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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 82 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 82/ मन्त्र 9
    ऋषिः - कुसीदी काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    यं ते॑ श्ये॒नः प॒दाभ॑रत्ति॒रो रजां॒स्यस्पृ॑तम् । पिबेद॑स्य॒ त्वमी॑शिषे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । ते॒ । श्ये॒नः । प॒दा । अभ॑रत् । ति॒रः । रजां॑सि । अस्पृ॑तम् । पिब॑ । इत् । अ॒स्य॒ । त्वम् । ई॒शि॒षे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यं ते श्येनः पदाभरत्तिरो रजांस्यस्पृतम् । पिबेदस्य त्वमीशिषे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । ते । श्येनः । पदा । अभरत् । तिरः । रजांसि । अस्पृतम् । पिब । इत् । अस्य । त्वम् । ईशिषे ॥ ८.८२.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 82; मन्त्र » 9
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Of the nectar of ecstasy which the mighty sage and scholar distilled by flights of spiritual imagination from heaven and brought in by the rays of light across the spaces, drink and enjoy since now you alone rule over the sublimity and power of this nectar.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्वान पुरुष साधकाला ज्ञानाचा प्रकाश देतो. त्यामुळे तो अजेय सिद्ध होतो. त्यासाठी साधकाने तो अत्यंत लक्षपूर्वक ग्रहण करावा. ॥९॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यम्) जिस (अस्पृतम्) अजेय पदार्थ-बोध को (ते) साधक के लिये (श्येनः) विद्वान् [श्यायति विज्ञापयतीति श्येनी विद्वान्यजुः २१-३५ ऋ०द०] (पदा) ज्ञान के प्रकाश की किरण से (रजांसि) अज्ञानान्धकार को (तिरः) पार कर (अभरत्) देता है (अस्य) उसका तू स्वामी है; (पिब इत्) निश्चय ही उसका उपभोग कर॥९॥

    भावार्थ

    विद्वान् जन साधक को ज्ञान का वह प्रकाश देता है कि जो अजेय होता है। साधक को चाहिये कि वह ध्यान से उसे ग्रहण करे॥९॥ अष्टम मण्डल में बयासीवाँ सूक्त व दूसरा वर्ग समाप्त।

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    विषय

    उस के अधिकार और कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! ( यम् ) जिस सोम अर्थात् ऐश्वर्य को ( श्येनः ) बाज़ के समान आक्रमण करने वाला पराक्रमी सेनापति ( रजांसि तिरः ) समस्त शत्रु जनों को पराजित करके ( अस्पृतम् ) शत्रुओं से अछूते या अनुपयुक्त रूप में ही ( पदा ) पदाति सैन्य द्वारा ( ते आ भरत् ) तेरे लिये ले आता है ( अस्य त्वम् ईशिषे ) उसका तू ही स्वामी है। तू ही उसका ( पिब इत् ) उपभोग कर। इति द्वितीय वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुसीदी काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ७, ६ निचृद् गायत्री। २, ५, ६, ८ गायत्री। ३, ४ विराड् गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    श्येनः पदा आभरत्

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! (यम्) = जिस (ते) = आपके सोम को (श्येनः) = शंसनीय गतिवाला (पदा आभरत्) = क्रियाशीलता के द्वारा अपने में धारण करता है। यह श्येन (अस्पृतम्) = काम-क्रोध आदि व रोगरूप शत्रुओं से अस्पृष्ट सोम को (रजांसि तिरः) = राजस भावों को तिरस्कृत करके अपने में धारण करता है वासनाएँ ही सोमरक्षण में विघातक होती हैं। [२] हे प्रभो! आप ही (अस्य) = इस सोम का (पिबा) = पान करिये। (त्वं ईशिषे) = आप ही इसके पान के लिये ईश हैं। प्रभुस्मरण ही हमें वासनाओं के आक्रमण से बचाकर सोमपान के योग्य बनाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- गतिशील पुरुष ही राजसभावों से ऊपर उठकर सोम का रक्षण कर पाता है। प्रभु का उपासन हमें राजसभावों के आक्रमण से बचाकर सोमरक्षण के योग्य बनाता है। अगले सूक्त का ऋषि भी 'कुसीदी काण्व' ही है। यह प्रार्थना करता है कि-

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