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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 31/ मन्त्र 5
    ऋषि: - गोतमोः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    तुभ्यं॒ गावो॑ घृ॒तं पयो॒ बभ्रो॑ दुदु॒ह्रे अक्षि॑तम् । वर्षि॑ष्ठे॒ अधि॒ सान॑वि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तुभ्य॑म् । गावः॑ । घृ॒तम् । पयः॑ । बभ्रो॒ इति॑ । दु॒दु॒ह्रे । अक्षि॑तम् । वर्षि॑ष्ठे । अधि॑ । सान॑वि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तुभ्यं गावो घृतं पयो बभ्रो दुदुह्रे अक्षितम् । वर्षिष्ठे अधि सानवि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तुभ्यम् । गावः । घृतम् । पयः । बभ्रो इति । दुदुह्रे । अक्षितम् । वर्षिष्ठे । अधि । सानवि ॥ ९.३१.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 31; मन्त्र » 5
    अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (बभ्रो) हे विश्वम्भर परमात्मन् ! भवान् (वर्षिष्ठे अधि सानवि) विभूतशालिनि सर्वत्र वस्तुनि शक्तिरूपेण विराजते किञ्च (तुभ्यम् गावः) भवदर्थमेव पृथिव्यादयो लोकाः (घृतम् पयः) घृतदुग्धादिकमनेकधा रसं (अक्षितम्) निरन्तरं स्यन्दमानं (दुदुह्रे) उत्पादयन्ति ॥५॥

    हिन्दी (1)

    पदार्थ

    (बभ्रो) “बिभर्तीति बभ्रुः तत्सम्बुद्धौ बभ्रो” हे सबके धारण करनेवाले परमात्मन् ! (वर्षिष्ठे अधि सानवि) विभूतिवाली प्रत्येक वस्तु में आप शक्तिरूप से विराजमान हैं और (तुभ्यम् गावः) तुम्हारे लिये ही पृथिव्यादिलोक-लोकान्तर (घृतम् पयः) घृत दुग्धादि अनन्त प्रकार के रसों को जो (अक्षितम्) निरन्तर स्यन्दमान हो रहे हैं, उनको (दुदुह्रे) दुहते हैं ॥५॥

    भावार्थ

    परमात्मरचित इस ब्रह्माण्ड में नाना प्रकार के घृतदुग्धादि रस दिनरात प्रवाहरूप से स्यन्दमान हो रहे हैं, बहुत क्या, जो-जो विभूतिवाली वस्तु है, उससे परमात्मा का ऐश्वर्य सर्वत्र देदीप्यमान हो रहा है। इसी अभिप्राय से कहा है कि “यद्यद्विभूतिमत् सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा। तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम्” । जो-जो विभूतिवाली वस्तु अथवा ऐश्वर्य और शोभावाली हो, वह सब परमात्मा के प्रकृतिरूप अंश से उत्पन्न हुई है ॥५॥

    English (1)

    Meaning

    O lord bearer and sustainer of the universe, in your honour do stars and planets, lands and cows and all energies of nature create inexhaustible milky nutriments of life and adore you on top of generosity and universal love.

    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्म रचित या ब्रह्मांडात नाना प्रकारचे घृत-दुग्ध इत्यादी रस दिवसरात्र प्रवाहरूपाने वाहात आहेत. एवढेच नव्हे तर जी विभूतीयुक्त वस्तू आहे त्यात परमेश्वराचे ऐश्वर्य सर्वत्र देदीप्यमान होत आहे. ‘‘यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जित मेव वा । तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम्’’ जी विभूतीयुक्त वस्तू किंवा ऐश्वर्य शोभादायक आहे ते सर्व परमेश्वर प्रकृतिरूपाद्वारे उत्पन्न करतो. ॥५॥

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