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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 83 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 83/ मन्त्र 7
    ऋषिः - कुसीदी काण्वः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - स्वराडार्चीगायत्री स्वरः - षड्जः

    अधि॑ न इन्द्रैषां॒ विष्णो॑ सजा॒त्या॑नाम् । इ॒ता मरु॑तो॒ अश्वि॑ना ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अधि॑ । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । ए॒षा॒म् । विष्णो॒ इति॑ । स॒ऽजा॒त्या॑नाम् । इ॒त । मरु॑तः । अश्वि॑ना ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अधि न इन्द्रैषां विष्णो सजात्यानाम् । इता मरुतो अश्विना ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अधि । नः । इन्द्र । एषाम् । विष्णो इति । सऽजात्यानाम् । इत । मरुतः । अश्विना ॥ ८.८३.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 83; मन्त्र » 7
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord of glory, giver of power and honour, Vishnu, omnipresent divinity, Maruts, winds and vibrant humanity, Ashvins, harbingers of the new dawn, take it that we have come in advance of these homogeneous communities and accept us as your own.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    समान लोक त्यांच्या समान असणाऱ्याच्या संगतीत राहतात. हा सर्वविदित सनातन नियम आहे. उपासकाने आपला आदर्श असलेल्या विद्वानांच्या संगतीत राहावे. ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यदाता! हे (विष्णो) सर्वव्यापक प्रभु! हे (मरुतः) मनुष्यो! हे (अश्विना) अध्यापक उपदेशको! आज (नः) हम उपासकों को भी (एषाम्) इन्हीं के (सजात्यानाम्) सजातीय (अधि इत) समझो॥७॥

    भावार्थ

    समान वृत्ति वाले संग रहते हैं--यह एक सर्वविदित शाश्वत नियम है। उपासक को चाहिए कि वह अपने आदर्श विद्वानों की संगति में ही रहे॥७॥

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    विषय

    विद्वान् तेजस्वी, व्यवहारकुशल विद्वान् जनों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! हे ( विष्णो ) व्यापक सामर्थ्य वाले ! हे ( अश्विना ) उत्तम अश्ववत् इन्द्रियों के स्वामियो ! हे ( मरुतः ) वायुवत् बलवान्, विद्वान् पुरुषो वा व्यापारी जनो ! ( सजात्यानां एषां ) समान जाति वाले इन में से ( नः ) हमें भी ( अधि इत्) जानो और अपने अधीन लेवो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुसीदी काण्व ऋषिः॥ विश्वे देवताः॥ छन्दः—१, २, ५, ६, ९ गायत्री। ३ निचृद गायत्री। ४ पादनिचृद गायत्री। ७ आर्ची स्वराड गायत्री। ८ विराड गायत्री।

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    विषय

    'इन्द्र, विष्णु, मरुतों व अश्विना' के साथ बन्धुत्व

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रियता के दिव्य भाव ! (विष्णो) = [विष् व्याप्तौ] व्यापकता के दिव्य भाव ! (मरुतः) = [मित राविणः] परिमित बोलने के दिव्य भावो ! तथा (अश्विना) = प्राणापानो! आप सब (एषाम्) = इन (सजात्यानां नः) = आपके ही समान जातिवाले भाई, मित्र आदि भूत हमारा (अधि इत) = [to take care of] ध्यान करनेवाले होओ। [२] हम 'इन्द्र, विष्णु, मरुत् व अश्विना ' के ही बन्धु बनें। इनके द्वारा हमारा रक्षण किया जाये। हम जितेन्द्रिय-उदार [विशाल हृदय] - कम बोलनेवाले व प्राणापान की साधना करनेवाले बनें।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम 'इन्द्र, विष्णु, मरुतों व प्राणापान' की बन्धुता को प्राप्त करें, अर्थात् 'जितेन्द्रिय, उदार हृदय, मितरावी व प्राणापान की साधना करनेवाले' बनें। यही रक्षण का मार्ग है।

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