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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 58 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 58/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अवत्सारः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    तर॒त्स म॒न्दी धा॑वति॒ धारा॑ सु॒तस्यान्ध॑सः । तर॒त्स म॒न्दी धा॑वति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तर॑त् । सः । म॒न्दी । धा॒व॒ति॒ । धारा॑ । सु॒तस्य॑ । अन्ध॑सः । तर॑त् । सः । म॒न्दी । धा॒व॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तरत्स मन्दी धावति धारा सुतस्यान्धसः । तरत्स मन्दी धावति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तरत् । सः । मन्दी । धावति । धारा । सुतस्य । अन्धसः । तरत् । सः । मन्दी । धावति ॥ ९.५८.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 58; मन्त्र » 1
    अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मनो विभुत्वं वर्ण्यते |

    पदार्थः

    (मन्दी सः) उत्कृष्टानन्दयुक्तः स परमात्मा (तरत्) पापिनस्तारयन् (सुतस्य अन्धसः धारा) उत्पन्नेन ब्रह्मानन्दरसेन सह (धावति) स्तोतॄणां हृदि विराजमानो भवति | (तरत् सः मन्दी धावति) अथ च स परमात्मा निश्चयेन समस्तपापकारिणस्तारयन् परमानन्दरूपेण व्याप्तो भवति ॥१॥

    हिन्दी (1)

    विषय

    अब परमात्मा का सर्वव्यापक होना वर्णन करते हैं।

    पदार्थ

    (मन्दी सः) परम आनन्दमय यह परमात्मा (तरत्) पापियों को तारता हुआ (सुतस्य अन्धसः धारा) उत्पन्न किये हुए ब्रह्मानन्द के रससहित (धावति) स्तोताओं के हृदय में विराजमान होता है। (तरत् स मन्दी धावति) और वह परमात्मा निश्चय सब पापियों को तारता हुआ परमानन्दरूप से संसार में व्याप्त हो रहा है ॥१॥

    भावार्थ

    पापियों को तारने का अभिप्राय यह है कि जो लोग पाप का प्रायश्चित्त करके उसकी शरण को प्राप्त होते हैं, वे फिर कदापि पाप से पीड़ित नहीं होते। अथवा यों कहो कि पापमय संचित कर्मों की स्थिति उनके हृदय से दूर हो जाती है। अन्य पापों को ईश्वर कदापि क्षमा नहीं करता ॥१॥

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Soma, Spirit of peace, beauty and bliss, saving, rejoicing, fulfilling, flows on. The stream of delight exhilarating for body, mind and soul flows on full of bliss. Crossing over the hurdles of life, delighted all over, the celebrant goes on.

    मराठी (1)

    भावार्थ

    पापी लोकांना तारण्याचा अभिप्राय हा आहे की जे लोक पापाचे प्रायश्चित्त करून परमेश्वराला शरण जातात ते पुन्हा कधीही पापपंकाने त्रस्त होत नाहीत किंवा पापमय संचित कर्मांची स्थिती त्यांच्या हृदयातून दूर होते इतर पापांना ईश्वर कधीही क्षमा करत नाही. ॥१॥

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