ! ईश्वर के स्तोत्र छोड़कर (अन्यत्) अन्यान्य देवों का स्तोत्र (चित्) कदापि भी (मा*) न (विशंसत) करें । अन्य स्तुति करने से (मा+रिषण्यत) आप हिंसित न होवें । क्योंकि यदि अज्ञान अथवा लोभ से जड़ वस्तुओं की अथवा उन्मत्त प्रमत्त राजा आदिकों की स्तुति करेंगे, तो आप लोगों की महती हानि होगी । इस कारण केवल परमात्मा की ही स्तुति करें अथवा (मा+रिषण्यत) हिंसक न बनें, अन्यदेवतोपासक प्रायः हिंसक होते हैं । सर्वप्रद परमात्मा ही है, यह आगे दिखलाते हैं । आप (वृषणम्) निखिल कामनाओं के वर्षा करनेवाले (इन्द्रम्+इत्†) परमात्मा की ही (स्तोत) स्तुति करें । (च) और (सुते) ज्ञानात्मक अथवा द्रव्यात्मक यज्ञ में (सचा) सब कोई मिलकर (मुहुः) वारंवार परमात्मा के उद्देश से (उक्था) वक्तव्य स्तोत्र का (शंसत) उच्चारण करें ॥१ ॥
भावार्थ - महान् आत्मा ईश्वर को छोड़ के जो मूढ़ जड़ सूर्य्यादिकों की, मानवकल्पित विष्णुप्रभृतियों की और अवस्तु=प्रेत मृत पितृगण यक्ष गन्धर्व आदिकों की उपासना करते हैं, वे आत्महन् हो महान् अन्धकार में गिरते हैं, अतः सब छोड़ केवल ब्रह्म उपासनीय है, यह शिक्षा इससे देते हैं ।
टिप्पणी -
* निषेधार्थक न शब्द प्रसिद्ध है, इसके अतिरिक्त मा, माकि, माकीम्, मो, नकि आदि शब्द भी निषेध में आते हैं । † इन्द्र शब्द की व्युत्पत्ति अनेक प्रकार से यास्काचार्य करते हैं यथा−इन्द्र हरां दृणातीति वेरां ददातीति वेरां दधातीति वेरां दारयत इति वेरां धारयत इति वेन्दवे द्रवतीति वेन्दौ रमत इति वेन्धे भूतानीति वा । तद्यदेनं प्राणैः समैन्धंस्तदिन्द्रस्येन्द्रत्वमिति विज्ञायते । इदं करणादित्याग्रयणः । इदं दर्शनादित्यौपमन्यवः । इन्दतेर्वैश्वर्य्यकर्मण इन्दञ्छत्रूणां दारयिता वा द्रावयिता वादरयिता च यज्वनाम् । निरुक्त दै० ४ । १ । ८ ॥अर्थ−१−(इराम्+दृणाति+इति+वा) इरा=अन्न । दॄ विदारणे । अन्न के उद्देश से जल की सिद्धि के लिये जो मेघ को विदीर्ण करता है, वह इन्द्र । २−(इराम्+ददाति+इति+वा) डुदाञ् दाने । वृष्टिनिष्पादन से जो अन्न देता है, वह इन्द्र । ३−(इराम्+दधाति+इति+वा) डुधाञ् धारणपोषणयोः । इरा=अन्न अर्थात् तृप्तिकारक सस्य को जो धारण करता अर्थात् जलप्रदान से जो पोषण करता है, वह इन्द्र । ४−(इराम्+दारयति+इति+वा) पृथिवी के ऊपर जो विविध प्रकार के अन्नों को स्थापित करता है, वह इन्द्र । ५−(इन्दवे+द्रवति+इति+वा) इन्दु=सोम=सकलपदार्थ । सकल वस्तुओं की रक्षा के लिये जो दौड़ता है, वह इन्द्र । ६−(इन्दौ+रमते+इति+वा) इन्दु=चन्द्रमा । जो चन्द्रमा में क्रीड़ा करता अर्थात् जो चन्द्रमा को अपना प्रकाश देता है, वह इन्द्र । ७−(इन्धे+भूतानि) ञिइन्धी दीप्तौ । जो सब भूतों के मध्य प्रविष्ट होकर चैतन्य प्रदान से प्रकाशित कर रहा है, वह इन्द्र । इस अभिप्राय को लेकर वाजसनेयी कहते हैं कि−इन्धो ह वै नामैष योऽयं दक्षिणेऽक्षन् पुरुषस्तं वा एतमिन्धं सन्तमिन्द्र इत्याचक्षते परोक्षेण । परोक्षप्रिया इव हि देवाः प्रत्यक्षद्विषः (श० ब्रा० १४ । ६ । १० । २)इसका आशय यह है कि वास्तव में इन्धनाम होना चाहिये । इन्ध को ही परोक्षदृष्टि से इन्द्र कहते हैं । ८−आग्रयणनामा मुनि कहते हैं कि (इदं करणाद्+इन्द्रः) जो इस जगत् को करता है, वह इन्द्र=परमात्मा । ९−औपमन्यवनामा मुनि कहते हैं (इदं दर्शनाद्+इन्द्रः) विवेक से जो देखा जाय, वह इन्द्र । १०−(इदि परमैश्वर्य्ये) परमैश्वर्य्ययुक्त जो हो, वह इन्द्र । ११−(इञ्छत्रून् दारयति) दॄ भये । जो इन्=परमेश्वर शत्रुओं को भय दिखलाता है, वह इन्द्र । १२−(द्रावयिता+वा) दॄ गतौ, शत्रुओं को जो भगाता है, वह इन्द्र । १३−(आदरयिता+वा+यज्वनाम्) यज्वा अर्थात् जो यागादि शुभकर्म करनेवाले हैं, उनको जो आदर करता है, वह इन्द्र । इत्यादि इन्द्र शब्द के निर्वचन से सूर्यवाची, राजवाची, जीववाची और ब्रह्मवाची इन्द्रशब्द होता है । इसके अतिरिक्त ब्राह्मणग्रन्थों में विविध प्रकार के अर्थ इन्द्र शब्द के किये गये हैं । वेद के प्रत्येक शब्द को अच्छे प्रकार जानना, यह भी एक महाधर्म है । शब्दों के धात्वर्थ जानने से उपासकों के मन में परमात्मा के गुणों की स्थापना होती है और वैदिक शब्दों का गौरव प्रतीत होता है । इति ॥१ ॥
Bhashya Acknowledgment
विषयः - अथ अनात्मोपासना निषिध्यते।
पदार्थः -
(सखायः) हे सर्वेषां मित्रभूता उपासकाः (अन्यत्, मा, चित्, वि, शंसत) परमात्मनोऽन्यं न स्तुत (मा, रिषण्यत) आत्मानं मा हिंसिष्ट (वृषणं) सर्वकामप्रदं (इन्द्रं, इत्) सर्वैश्वर्य्यं परमात्मानमेव (स्तोत) स्तुत (सचा) सङ्घीभूय (सुते) साक्षात्कृते सति (मुहुः) अनेकशः (उक्था, च, शंसत) तत्सम्बन्धि स्तोत्राणि कथयत च ॥१॥
Bhashya Acknowledgment
विषयः - N/A
पदार्थः -
हे सखायः=सुहृदः “समानख्यानास्तुल्यख्यातयः समप्रसिद्धयः । विद्यया धनेन रूपेण वयसा च ये तुल्यास्ते सखायो निगद्यन्ते । ” इन्द्रस्य स्तोत्रं विहाय अन्यत् स्तोत्रम् । मा चित्=न कदापि । शंसत=नैव विरचयत । तादृशस्तुतिकरणेन मा रिषण्यत=मा हिंसिता भूत । अज्ञानेन लोभेन वा अन्येषां जडवस्तूनाम् उन्मत्तप्रमत्तनृपतिप्रभृतीनां च स्तोत्रविरचनेन स्वकीयमात्मानं न पातयत । यद्वा । मा रिषण्यत=हिंसितारो मा भूत । अन्योपासका हिंसका भवन्ति । सर्वप्रदः परमात्मैवास्तीत्यग्रे विशदयति हे सखायः ! वृषणं=निखिलकामानां वर्षितारं=प्रदातारम् । इन्द्रमित्=परमात्मानमेव । स्तोत=स्तवनेन प्रसादयत । सुते=ज्ञानात्मके द्रव्यात्मके वा यज्ञे । सचा=संगत्य । मुहुः=पुनः पुनः । इन्द्रस्य उक्था च=उक्थानि च=वक्त्तव्यानि च स्तोत्राणि । शंसत=विरचय्य उच्चारयत ॥१ ॥
Bhashya Acknowledgment
Meaning -
O friends, do not worship any other but One, be firm, never remiss, worship only Indra, sole lord absolute, omnipotent and infinitely generous, and when you have realised the bliss of the lord’s presence, sing songs of divine adoration spontaneously, profusely, again and again.
Bhashya Acknowledgment
भावार्थ - या मंत्रात हा उपदेश केलेला आहे की, हे उपासकांनो, तुम्ही परमैश्वर्यसंपन्न, सर्वरक्षक, सर्व कामनांना पूर्ण करणाऱ्या, सर्वांचे कल्याण करणाऱ्या एकमेव परमेश्वराची उपासना करा. परमेश्वराऐवजी एखाद्या जड पदार्थाची किंवा एखाद्या पुरुष विशेषाची उपासना करू नका. सदैव त्याचा सत्कार करण्याचा प्रयत्न करा व ज्या आर्ष ग्रंथात परमेश्वराच्या गुणांचे वर्णन केलेले आहे किंवा ज्या ग्रंथात त्याचा साक्षात्कार करण्याचे विधान केलेले आहे त्या ग्रंथाचा सदैव स्वाध्याय करत मनन करा ॥१॥
Bhashya Acknowledgment
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Dhiman
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal
Bhashya Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Smt. Shrutika Shevankar
Conversion to Unicode/OCR By:
N/A
Donation for Typing/OCR By:
Various
First Proofing By:
Smt. Premlata Agarwal
Second Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Third Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal
Bhashya Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Smt. Shrutika Shevankar
Conversion to Unicode/OCR By:
N/A
Donation for Typing/OCR By:
Sir Ramkumar Gupta
First Proofing By:
Smt. Premlata Agarwal
Second Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Third Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal
Bhashya Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Smt. Shrutika Shevankar
Conversion to Unicode/OCR By:
N/A
Donation for Typing/OCR By:
Various
First Proofing By:
Smt. Premlata Agarwal
Second Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Third Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal
Bhashya Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Smt. Shrutika Shevankar
Conversion to Unicode/OCR By:
N/A
Donation for Typing/OCR By:
Sir Ramkumar Gupta
First Proofing By:
Smt. Premlata Agarwal
Second Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Third Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal
Bhashya Acknowledgment
Book Scanning By:
N/A
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Sri Durga Prasad Agarwal, Smt. Nageshwari, & Sri Arnob Ghosh
Donation for Typing/OCR By:
Committed by Sri Navinn Seksaria
First Proofing By:
Pending
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Pending
Databasing By:
Sri Virendra Agarwal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal
Bhashya Acknowledgment
Book Scanning By:
N/A
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Dhiman
Donation for Typing/OCR By:
Dhananjay Joshi
First Proofing By:
Pending
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Virendra Agarwal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal