ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 24/ मन्त्र 24
वेत्था॒ हि निॠ॑तीनां॒ वज्र॑हस्त परि॒वृज॑म् । अह॑रहः शु॒न्ध्युः प॑रि॒पदा॑मिव ॥
स्वर सहित पद पाठवेत्थ॑ । हि । निःऽऋ॑तीनाम् । वज्र॑ऽहस्त । प॒रि॒ऽवृज॑म् । अहः॑ऽअहः । शु॒न्ध्युः । प॑रि॒पदा॑म्ऽइव ॥
स्वर रहित मन्त्र
वेत्था हि निॠतीनां वज्रहस्त परिवृजम् । अहरहः शुन्ध्युः परिपदामिव ॥
स्वर रहित पद पाठवेत्थ । हि । निःऽऋतीनाम् । वज्रऽहस्त । परिऽवृजम् । अहःऽअहः । शुन्ध्युः । परिपदाम्ऽइव ॥ ८.२४.२४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 24; मन्त्र » 24
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O lord of the thunderbolt of justice and right action, you know and wield the counter-active measures against adversities just as the sun, purifier of nature’s impurities, has the capacity to counter them day by day.
मराठी (1)
भावार्थ
ईश्वर सर्वज्ञ आहे. त्यामुळे जीव त्याच्यापासून काही गुप्त ठेवू शकत नाहीत हे जाणून पापापासून निवृत्त व्हा. ॥२४॥
संस्कृत (1)
विषयः
स एव पूज्य इति दर्शयति ।
पदार्थः
हे वज्रहस्त=हे दण्डधर ! इन्द्र ! त्वं हि । निर्ऋतीनाम्=उपद्रवाणाम् । परिवृजम्=परिवर्जनम् । वेत्थ= जानासि । कथं तेषां विनाशो भवितुमर्हतीति जानासि । अत्र दृष्टान्तः । शुन्ध्युः=शोधको विद्वान् । अहरहः=दिवसं दिवसम् । परिपदामिव=मासानामिव । यथा मासानां दिनं विद्वान् जानाति तद्वत् ॥२३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
वही पूज्य है, यह दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(वज्रहस्त) दे दण्डधर इन्द्र ! तू (निर्ऋतीनाम्) उपद्रवों की (परिवृजम्) निवृत्ति को (वेत्थ) जानता है, उनकी किस प्रकार निवृत्ति हो सकती है, उसे तू जानता है । (इव) जैसे (शुन्ध्युः) शोधक विद्वान् (परिपदाम्) माघादि मासों के (अहः+अहः) प्रत्येक दिन को जानता है ॥२४ ॥
भावार्थ
वह सर्वज्ञ है, अतः हम जीव उससे कुछ गुप्त नहीं रख सकते, इस हेतु इसको जान पाप से निवृत्त रहें ॥२४ ॥
विषय
सर्वज्ञ प्रभु की स्तुतियां ।
भावार्थ
( शुन्ध्युः ) सर्वशोधक सूर्य जिस प्रकार ( परिपदाम् निर्ऋ – तीनां ) चारों ओर चलने वाली भूमियों के ( परिवृजं वेत्ति ) परिक्रमा-मार्ग को जानता है उसी प्रकार हे ( वज्र-हस्त ) बाहुवीर्य, राजन्, शक्तिशालिन् प्रभो ! तू ( अहरहः ) दिन प्रतिदिन ( परिपदाम् ) निरन्तर चलने वाले ( निर्ऋतीनां ) लोकों के ( परिवृत्रं ) जाने योग्य मार्ग को ( वेत्थ ) जानता है और ( शुन्ध्युः ) सब दुःखों और पापों का सूर्य वा अग्निवत् शोधन करने वाला है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ १—२७ इन्द्रः। २८—३० वरोः सौषाम्णस्य दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः–१, ६, ११, १३, २०, २३, २४ निचृदुष्णिक्। २—५, ७, ८, १०, १६, २५—२७ उष्णिक्। ९, १२, १८, २२, २८ २९ विराडुष्णिक्। १४, १५, १७, २१ पादनिचृदुष्णिक्। १९ आर्ची स्वराडुष्णिक्। ३० निचुदनुष्टुप्॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
प्रभु स्मरण व दुर्वृत्तिभङ्ग
पदार्थ
[१] हे (वज्रहस्त) = वज्र को हाथ में लिये हुए प्रभो ! आप (हि) = निश्चय से (निरृतीनाम्) = उपद्रवचारी राक्षसी भावों के (परिवृजम्) = परिवर्जन को, हमारे से पृथक् करने को (वेत्था) = जानते हैं। आपका स्मरण व स्तवन होते ही हमारे हृदयों को राक्षसी भाव छोड़कर चले जाते हैं। [२] इसी प्रकार आप इन राक्षसी भावों के परिवर्जन को जानते हैं, इव-जिस प्रकार (शुन्ध्युः) = यह सब अन्धकार का शोधन कर देनेवाला सूर्य (अहरहः) = प्रतिदिन (परिपदाम्) = आहार के लिये चारों ओर गतिवाले पशु-पक्षियों के स्वस्थान परिवर्जन को जानता है। सूर्योदय होते ही सब पक्षी घोंसलों को छोड़कर इधर-उधर निकल जाते हैं। इसी प्रकार प्रभु स्मरण होते ही राक्षसी भाव हृदयों को छोड़ जाते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु स्मरण राक्षसी भावों को दूर भगा देता है। इनको दूर रखने के लिये दिन- रात प्रभु स्मरण आवश्यक है। सूर्यास्त होने पर पक्षी जैसे घोंसलों में लौट आते हैं, इसी प्रकार प्रभु का विस्मरण होते ही राक्षसी भावों के लौट आने की आशंका होती है।
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