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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 44/ मन्त्र 21
    ऋषिः - विरूप आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒ग्निः शुचि॑व्रततम॒: शुचि॒र्विप्र॒: शुचि॑: क॒विः । शुची॑ रोचत॒ आहु॑तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निः । शुचि॑व्रतऽतमः । शुचिः॑ । विप्रः॑ । शुचिः॑ । क॒विः । शुचिः॑ । रो॒च॒ते॒ । आऽहु॑तः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निः शुचिव्रततम: शुचिर्विप्र: शुचि: कविः । शुची रोचत आहुतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निः । शुचिव्रतऽतमः । शुचिः । विप्रः । शुचिः । कविः । शुचिः । रोचते । आऽहुतः ॥ ८.४४.२१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 44; मन्त्र » 21
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 40; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni is the purest uncompromising lord of law and discipline, lord of purest unclouded knowledge and wisdom, master of purest transparent creative vision and imagination, and he shines ever pure, unsullied, invoked and worshipped.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ईश्वर परम पवित्र आहे त्यासाठी त्याची उपासनाही पवित्र बनून करा. ॥२१॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    अग्निः=सर्वगतिरीशः । शुचिव्रततमः=अतिशयेन पवित्रव्रतोऽस्ति । शुचिः=शुद्धो विप्रो विद्वानस्ति । शुचिः कविरस्ति । पुनः । शुचिरस्ति । आहुतः सन् । हृदि रोचते=प्रकाशते ॥२१ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (अग्निः) वह सर्वगति ईश (शुचिव्रततमः) अतिशय पवित्रकर्मा अतिशय पवित्र नियमों को स्थापित करनेवाला है, वह (शुचिः+विप्रः) अतिशय पवित्र विद्वान् है, वह (शुचिः+कविः) अतिशय शुद्ध कवि है, (शुचिः) वह महाशुचि है (आहुतः) पूजित होने पर उपासकों के हृदय को पवित्र करता हुआ (रोचते) प्रकाशित होता है ॥२१ ॥

    भावार्थ

    ईश्वर परम पवित्र है, अतः उसकी उपासना भी पवित्र बनकर करो ॥२१ ॥

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    विषय

    ज्ञानी, स्तुतियोग्य प्रभु।

    भावार्थ

    ( शुचिव्रत-तमः ) अत्यन्त शुद्ध पवित्र कर्मों वाला पुरुष, ( विप्रः शुचिः ) शुद्ध चरित्रवान्, विद्वान् ( शुचिः कविः ) शुद्ध चरित्रवान्, क्रान्तदर्शी, तत्व ज्ञानी पुरुष ( शुचिः ) शुद्ध, तेजस्वी ( आहुतः ) आहुति किये अग्नि के समान ही सत् दान प्राप्त कर ( राचते ) प्रकाशित होते, और सबके मन को अच्छा लगता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ३, ४, ६, १०, २०—२२, २५, २६ गायत्री। २, ५, ७, ८, ११, १४—१७, २४ निचृद् गायत्री। ९, १२, १३, १८, २८, ३० विराड् गायत्री। २७ यवमध्या गायत्री। २१ ककुम्मती गायत्री। १९, २३ पादनिचृद् गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    'शुचिव्रततम' प्रभु

    पदार्थ

    [१] (अग्निः) = वे अग्रणी प्रभु (रोचते) = दीप्त होते हैं। ये प्रभु (शुचिव्रततमः) = अत्यन्त पवित्र व्रतोंवाले हैं। (शुचि:) = पवित्र हैं, (विप्रः) = ज्ञानी हैं। (शुचिः) = पवित्र हैं, व (कविः) = क्रान्तप्रज्ञ हैं । [२] ये (शुचिः) = पवित्र कर्मोंवाले हैं। पवित्र ज्ञानवाले हैं। पवित्र दानोंवाले हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- राष्ट्र का नायक अत्यन्त पवित्र कर्मों को करनेवाला, पवित्र बुद्धिवाला तथा दूरदर्शी हो ।

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