ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 38/ मन्त्र 4
ए॒ष स्य मानु॑षी॒ष्वा श्ये॒नो न वि॒क्षु सी॑दति । गच्छ॑ञ्जा॒रो न यो॒षित॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठए॒षः । स्यः । मानु॑षीषु । आ । श्ये॒नः । न । वि॒क्षु । सी॒द॒ति॒ । गच्छ॑न् । जा॒रः । न । यो॒षित॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
एष स्य मानुषीष्वा श्येनो न विक्षु सीदति । गच्छञ्जारो न योषितम् ॥
स्वर रहित पद पाठएषः । स्यः । मानुषीषु । आ । श्येनः । न । विक्षु । सीदति । गच्छन् । जारः । न । योषितम् ॥ ९.३८.४
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 38; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 28; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 28; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(एष स्यः) अयं परमात्मा (श्येनः नः) शीघ्रगामिविद्युदादिशक्तिरिव (जारः योषितम् गच्छन् न) रात्रिं प्राप्नुवन् प्रकाशमानः चन्द्र इव च (मानुषीषु विक्षु सीदति) मानुषीः प्रजाः प्राप्नोति ॥४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(एषः स्यः) यह परमात्मा (श्येनः नः) शीघ्रगामी विद्युदादि शक्तियों के समान (जारः योषितम् गच्छन् न) जैसे चन्द्रमा रात्रि को प्रकाशित करता हुआ प्राप्त होता है, उसी प्रकार (मानुषीषु विक्षु सीदति) मानुषी प्रजाओं में प्राप्त होता है।
भावार्थ
जिस प्रकार चन्द्रमा अपने शीत स्पर्श और आह्लाद को देता हुआ प्रजा को प्रसन्न करता है, उसी प्रकार परमात्मा अपने शान्त्यादि और आनन्दादि गुणों से सब प्रजाओं को प्रसन्न करता है। कई एक टीकाकार इसके ये अर्थ करते हैं कि जिस प्रकार (जार) यार अपनी प्रिय स्त्री को शीघ्रता से आकर प्राप्त होता है, इस प्रकार वह हम को आकर प्राप्त हो। “जार” के अर्थ स्त्रीलम्पट पुरुष के उन्होंने भ्रान्ति से समझे हैं, क्योंकि (जारयति जारः) इस व्युत्पत्ति से रात्रि का स्वाभाविक धर्म जो अन्धकार है, उसको नाश करनेवाला चन्द्रमा ही हो सकता है। इस अभिप्राय से “जार” शब्द यहाँ चन्द्रमा को कहता है, किसी पुरुषविशेष को नहीं। स्त्रीलम्पट पुरुषविशेष अर्थ करके यहाँ अल्पश्रुत टीकाकारों ने वेद को कलङ्कित किया है ॥४॥
विषय
श्येनो न
पदार्थ
[१] (एषः) = यह (स्यः) = वह प्रसिद्ध सोम (मानुषीषु विक्षु) = मानव हित में लगी हुई इन्द्रियों से (आसीदति) = आसीन होता है। इस प्रकार आसीन होता है (न) = जैसे कि (श्येन:) = वह गतिशील प्रभु, अर्थात् सर्वभूत हित में लगे हुए व्यक्ति जिस प्रकार प्रभु को अपने में आसीन कर पाते हैं, उसी प्रकार इस सोम का भी अपने में रक्षण करनेवाले होते हैं । [२] यह सोम उसी प्रकार हमें (गच्छन्) = प्राप्त होता है, न जैसे कि जारः = एक स्तोता (योषितम्) = इस वेदवाणी को प्राप्त होता है [जरते: स्तुति कर्मणः, योषा वाड्नाम] । स्तुति करनेवाला वेदवाणी को प्राप्त करता है। इसी प्रकार यह स्तोता मानवहित में लगा हुआ इस सोम का भी रक्षण कर पाता है ।
भावार्थ
भावार्थ- हम मानवहितकारी कर्मों में लगे हुए होकर सोम का अपने में रक्षण करें । सदा प्रभु का स्मरण करते हुए प्रभु को अपने में आसीन करें और सोम के रक्षक बनें ।
विषय
व्यापक प्रभु
भावार्थ
(योषितं गच्छन् जारः न) स्त्री के पास जाते हुए उसके यौवन व्यतीत करने वाले प्रिय पुरुष के समान और (विक्षु मानुषीषु) मनुष्य प्रजाओं में (श्येनः न) उत्तम आचारवान् पुरुष के समान (एषः स्यः) वह प्रभु भी (श्येनः) शुद्ध, उत्तम ज्ञानी, (योषितं गच्छन् जारः) प्रकृति में व्यापक उसकी समावस्था को जीर्ण करने वाला प्रभु (विक्षु) प्रवेश योग्य समस्त विकृत लोकों में (सीदति) विराजता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
रहूगण ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः- १, २, ४, ६ निचृद् गायत्री। ३ गायत्री। ५ ककुम्मती गायत्री॥ षडृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
This Soma pervades and shines in the generality of humanity like the eagle, victorious conqueror of the skies, shining and radiating like the moon, lover and admirer of its darling, the lovely night.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्या प्रकारे चंद्र आपला शीतस्पर्श व आल्हाद देत प्रजेला प्रसन्न करतो. त्याच प्रकारे परमात्मा आपल्या शांत व आनंद इत्यादी गुणांनी सर्व प्रजेला प्रसन्न करतो.
टिप्पणी
कित्येक टीकाकार याचा हा अर्थ करतात की ज्याप्रकारे जार आपल्या प्रिय स्त्रीला ताबडतोब भेटतो त्या प्रकारे आम्हाला तो प्राप्त व्हावा. ‘जार’चा अर्थ स्त्रीलंपट पुरुषा असा त्यांना भ्रम झालेला आहे. कारण (जारयति इति जार:) या व्युत्पत्तीने रात्रीच्या अंध:काराचा नाश करणारा चंद्रच आहे. तेव्हा चंद्राला ‘जार’ म्हटले आहे. एखाद्या पुरुष विशेषाला नाही. स्त्रीलंपट पुरुषविशेष अर्थ करून येथे अल्पश्रुत टीकाकारांनी वेदाला कलंकित केलेले आहे. ॥४॥
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