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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 75 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 75/ मन्त्र 7
    ऋषिः - विरुपः देवता - अग्निः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    कमु॑ ष्विदस्य॒ सेन॑या॒ग्नेरपा॑कचक्षसः । प॒णिं गोषु॑ स्तरामहे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कम् । ऊँ॒ इति॑ । स्वि॒त् । अ॒स्य॒ । सेन॑या । अ॒ग्नेः । अपा॑कऽचक्षसः । प॒णिम् । गोषु॑ । स्त॒रा॒म॒हे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कमु ष्विदस्य सेनयाग्नेरपाकचक्षसः । पणिं गोषु स्तरामहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कम् । ऊँ इति । स्वित् । अस्य । सेनया । अग्नेः । अपाकऽचक्षसः । पणिम् । गोषु । स्तरामहे ॥ ८.७५.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 75; मन्त्र » 7
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Shall we overcome and throw out the thief hiding within our lands and cows by the force of this all watching Agni of far sighted vision?

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा सर्वदृष्टा व सर्वशासक आहे, त्यामुळे आपल्या संपूर्ण वस्तू त्याला समर्पित कराव्यात व त्याच्या इच्छेवर आपले कल्याण सोपवावे. ॥७॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे मनुष्याः ! वयम् । अपाकचक्षसः=अनल्पदृष्टेः सर्वद्रष्टुरस्येश्वरस्य सेनया कृपया । गोषु=निमित्तेषु । कं+स्वित्=सर्वमेव । पणिं=चोरादिकम् । स्तरामहे=अभिभवेम ॥७ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    हे मनुष्यों ! हम सब (अपाकचक्षसः) सर्वद्रष्टा सर्वनियन्ता (अस्य+अग्नेः) इस सर्वाधार जगदीश की (सेनया) कृपा से (गोषु) गौओं के (कं+स्वित्) निखिल (पणिं) चोरादिक उपद्रवों को (स्तरामहे) पार उतरने में समर्थ होवें ॥७ ॥

    भावार्थ

    जिस कारण परमात्मा सर्वद्रष्टा और सर्वशासक है, इस हेतु अपनी सम्पूर्ण वस्तु उसके निकट समर्पित करे और उसकी इच्छा पर अपना कल्याण छोड़े ॥७ ॥

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    विषय

    नायक के प्रति अधीन प्रजाओं का कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    ( अस्य) इस ( अपाक-चक्षसः ) अनल्प दृष्टि वाले, परिपक्व बुद्धि वाले (अग्नेः ) तेजस्वी ज्ञानी नायक पुरुष की ( सेनया ) सेना से हम ( कं स्वित् उ पणि ) प्राण की शर्त्त धर कर बाजी लगाने वाले क शत्रु को ( गोषु ) भूमियों के विजय के लिये ( स्तरामहे ) विनाश करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विरूप ऋषि:॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ४, ५, ७,९,११ निचृद् गायत्री। २, ३, १५ विराड् गायत्री । ८ आर्ची स्वराड् गायत्री। षोडशर्चं सूक्तम॥

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    विषय

    पणिस्तरण

    पदार्थ

    [१] (अस्य) = इस (अपाकचक्षसः) = अनल्प ज्ञानवाले-सर्वज्ञ (अग्नेः) = प्रकाशमय प्रभु की (सेनया) = [सह इनेन प्रभुणा] सेना से नेतृत्व शक्ति से (कम् उ स्वित्) = किसी भी अधिक से- अधिक शक्तिशाली भी (पणिं) = कृपणता व अपवित्रता की भावना को (गोषु) = ज्ञान की वाणियों के होने पर (स्तरामहे) = विनष्ट करते हैं। [२] प्रभु पूर्ण ज्ञानवाले हैं। उनकी प्रेरणा में चलते हुए हम ज्ञान का वर्धन कर पाते हैं। यह ज्ञान हमें कृपणता से ऊपर उठाकर पवित्र बना देता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम सर्वज्ञ प्रभु की प्रेरणा में चलें। इस प्रकार हम कृपणता व अपवित्रता को विनष्ट करके ज्ञानोज्ज्वल जीवनवाले बनेंगे।

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