ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 44/ मन्त्र 23
ऋषिः - विरूप आङ्गिरसः
देवता - अग्निः
छन्दः - पादनिचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
यद॑ग्ने॒ स्याम॒हं त्वं त्वं वा॑ घा॒ स्या अ॒हम् । स्युष्टे॑ स॒त्या इ॒हाशिष॑: ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अ॒ग्ने॒ । स्या॒म् । अ॒हम् । त्वम् । त्वम् । वा॒ । घ॒ । स्याः । अ॒हम् । स्युः । ते॒ । स॒त्याः । इ॒ह । आ॒ऽशिषः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदग्ने स्यामहं त्वं त्वं वा घा स्या अहम् । स्युष्टे सत्या इहाशिष: ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । अग्ने । स्याम् । अहम् । त्वम् । त्वम् । वा । घ । स्याः । अहम् । स्युः । ते । सत्याः । इह । आऽशिषः ॥ ८.४४.२३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 44; मन्त्र » 23
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 40; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 40; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, lord of love and life’s bonding, if and when I were you and you were me, then would your love and blessings for me be truly realised.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्राचा आशय असा की, माणूस आपल्या न्यूनतेमुळे ईश्वराकडून विविध कामना इच्छितो; परंतु आपल्या सर्व कामना पूर्ण होत नाहीत हे पाहून इष्टदेवात दोष पाहतो. त्यामुळे व्याकूळ होऊन कधी कधी उपासक इष्ट देवाला प्रार्थना करतो की, हे देवा! माझ्या आवश्यकता तू जाणत नाहीस. जर तू माझ्या दशेत असतास तर तुला माहीत झाले असते की, दु:ख ही काय वस्तू आहे. तुला कदाचित दु:खाचा अनुभव नाही. त्यासाठी तू माझ्या दु:खमय प्रार्थनेकडे लक्ष देत नाहीस इत्यादी. ॥२३॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
अग्ने ! यद्=यदि । अहं त्वं स्याम् । त्वं वा अहं स्याः । तर्हि । इह ते=तव । आशिषः । सत्याः स्युर्भवेयुः ॥२३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(अग्ने) हे सर्वशक्ते सर्वाधार ईश ! (यद्) यदि (अहम्) मैं (त्वम्) तू (स्याम्) होऊँ, यदि वा (त्वम्) तू (अहम्+स्याः) मैं हो, तब (ते) तेरे (आशिषः) समस्त आशीर्वचन (सत्याः+स्युः) सत्य होवें ॥२३ ॥
भावार्थ
इसका आशय यह प्रतीत होता है कि मनुष्य अपनी न्यूनता के कारण ईश्वर से विविध कामनाएँ चाहता है, किन्तु अपनी सब कामनाओं को पूर्ण होते न देख इष्टदेव में दोष लगाता है । अतः आकुल होकर कभी-२ उपासक इष्टदेव से प्रार्थना करता है कि हे देव ! मेरी आवश्यकता आप नहीं समझते । यदि आप मेरी दशा में रहते, तब आपको मालूम होता कि दुःख क्या वस्तु है । आपको कदाचित् दुःख का अनुभव नहीं है, अतः आप मेरी दुःखमयी प्रार्थना पर ध्यान नहीं देते, इत्यादि ॥२३ ॥
विषय
भक्त की अनन्यता उपास्यमयता।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) ज्ञानवन् ! हे प्रभो ! ( यद् ) यदि ( अहं त्वं स्याम् ) मैं तू हो जाऊं ( त्वं वा घ अहम् स्याः ) और तू मैं बन जावे, तब ( इह ) इस लोक में ( ते आशिषः सत्याः स्युः ) तेरी कामनाएं, वा तेरे विषय में मेरी भावनाएं सत्य हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ३, ४, ६, १०, २०—२२, २५, २६ गायत्री। २, ५, ७, ८, ११, १४—१७, २४ निचृद् गायत्री। ९, १२, १३, १८, २८, ३० विराड् गायत्री। २७ यवमध्या गायत्री। २१ ककुम्मती गायत्री। १९, २३ पादनिचृद् गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
तू मैं, मैं तू
पदार्थ
[१] (अग्ने) = हे अग्रणी प्रभो ! (यद्) = यदि (अहं) = मैं (त्वं स्याम्) = तू हो जाऊँ, (वा) = और (त्वं) = तू (घा) = निश्चय से (अहं स्याम्) = मैं हो जाऊँ, तो (ते आशिषः) = आपके सब आशीर्वाद (इह) = यहाँ (सत्याः स्युः) = सत्य हो जाएँ। [२] जीवनयात्रा में सर्वोच्च स्थिति यही है कि हम प्रभु से मिल जाएँ। 'मैं प्रभु व प्रभु मैं' हो जाना ही अद्वैत हैं। यही स्थिति पूर्ण निर्भीकता की स्थिति है।
भावार्थ
भावार्थ- हम अपने को प्रभु से एक करने का प्रयत्न करें। ऐसा होने पर सब मंगल कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं।
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