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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 17/ मन्त्र 5
    ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अति॒ त्री सो॑म रोच॒ना रोह॒न्न भ्रा॑जसे॒ दिव॑म् । इ॒ष्णन्त्सूर्यं॒ न चो॑दयः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अति॑ । त्री । सो॒म॒ । रो॒च॒ना । रोह॑न् । न । भ्रा॒ज॒से॒ । दिव॑म् । इ॒ष्णन् । सूर्य॑म् । न । चो॒द॒यः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अति त्री सोम रोचना रोहन्न भ्राजसे दिवम् । इष्णन्त्सूर्यं न चोदयः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अति । त्री । सोम । रोचना । रोहन् । न । भ्राजसे । दिवम् । इष्णन् । सूर्यम् । न । चोदयः ॥ ९.१७.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 17; मन्त्र » 5
    अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सोम) हे परमात्मन् ! (त्री रोचना अति) भवान् त्रीनपि लोकानतिक्रम्य (रोहन् न) सर्वोपरि विराजमानः (दिवम् भ्राजसे) द्युलोकं दीपयति (न) तथा (इष्णन्) सर्वं व्याप्नुवन् (सूर्यम् चोदयः) सूर्यमपि प्रेरयति ॥५॥

    हिन्दी (1)

    पदार्थ

    (सोम) हे परमात्मन् ! (त्री रोचना अति) आप तीनों लोकों को अतिकमण करके (रोहन् न) सर्वोपरि विराजमान होकर (दिवम् भ्राजसे) द्युलोक को प्रकाशित करते हैं (न) और (इष्णन्) सर्वत्र गतिशील होकर (सूर्यम् चोदयः) सूर्य को भी प्रेरणा करते हैं ॥५॥

    भावार्थ

    परमात्मा की सत्ता से पृथिवी अन्तरिक्ष और द्यौ ये तीनों लोक स्थिर हैं और उसी की सत्ता में सूर्य चन्द्रमा आदि तेजस्वी पदार्थ सब स्थिर हैं अर्थात् उसी के नियम में विराजमान हैं, ‘भयादस्याग्निस्तपति भयात्तपति सूर्यः। भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चमः’ क० २।६ ॥५॥

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Soma, lord of light and bliss, rising as if higher and higher, you transcend the three worlds of earth, skies and the heavens and shower light and glory over the heavens, and then, in a state of passion as if, you animate the sun with power and fertility.

    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वराच्या सत्तेने पृथ्वी, अंतरिक्ष व द्यौ हे तिन्ही लोक स्थिर आहेत व त्याच्याच सत्तेत सूर्य-चंद्रमा इत्यादी तेजस्वी पदार्थ स्थिर आहेत. अर्थात त्याच्याच नियमात विराजमान आहेत. ‘भ्यादस्याग्निस्पपति भयात्तपति सूर्य: भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चम:’ क. २।६॥५॥

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