ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 24/ मन्त्र 12
न॒ह्य१॒॑ङ्ग नृ॑तो॒ त्वद॒न्यं वि॒न्दामि॒ राध॑से । रा॒ये द्यु॒म्नाय॒ शव॑से च गिर्वणः ॥
स्वर सहित पद पाठन॒हि । अ॒ङ्ग । नृ॒तो॒ इति॑ । त्वत् । अ॒न्यम् । वि॒न्दामि॑ । राध॑से । रा॒ये । द्यु॒म्नाय॑ । शव॑से । च॒ । गि॒र्व॒णः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नह्य१ङ्ग नृतो त्वदन्यं विन्दामि राधसे । राये द्युम्नाय शवसे च गिर्वणः ॥
स्वर रहित पद पाठनहि । अङ्ग । नृतो इति । त्वत् । अन्यम् । विन्दामि । राधसे । राये । द्युम्नाय । शवसे । च । गिर्वणः ॥ ८.२४.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 24; मन्त्र » 12
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O lord watcher and controller of the dance of creation, dear as breath of life sung and celebrated in songs of adoration, I find none else other than you for inspiration and action for the sake of competence and success, wealth and power, honour and excellence, and strength and moral courage.
मराठी (1)
भावार्थ
सामर्थ्य, धन व यशही त्याच्याकडून (परमेश्वराकडून) प्राप्त होऊ शकते. त्यासाठी तो प्रार्थनीय आहे. ॥१२॥
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमर्थमाह ।
पदार्थः
हे नृतो=जगन्नर्तक ! हे गिर्वणः=गिरां स्तुतिरूपाणां वचनानां प्रिय । इन्द्र ! राधसे=सम्पत्त्यै । राये=अभ्युदयाय । द्युम्नाय=द्योतमानाय यशसे । शवसे+च=सामर्थ्याय च । त्वदन्यम्=त्वद्भिन्नं देवम् । नहि । विन्दामि=लभे= आश्रयामीत्यर्थः । अङ्गेति प्रसिद्धौ ॥१२ ॥
हिन्दी (4)
विषय
पुनः उसी को कहते हैं ।
पदार्थ
(नृतो) हे जगन्नर्तक ! (गिर्वणः) हे स्तुतियों के प्रिय स्वामी इन्द्र ! (राधसे) सम्पत्ति के लिये (राये) अभ्युदय के लिये (द्युम्नाय) द्योतमान यश के लिये (शवसे+च) और परम सामर्थ्य के लिये (त्वत्+अन्यम्+नहि) तुमसे भिन्न किसी अन्य देव को नहीं (विन्दामि+अङ्ग) पाता हूँ, यह प्रसिद्ध है ॥१२ ॥
भावार्थ
सामर्थ्य, धन और यश भी उसी से प्राप्त हो सकता है, अतः वही प्रार्थनीय है ॥१२ ॥
विषय
उसकी नाना प्रकार से उपासनाएं वा भक्तिप्रदर्शन और स्तुति ।
भावार्थ
हे ( नृतो ) सब के नायक ! ( अंग ) हे ( गिर्वणः ) वाणी द्वारा, प्रार्थनीय ! मैं ( राधसे ) आराधना करने और ( राये ) ऐश्वर्य प्राप्त करने के लिये और ( द्युम्नाय ) तेज, यश और ( शवसे ) बल प्राप्त करने के लिये ( त्वत् अन्यं ) तुझ से दूसरे को ( न विन्दामि ) नहीं पाता हूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ १—२७ इन्द्रः। २८—३० वरोः सौषाम्णस्य दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः–१, ६, ११, १३, २०, २३, २४ निचृदुष्णिक्। २—५, ७, ८, १०, १६, २५—२७ उष्णिक्। ९, १२, १८, २२, २८ २९ विराडुष्णिक्। १४, १५, १७, २१ पादनिचृदुष्णिक्। १९ आर्ची स्वराडुष्णिक्। ३० निचुदनुष्टुप्॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
Bhajan
वैदिक मन्त्र
नह्यं१॑ग नृतो त्वदन्यं विन्दामि राधसे।
राये द्युम्नाय शवसे च गिर्वण:।। ऋ•८.२४.१२
वैदिक भजन११२६वां
राग मालकौंस
राग मालकौंस
गायन समय रात्रि का तीसरा प्रहर
ताल गरबा ६ मात्रा
चराचर सृष्टियों का तू आधार
कठपुतलियों सा नाचे संसार
शरण पड़ा हूं हे दाता दयार
तेरे ही कारण है जीवन जागार
चराचर.......
मैंने अनुभव किया है ब्रह्मांड
गति देता है, है गतिमान
गतिकारक तू सर्वशक्तिमान
अणु-परमाणु तेरे हैं दान
बड़े - छोटे कर्मों के तुम ही हो प्रेरक
तेरे बिना पत्ता-तृण भी लाचार
चराचर.....
देखता, जानता, मानता हूं
तेरी पग-पग कृपा मानता हूं
सफलता, सिद्धियां, गुण तेरे बिन
कोई दे ना सके मानता हूं
जो हमारा अभीष्ट,नहीं होता है क्लिष्ट
पुण्य का जब तू बनता आधार।।
चराचर.........
तेरा धन, तेरा बल, वाज चाहूं
तेरे बिन प्रभु किससे मैं पाऊं?
खूब जाने ख़ज़ाना लुटाना
वेदज्ञान से हमने यह जाना
प्रेरणा से तेरी, शक्ति जागे मेरी
साधना से तू देता निस्तार।।
चराचर.........
क्या है मेरा जो करूं अभिमान
यह इदं न मम है प्रमाण
तेरी निष्कामता जानूं दाता
पूरी करता हमारी प्रत्याशा
इन्द्र तेरी शरण करती पालन पोषण
काहे भटकूं, जब तू है आधार।।
चराचर........
२६.७.२०२३
७.४८ रात्रि
शब्दार्थ:-
चर अचर=
दयार=दयालु
जागार=जागते रहने वाला
तृण=घास,तिनका
अभीष्ट=चाहा हुआ
क्लिष्ट=कष्ट में पड़ा हुआ,
वाज=धनबल और ऐश्वर्य
निस्तार=पार हो जाना, मोक्ष
इदं न मम=यह मेरा नहीं
प्रत्याशा=आशा, उम्मीद, भरोसा
वैदिक मन्त्रों के भजनों की द्वितीय श्रृंखला का ११९ वां वैदिक भजन ।
और प्रारम्भ से क्रमबद्ध अबतक का ११२६ वां वैदिक भजन
वैदिक संगीत प्रेमी श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएं !
🕉️🙏🌷🌺🥀🌹💐
Vyakhya
तेरी ही शरण
हे नचाने वाले! हे इन सब चराचर सृष्टिओं को कठपुतलियों की तरह हिलाने वाले, मैं तुम्हारी शरण पड़ा हूं ।जब से मैंने अनुभव किया है कि इस गति में समस्त ब्रह्माण्ड को गति देने वाले तुम हो, इस संसार में होने वाले छोटे से छोटे और बड़े से बड़े कर्मों को प्रेरित करने वाले तुम हो, तुम्हारी इच्छा के बिना इस संसार में घास का एक तिनका भी नहीं हिल सकता और तुम्हारी इच्छा होने पर एक पल में इस पृथ्वी पर प्रलय आ सकता है । तब से मैं तुम्हारी शरण में आ पड़ा हूं। मैं देखता हूं कि तुम्हारी कृपा के बिना मैं कुछ नहीं पा सकता। इस संसार में तुम्हारे सिवा और कोई नहीं है जो मुझे कोई सिद्धि व सफलता दिला सके। मुझे कोई नहीं दिखाई देता जो मेरे छोटे से छोटे अभीष्ट को सिद्ध कर सके। मेरी जीवन साधना के तो एकमात्र तुम ही आधार हो ।पर हे वाणिओं से संभजनीय! मैं तो देखता हूं कि यदि मैं धन पाना चाहूं, तेज पाना चाहूं, बल पाना चाहूं या कुछ और पाना चाहूं, इन सब वस्तुओं को भी दे सकने वाला तुम्हारे सिवाय इस संसार में मेरे लिए और कोई नहीं है। तो मैं और किस का आश्रय लूं? मैं तो है इन्द्र तुम्हारी शरण पड़ा हूं, सब जगह भटक-भटककर अब तुम्हारी शरण पड़ा हूं।
विषय
धन-ज्ञान व बल
पदार्थ
[१] हे (नृतो) = सम्पूर्ण संसार को नृत्य करानेवाले, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के संचालक प्रभो ! (त्वद् अन्यम्) = आप से भिन्न किसी अन्य को (राधसे) = ऐश्वर्य प्राप्ति के लिये (न हि) = नहीं ही (विन्दामि) = प्राप्त करता हूँ। आप ही को सब ऐश्वर्यों के देनेवाला जानता हूँ। [२] हे अंग-गतिशील प्रभो ! हे (गिर्वणः) = ज्ञान की वाणियों से उपासनीय प्रभो ! मैं (राये) = धन के लिये, (द्युम्नाय) = ज्ञान - ज्योति के लिये (च) = और (शवसे) = बल के लिये आप को ही प्राप्त करता हूँ । आप ही तो मेरे लिये सब धनों, ज्ञानों व बलों के प्राप्त करानेवाले हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु ही हमारे लिये 'धन, ज्ञान व बल' प्राप्त कराते हैं।
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