ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 8/ मन्त्र 16
प्रास्मा॒ ऊर्जं॑ घृत॒श्चुत॒मश्वि॑ना॒ यच्छ॑तं यु॒वम् । यो वां॑ सु॒म्नाय॑ तु॒ष्टव॑द्वसू॒याद्दा॑नुनस्पती ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । अ॒स्मै॒ । ऊर्ज॑म् । घृ॒त॒ऽश्चुत॑म् । अश्वि॑ना । यच्छ॑तम् । यु॒वम् । यः । वा॒म् । सु॒म्नाय॑ । तु॒स्तव॑त् । व॒सु॒ऽयात् । दा॒नु॒नः॒ । प॒ती॒ इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रास्मा ऊर्जं घृतश्चुतमश्विना यच्छतं युवम् । यो वां सुम्नाय तुष्टवद्वसूयाद्दानुनस्पती ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । अस्मै । ऊर्जम् । घृतऽश्चुतम् । अश्विना । यच्छतम् । युवम् । यः । वाम् । सुम्नाय । तुस्तवत् । वसुऽयात् । दानुनः । पती इति ॥ ८.८.१६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 8; मन्त्र » 16
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 28; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 28; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(अश्विना) हे अश्विनौ (दानुनस्पती) दानस्वामिनौ ! (युवम्) युवाम् (अस्मै) अस्मै वक्ष्यमाणाय (ऊर्जम्) बलकरम् (घृतश्चुतम्) स्नेहोत्पादकमिष्टम् (प्रयच्छतम्) दत्तम् (यः) यो जनः (सुम्नाय) सुखाय (तुष्टवत्) स्तुवीत (वसूयात्) धनं वा कामयेत ॥१६॥
विषयः
पुनस्तमेवार्थमाह ।
पदार्थः
हे अश्विना=अश्विनौ । यः=विद्वान् । सुम्नाय=सुखाय वा विज्ञानाय वा । वाम्=युवाम् । तुष्टवत्=स्तुयात्=स्तुतिं कुर्य्यात् । हे दानुनस्पती=दानस्य अधिपती । यश्च वसूयात्=आत्मनो वसुधनमिच्छेदिति वसूयात् । अस्मै= स्तुतिसम्पादकाय जनाय । युवम्=युवाम् । ऊर्जम्=बलम् । घृतश्च्युतम्=घृतसंयुतमन्नञ्च । प्रयच्छतम्=प्रदत्तम् ॥१६ ॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अश्विना) हे व्यापक (दानुनस्पती) दान देने में स्वतन्त्र ! (युवम्) आप (अस्मै) उसके लिये (ऊर्जम्) बलोत्पादक (घृतश्चुतम्) स्नेहवर्धक इष्ट पदार्थ को (प्रयच्छतम्) दें (यः) जो (सुम्नाय) सुख के लिये (तुष्टवत्) आपकी स्तुति करता अथवा (वसूयात्) धन की कामना करता है ॥१६॥
भावार्थ
हे दानशील सभाध्यक्ष तथा सेनाध्यक्ष ! आप यजमान के लिये उत्तमोत्तम इष्ट पदार्थ प्रदान करें, जो आपके प्रति धन की कामना करता है ॥१६॥
विषय
पुनः उसी अर्थ को कहते हैं ।
पदार्थ
(अश्विना) हे प्रजाओं के हृदय में व्याप्त राजा और अमात्य ! (यः) जो विद्वान् (सुम्नाय) सुख और विज्ञान की प्राप्ति के लिये (वाम्) आप दोनों से (तुष्टवत्) निवेदन करे (दानुनस्पती) हे दान के अधिपति, हे महादानी धनस्वामी (वसूयात्) जो सज्जन धन की कामना करे (अस्मै) इस स्तुतिकर्त्ता जन को (ऊर्जम्) पूर्णबल का साहाय्य और (घृतश्च्युतम्) घृतसंयुक्त अन्न (युवम्) आप दोनों (प्र+यच्छतम्) देवें ॥१६ ॥
भावार्थ
जो कोई विद्यादि वृद्धि के लिये पाठशाला आदि भवन बनावे और जो कोई सुजन धर्मप्रचारादि शुभ कर्म करे, वह राज्य की ओर से पालनीय है ॥१६ ॥
विषय
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भावार्थ
( यः ) जो ( वां ) तुम दोनों को ( सुम्नाय ) सुख, शान्ति लाभ के लिये ( तुष्टवत् ) स्तुति या उपदेश करे, हे ( दानुनः पती ) दान शील जन वा दातव्य धन के पालको ! ( यः ) जो जो ( वसूयात् ) आप दोनों के सुखार्थ ही अपना धन चाहे, ( अस्मै ) उस पूज्य पुरुष को ( युवं ) तुम दोनों हे ( अश्विना ) जितेन्द्रिय जनो ! ( घृतश्चुतं ) घी, जलादि से युक्त ( ऊर्जं प्रयच्छतम् ) बलकारक अन्न प्रदान करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सध्वंसः काण्व ऋषिः। अश्विनौ देवते ॥ छन्द:– १, २, ३, ५, ९, १२, १४, १५, १८—२०, २२ निचुदनुष्टुप्। ४, ७, ८, १०, ११, १३, १७, २१, २३ आर्षी विराडनुष्टुप्। ६, १६ अनुष्टुप् ॥ त्रयोविंशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Ashvins, presiding powers of divine dispen sation and charity, whoever adores you for peace and well being and prays for wealth, honour and excellence, to him, pray, give energy and power of will overflowing with inner light and brilliance of grace.
मराठी (1)
भावार्थ
हे दानशील सभाध्यक्षा व सेनाध्यक्षा, तुम्ही यजमानाला उत्तमोत्तम इष्ट पदार्थ प्रदान करा, जो तुमच्याकडून धनाची कामना करतो. ॥१६॥
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