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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 24 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 24/ मन्त्र 16
    ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    एदु॒ मध्वो॑ म॒दिन्त॑रं सि॒ञ्च वा॑ध्वर्यो॒ अन्ध॑सः । ए॒वा हि वी॒रः स्तव॑ते स॒दावृ॑धः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । इत् । ऊँ॒ इति॑ । मध्वः॑ । म॒दिन्ऽत॑रम् । सि॒ञ्च । वा॒ । अ॒ध्व॒र्यो॒ इति॑ । अन्ध॑सः । ए॒व । हि । वी॒रः । स्तव॑ते । स॒दाऽवृ॑धः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एदु मध्वो मदिन्तरं सिञ्च वाध्वर्यो अन्धसः । एवा हि वीरः स्तवते सदावृधः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । इत् । ऊँ इति । मध्वः । मदिन्ऽतरम् । सिञ्च । वा । अध्वर्यो इति । अन्धसः । एव । हि । वीरः । स्तवते । सदाऽवृधः ॥ ८.२४.१६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 24; मन्त्र » 16
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And O high priest of the creative yajna of love and non-violence, offer the most delightful and ever exhilarating of honey sweets of the soma of faith and devotion to Indra, since thus is how the mighty hero is served and worshipped.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    तुम्ही जे शुभ काम कराल ते ईश्वराच्या भक्तीसाठीच असावे. ॥१६॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    स एव पूज्यतम इति दर्शयति ।

    पदार्थः

    हे अध्वर्यो ! मध्वः=मधुरस्य । सदावृधः=सदावर्धकस्य । अन्धसः=अन्नस्य । मदिन्तरम्=आनन्दयितृतरम् । भागमासिञ्च । इत्=ईश्वरप्रीत्यर्थम् । पात्रेषु निक्षिपैव । हि=यतः । अयमेवेन्द्रः । वीरः=विघ्नानां दूरप्रेरयिता दाता च पुनः । स्तवते=स्तूयते च ॥१६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    वही पूज्यतम है, यह दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (अध्वर्यो) हे याज्ञिक पुरुष ! (मध्वः) मधुर (सदावृधः) सदा बलवीर्य्यवर्धक (अन्धसः) अन्नों में से (मदिन्तरम्) आनन्दप्रद कुछ हिस्से लेकर (आ+सिञ्च+इत्) ईश्वर की प्रीति के लिये पात्रों में दो (हि) क्योंकि यही इन्द्र (एव) निश्चय (वीरः) सब विघ्नों को दूर करनेवाला (स्तवते) स्तुतियोग्य है ॥१६ ॥

    भावार्थ

    जो तुम शुभ काम करो, वह ईश्वर की प्रीति के लिये ही हो ॥१६ ॥

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    विषय

    उसकी नाना प्रकार से उपासनाएं वा भक्तिप्रदर्शन और स्तुति ।

    भावार्थ

    ( वीरः एव हि ) वीर, विद्वान् ( सदा-वृधः ) सदा सबको बढ़ाने वाला ही ( स्तूयते ) स्तुति करने योग्य है। हे ( अध्वर्यो ) अविनाशिन् ! तू ( अन्धसः ) अन्न के समान प्राणपोषक ( मध्वः ) जलवत् शान्तिदायक आनन्द रस से ( मदिन्तरं ) अतिशय आनन्ददायक आत्मा को ( आ सिञ्च इत् ) आ, सेचन कर, उसकी वृद्धि कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ १—२७ इन्द्रः। २८—३० वरोः सौषाम्णस्य दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः–१, ६, ११, १३, २०, २३, २४ निचृदुष्णिक्। २—५, ७, ८, १०, १६, २५—२७ उष्णिक्। ९, १२, १८, २२, २८ २९ विराडुष्णिक्। १४, १५, १७, २१ पादनिचृदुष्णिक्। १९ आर्ची स्वराडुष्णिक्। ३० निचुदनुष्टुप्॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    कर्मठ ही सच्चा उपासक है

    पदार्थ

    [१] हे (अध्वर्यो) = यज्ञशील पुरुष ! तू (इत् वा उ) = निश्चय से (मध्वः अन्धसः) = माधुर्य का संचार करनेवाले सोम [वीर्य] से भी (मदिन्तरम्) = अधिक आनन्दित करनेवाले उस प्रभु को (आसिञ्च) = अपने में सिक्त कर । प्रभु की उपासना का भाव तेरी नस-नस में व्याप्त हो जाये। [२] वह (वीरः) = शत्रुओं को विशेषरूप से कम्पित करके दूर करनेवाला, (सदावृधः) = सदा वृद्धि को प्राप्त हुआ हुआ प्रभु (एवा हि) = गतिशीलता के द्वारा ही (स्तवते) = स्तुति किया जाता है। अर्थात् क्रियाशील पुरुष ही प्रभु का सच्चा उपासक है।

    भावार्थ

    भावार्थ- शरीर में सुरक्षित सोम उल्लास का कारण होता है। प्रभु का हृदय में धारण उससे भी अधिक आनन्दित करनेवाला होता है। उस 'वीर सदावृध्' प्रभु का सच्चा उपासक वही है जो क्रियाशील है।

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