ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 71/ मन्त्र 8
ऋषिः - सुदीतिपुरुमीळहौ तयोर्वान्यतरः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
अग्ने॒ माकि॑ष्टे दे॒वस्य॑ रा॒तिमदे॑वो युयोत । त्वमी॑शिषे॒ वसू॑नाम् ॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । माकिः॑ । ते॒ । दे॒वस्य॑ । रा॒तिम् । अदे॑वः । यु॒यो॒त॒ । त्वम् । ई॒शि॒षे॒ । वसू॑नाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने माकिष्टे देवस्य रातिमदेवो युयोत । त्वमीशिषे वसूनाम् ॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने । माकिः । ते । देवस्य । रातिम् । अदेवः । युयोत । त्वम् । ईशिषे । वसूनाम् ॥ ८.७१.८
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 71; मन्त्र » 8
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, lord of brilliance and generosity, let no impious man deprive us of your generosity extended to us. You rule, control and protect the wealth, honour and excellence of the world.
मराठी (1)
भावार्थ
ईश्वर प्रतिक्षण वायू, जल, अन्न व आनंद यांचे दान करत आहे. दुष्ट लोक आपल्या आचरणाने त्यांना मलिन करत आहेत. त्यांनी गाय, मेष, अश्व, हत्ती यांनाही नष्ट करू नये, कारण ईश्वर हा सर्वांचाच रक्षक आहे. ॥८॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे अग्ने ! ते=तव । देवस्य दत्तम् । रातिं=दानम् । अदेवः । माकिः+युयोत=पृथक् न कुर्य्यात् । हे ईश ! त्वं सर्वेषाम् । वसूनां=सम्पत्तीनाम् । ईशिषे=स्वामी भवसि ॥८ ॥
हिन्दी (2)
विषय
N/A
पदार्थ
(अग्ने) हे सर्वशक्ते ! (ते+देवस्य+रातिम्) तुम देव के दान को (अदेवः) महामहा दुष्ट पुरुष (माकिः+युयोत) नष्ट-भ्रष्ट न करे, क्योंकि (त्वम्+वसूनाम्+ईशिषे) तू ही सर्वसम्पत्तियों का अधीश्वर और शासक है ॥८ ॥
भावार्थ
इसका आशय है कि ईश्वर प्रतिक्षण वायु, जल, अन्न और आनन्द का दान दे रहा है । दुष्टजन इनको भी अपने आचरणों से गन्दा बनाते रहते हैं अथवा गौ, मेष, अश्व, हाथी आदि इनको चुरा-चुरा कर नष्ट न करने पावें, क्योंकि ईश्वर सबका रक्षक है ॥८ ॥
विषय
उस के आवश्यक गुणों का वर्णन।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) तेजस्विन् ! विद्वन् ! ( ते देवस्य रातिम् ) तुझ दाता के दिये दान को ( अदेवः माकिः युयोत ) अदानशील व्यक्ति हम से पृथक् न करे। (त्वम् वसूनां ईशिषे ) तू सब ऐश्वर्यों और मनुष्यों का स्वामी है। अर्थात् हमारे पारस्परिक लेन-देन की न्यायपूर्वक व्यवस्था कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सुदीतिपुरुमीळ्हौ तयोर्वान्यतर ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ४, ७ विराड् गायत्री। २, ६, ८, ९ निचृद् गायत्री। ३, ५ गायत्री। १०, १०, १३ निचृद् बृहती। १४ विराड् बृहती। १२ पादनिचृद् बृहती। ११, १५ बृहती॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
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