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यजुर्वेद अध्याय - 10

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  • यजुर्वेद - अध्याय 10/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वरुण ऋषिः देवता - आपो देवताः छन्दः - निचृत् आर्षी त्रिष्टुप्, स्वरः - धैवतः
    486

    अ॒पो दे॒वा मधु॑मतीरगृभ्ण॒न्नर्ज॑स्वती राज॒स्वश्चिता॑नाः। याभि॑र्मि॒त्रावरु॑णाव॒भ्यषि॑ञ्च॒न् याभि॒रिन्द्र॒मन॑य॒न्नत्यरा॑तीः॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒पः। दे॒वाः। मधु॑मती॒रिति॒ मधु॑ऽमतीः। अ॒गृ॒भ्ण॒न्। ऊर्ज॑स्वतीः। राज॒स्व᳕ इति॑ राज॒ऽस्वः᳖। चिता॑नाः। याभिः॑। मि॒त्रावरु॑णौ। अ॒भि। असि॑ञ्चन्। याभिः॑। इन्द्र॑म्। अन॑यन्। अति॑। अरा॑तीः ॥१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपो देवा मधुमतीरगृभ्णन्नूर्जस्वती राजस्वश्चितानाः । भिर्मित्रावरुणावभ्यषिञ्चन्याभिरिन्द्रमनयन्नत्यरातीः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अपः। देवाः। मधुमतीरिति मधुऽमतीः। अगृभ्णन्। ऊर्जस्वतीः। राजस्व इति राजऽस्वः। चितानाः। याभिः। मित्रावरुणौ। अभि। असिञ्चन्। याभिः। इन्द्रम्। अनयन्। अति। अरातीः॥१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 10; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ मनुष्यैर्विदुषामनुकरणेन पदार्थेभ्य उपयोगो ग्राह्य इत्याह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! यूयं विपश्चितो देवा याभिर्मित्रावरुणावभ्यसिञ्चन्, याभिरिन्द्रमरातीश्चानयन्, ताभिर्मधुमतीरूर्जस्वतीश्चिताना राजस्वोऽपोऽगृभ्णन् गृह्णीत॥१॥

    पदार्थः

    (अपः) जलानि प्राणान् वा (देवाः) विद्वांसः (मधुमतीः) प्रशस्तमधुरादिगुणयुक्ताः (अगृभ्णन्) गृह्णीत (ऊर्जस्वतीः) बलपराक्रमप्रदाः (राजस्वः) राजजनिकाः (चितानाः) संज्ञाकारिण्यः, अत्र विकरणलुग्व्यत्ययेनात्मनेपदं च (याभिः) (मित्रावरुणौ) प्राणोदानौ (अभि) (असिञ्चन्) सिञ्चन्ति (याभिः) क्रियाभिः (इन्द्रम्) विद्युतम् (अनयन्) प्राप्नुवन्ति (अति) (अरातीः) शत्रून्॥ अयं मन्त्रः (शत॰ ५। ३। ४। २-३) व्याख्यातः॥१॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्विद्वत्सहायेनाऽपः सुपरीक्ष्योपयुज्यन्ताम्। शत्रून्निवर्त्य प्रजया सह प्राणवत्प्रियत्वे वर्त्तितव्यमाभ्य उपकारो नेयः॥१॥

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    विषयः

    अथ मनुष्यैर्विदुषामनुकरणेन पदार्थेभ्यः उपयोगो ग्राह्य इत्याह ।।

    सपदार्थान्वयः

    हे मनुष्याः ! यूयं विपश्चितो देवाः विद्वांसः याभिः क्रियाभिः मित्रावरुणौ प्राणोदानौ अभ्यसिञ्चन् सिञ्चन्ति, याभिः क्रियाभि: इन्द्रं विद्युतम् अराती: शत्रून् चाऽति अनयन् प्राप्नुवन्ति, ताभिर्मधुमतीः प्रशस्तमधुरादिगुणयुक्ताः ऊर्जस्वतीः बलपराक्रमप्रदाः चितानाः संज्ञाकारिण्यः राजस्वः राजजनिकाः अपः जलानि प्राणान् वा अगृभ्णन् गृह्णीत ।। १० । १ ।। [देवा—अरातीः........अति+अनयन्.......अपोऽगृभ्णन्]

    पदार्थः

    (अपः) जलानि प्राणान्वा (देवा:) विद्वांसः (मधुमतीः) प्रशस्तमधुरादिगुणयुक्ताः (अगृभ्णन्) गृह्णीत (ऊर्जस्वतीः) बलपराक्रमप्रदाः (राजस्व:) राजजनिका: (चितानाः) संज्ञाकारिण्यः। विकरणलुग्व्यत्ययेनात्मनेपदं च (याभिः) (मित्रावरुणौ) प्राणोदानौ (अभि) (असिंचन्) सिंचन्ति (याभिः) क्रियाभिः (इन्द्रम्) विद्युतम् (अनयन्) प्राप्नुवन्ति (अति) (अराती:) शत्रून् ॥ अयं मन्त्रः शत० ५। ३।४।२-३ व्याख्यातः ॥ १ ॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्विद्वत्सहायेनाऽपः सुपरीक्ष्योपयुज्यन्ताम्, शत्रून् निवर्त्य प्रजया सह प्राणवत् प्रियत्वे वर्त्तितव्यमाभ्य उपकारो नेयः।। १० । १ ।।

    विशेषः

    वरुणः । आपः=जलम्। निचृदार्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    इसके पश्चात् इस दशवें अध्याय के प्रथम मन्त्र में मनुष्य लोग विद्वानों के अनुकूल चलें, इस विषय का उपदेश किया है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! तुम लोग (देवाः) चतुर विद्वान् लोग (याभिः) जिन क्रियाओं से (मित्रावरुणौ) प्राण तथा उदान को (अभ्यसिञ्चन्) सब प्रकार सींचते और जिन क्रियाओं से (इन्द्रम्) बिजुली को प्राप्त और (अरातीः) शत्रुओं को (अनयन्) जीतते हैं, उन क्रियाओं से (मधुमतीः) प्रशंसनीय मधुरादि गुणयुक्त (ऊर्जस्वतीः) बल पराक्रम बढ़ाने (चितानाः) चेतनता देने और (राजस्वः) ज्ञान-प्रकाश-युक्त राज्य को प्राप्त करानेहारे (अपः) जल वा प्राणों को (अगृभ्णन्) ग्रहण करो॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि विद्वानों के सहाय से जल वा प्राणों की परीक्षा करके उनसे उपयोग लेवें। शत्रुओं को निवृत्त करके प्रजा के साथ प्राणों के समान प्रीति से वर्त्तें और इन जल तथा प्राणों से उपकार लेवें॥१॥

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    विषय

    राजा व प्रजा

    पदार्थ

    इस अध्याय के प्रथम सतरह मन्त्रों का ऋषि ‘वरुण’ है। ‘वरुण’ के दो अर्थ हैं [ क ] जो चुनते हैं, और [ ख ] जो चुना जाता है। जब चुनाव का समय आता है उस समय ( देवाः ) = चुनाव में जीतने की कामनावाले [ दिव् = विजिगीषा ] उम्मीदवार [ candidates ] ( अपः ) = प्रजाओं को ( अगृभ्णन् ) = इकट्ठा करते हैं, उनकी सभा बुलाते हैं। जिससे प्रजाएँ उम्मीदवार के भाषण से उसकी योग्यता व अयोग्यता का आभास ले-सकें। ये प्रजाएँ १. ( मधुमतीः ) = माधुर्यवाली हैं। इन प्रजाओं के अन्दर कटुता नहीं है। वोट देनेवालों में द्वेषादि के भाव कार्य न करते हों। यदि वे द्वेषादि से प्रेरित होकर चुनाव में भाग लेंगे तो चुनाव ग़लत ही होगा। 

    २. ( उर्जस्वतीः ) = ये बल और प्राणशक्तिवाली हैं। बीमार व्यक्ति स्वस्थ मन से कार्य नहीं कर सकता। 

    ३. ( राजस्वः ) = ये राजा को जन्म देनेवाली हैं। इन्हें यह समझ है कि हमें शासन के लिए अपने में से ही एक व्यक्ति को राजा चुनना है। राजा ने कहीं बाहर से नहीं आना। 

    ४. ( चितानाः ) = ये प्रजाएँ चेतना—संज्ञानवाली हैं, सामान्यतः अपना हिताहित समझती हैं। ५. ये प्रजाएँ वे हैं ( याभिः ) = जिनसे ( मित्रावरुणौ ) = मित्र और वरुण का ( अभ्यषिञ्चन् ) = अभिषेक होता है, अर्थात् उस व्यक्ति को शासनाधिकार सौंपा जाता है जो सबके साथ स्नेह करनेवाला है और द्वेष के निवारण के लिए प्रयत्नशील होता है। प्रजाएँ जिसका चुनाव करें उसकी प्रथम विशेषता यही होनी चाहिए कि यह स्नेह की वृद्धि व द्वेष के दूरीकरण के लिए प्रयत्नशील हो। 

    ६. ये प्रजाएँ वे हैं ( याभिः ) = जो ( इन्द्रम् ) = जितेन्द्रिय—विषयों में अनासक्त राजा को ( अरातीः ) = शत्रुओं के ( अतिअनयन् ) = पार ले-जाती हैं। जब प्रजाएँ राजा के साथ होती हैं तो राजा के पराजय की आशंका नहीं होती।

    भावार्थ

    भावार्थ — चुनाव की अधिकारिणी प्रजा वह है जो माधुर्यवाली, शक्तिशाली, समझदार, अर्थात् हिताहित को समझनेवाली है तथा राजा बनने के योग्य वह है जो स्नेह, निर्द्वेषता व जितेन्द्रियता से युक्त है।

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    विषय

    अभिषेक करने हारे योग्य जलों की प्रजाओं से तुलमा।

    भावार्थ

    ( देवा: ) देव, विद्वान् पुरुष ( मधुमती : अपः ) मधुर गुण- चाले जलों के समान ( मधुमतीः ) ज्ञान और बल, क्रियाशक्ति से युक्त (अपः) आप्त प्रजाजनों को ( अगृभ्णन् ) ग्रहण करते हैं। जो स्वयं ( ऊर्जस्वती: ) अनादि समृद्धिवाले ( चितानाः ) ज्ञानवाले या विवेक से कार्य करनेवाले हैं और ( राजस्वः ) राजा को बनाने या उसके अभिषेक- - करने में समर्थ हैं। (याभिः ) जिनके बल से ( देवाः ) विजिगीषु, विद्वान् पुरुष ( मित्रावरुणौ ) मित्र और वरुण दोनों का ( अभिषिन्छन् ) अभिषेक करते हैं । और ( याभि: ) जिनसे ( इन्द्रम् ) ऐश्वर्यवान् राजा- -को ( अरातीः ) कर न देनेवाले समस्त शत्रुओं के ( अति अनयन् ) ऊपर विजय प्राप्त कराते हैं । शतः ५। । ३।४।३॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वरुण ऋषिः । आपोः देवताः । निचृदार्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    विषय

    अब मनुष्य विद्वानों का अनुकरण करके पदार्थों से उपयोग ग्रहण करें, यह उपदेश किया है।।

    भाषार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम (देवाः) विद्वान् लोग (याभिः) जिन क्रियाओं से (मित्रावरुणौ) प्राण और उदान को (अभ्यसिञ्चन्) सींचते हैं, और (याभिः) जिन क्रियाओं से (इन्द्रम्) विद्युत् को तथा (अरातीः) शत्रुओं को (अति+अनयन्) ग्रहण करते हैं, उन क्रियाओं से (मधुमतीः) प्रशस्त मधुर आदि गुणों से युक्त (ऊर्जस्वतीः) बल-पराक्रम को प्रदान करने वाले, (चितानाः) चेतना देने वाले (राजस्वः) राजा बनाने वाले (अपः) जल वा प्राणों को (अगृभ्णन्) ग्रहण करो ।। १० । १ ।।

    भावार्थ

    मनुष्य विद्वानों की सहायता से जल की परीक्षा करके उसका उपयोग करें, शत्रुओं का निवारण करके प्रजा के साथ प्राणों के समान प्रियभाव से वर्ताव करें, जल से उपकार ग्रहण करें ।। १० । १ ।।

    प्रमाणार्थ

    (चितानाः) यहाँ विकरण का लुक् और व्यत्यय से आत्मनेपद है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (५ । ३।४।२-३) में की गई है ।। १० । १ ।।

    भाष्यसार

    मनुष्य विद्वानों का अनुकरण करके पदार्थों से उपयोग लें--जैसे विद्वान् लोग प्राणायाम आदि क्रियाओं से प्राण और उदान को बढ़ाते हैं, शिल्प क्रियाओं से विद्युत् को प्राप्त करते हैं, शत्रुओं का निवारण करते हैं, प्रशस्त मधुर आदि गुणों से युक्त, बल पराक्रम को प्रदान करने वाले, संज्ञा (चेतना) को उत्पन्न करने वाले, अभिषेक से राजा को उत्पन्न करने वाले जल को ग्रहण करते हैं, वैसे सब मनुष्य विद्वानों का अनुकरण करें। उनकी सहायता से जल आदि पदार्थों का परीक्षापूर्वक उपयोग करें, उनसे उपकार ग्रहण करें। राजा लोग शत्रुओं का निवारण करके प्रजा के साथ प्राणों के समान प्रियभाव से वर्ताव करें ।। १० । १ ।।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    माणसांनी विद्वानांच्या साह्याने जलाची परीक्षा करून व प्राणशक्तीला जाणून त्यांचा उपयोग करून घ्यावा. शत्रूंचे निवारण करून प्रजेबरोबर प्रेमाने (प्राण जसे प्रिय असतात तसे) वागावे व जल आणि प्राण यांच्यापासून लाभ घ्यावा.

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    विषय

    दहावा अध्याय आरंभ^यानंतर दहाव्या अध्यायाच्या पहिल्या मंत्रात हा उपदेश केला आहे की मनुष्यांनी विद्वज्जनांच्या मार्गाचे अनुकरण करावे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - परमेश्वराचा सर्व मानवांना अथवा एक विद्वानाचा सामान्यजनांना उपदेश) हे मनुष्यांनो, (देवा:) कुशल विद्वानजन (यभि:) ज्या क्रियांद्वारे वा आचरणाद्वारे (मित्रावरूणौ) प्राणवायू आणि उदानवायूला (अभ्यिसिंचन्) सर्वप्रकारे सिंचित करतात(प्राण, उदान वायूंची शक्ती वाढवून कार्यसिद्धी करतात) तसेच विद्वज्जन ज्या क्रियांद्वारे (इन्द्रम्) विद्युत शक्तीचा उपयोग करून (अराती:) शत्रूंना (अनयन्) जिंकतात, त्या क्रिया आणि पद्धतीने तुम्ही सर्वजण (मधुमती:) प्रशंसनीय माधुर्यगुण आणि (उर्जस्वती:) बल-पराक्रम वाढविण्यासाठी (चिताना:) चैतन्य आणण्यासाठी (राजस्व:) ज्ञान आणि उत्कर्ष देणार्‍या (अप:) पाण्याचा अथवा प्राणशक्तीचा (अगृभ्णन्) ग्रहण करा (जल आणि शरीरातील प्राणशक्ती यांच्या समुचित उपयोगाने राज्याचा उत्कर्ष साध्य करा. ॥1॥

    भावार्थ

    भावार्थ - मनुष्यांनी विद्वज्जनांच्या (वैज्ञानिकांच्या) साहाय्याने पाण्याविषयी संशोधन-परीक्षण करून तसेच प्राणशक्ती वाढवून, त्यांपासून लाभ द्यावेत अशा रीतीने शत्रूला दूर ठेऊन जसे प्राण आपणास प्रिय असतात, त्याप्रमाणे प्रजेशी प्रीतीपूर्वक आचरण करावे. जल आणि प्राणांचा योग्य तो उपयोग घ्यावा ॥1॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O wise persons, the means through which ye control breath, create electric power, and conquer foes, should also be employed to acquire sweet, strength-infusing, refreshing, and sovereignty-bestowing waters.

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    Meaning

    Noble men of wisdom and virtue obtain waters/ energies, sweet, invigorating, illuminating and enlightening by which they strengthen, cleanse and consecrate their prana, udana, and electric vitalities and ward off all conflicts and negativities of life.

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    Translation

    The enlightened ones obtain the waters, tasting sweet as honey, invigorating, glittering and restoring consciousness, wherewith they consecrate the friendly Lord and the venerable Lord and wherewith they lead the resplendent Lord overwhelming the enemies. (1)

    Notes

    Apah, waters. Rajasvah, glittering: also, राजानं सुंवंति जनंति ता राजस्व:. those which create a king. Citanah,चेतयमाना:, restoring consciousness, Atyarafih, overwhelming the enemies.

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    बंगाली (1)

    विषय

    ॥ ও৩ম্ ॥
    দশমাধ্যায়ারম্ভঃ
    ও৩ম্ বিশ্বা॑নি দেব সবিতর্দুরি॒তানি॒ পরা॑ সুব । য়দ্ভ॒দ্রং তন্ন॒ऽআ সু॑ব ॥ য়জুঃ৩০.৩ ॥
    অথ মনুষ্যৈর্বিদুষামনুকরণেন পদার্থেভ্য উপয়োগো গ্রাহ্য ইত্যাহ ॥
    ইহার পশ্চাৎ এই দশম অধ্যায়ের প্রথম মন্ত্রে মনুষ্যগণ বিদ্বান্দিকের অনুকূল চলুক, এই বিষয়ের উপদেশ করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! তোমরা (দেবাঃ) চতুর বিদ্বান্গণ (য়াভিঃ) যে সব ক্রিয়াগুলির দ্বারা (মিত্রাবরুণৌ) প্রাণ তথা উদান কে (অভ্যসিঞ্চন্) সর্ব প্রকারে সিঞ্চন কর এবং যে সব ক্রিয়াগুলির দ্বারা (ইন্দ্রম্) বিদ্যুৎকে প্রাপ্ত এবং (অরাতীঃ) শত্রুদিগকে (অনয়ন্) জয় কর সেই সব ক্রিয়াগুলির দ্বারা (মধুমতীঃ) প্রশংসনীয় মধুরাদি গুণযুক্ত (ঊর্জস্বতীঃ) বল-পরাক্রম বৃদ্ধিকারী (চিতানাঃ) চেতনতা প্রদানকারী এবং (রাজস্বঃ) জ্ঞান-প্রকাশ-যুক্ত রাজ্যকে প্রাপ্ত করিবার (অপঃ) জল বা প্রাণসকলকে (অগৃভ্ণম্) গ্রহণ কর ॥ ১ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- মনুষ্যদিগের উচিত যে, বিদ্বান্দিগের সাহায্য বলে জল বা প্রাণসকলের রক্ষা করিয়া তদ্দ্বারা উপযোগ লইবে । শত্রুদিগকে নিবৃত্ত করিয়া প্রজা সহ প্রাণসকলের সমান প্রীতি পূর্বক ব্যবহার করিবে এবং এই সব জল ও প্রাণ সকলের দ্বারা উপকার লইবে ॥ ১ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অ॒পো দে॒বা মধু॑মতীরগৃভ্ণ॒ন্নূর্জ॑স্বতী রাজ॒স্ব᳕শ্চিতা॑নাঃ ।
    য়াভি॑র্মি॒ত্রাবর॑ুণাব॒ভ্যষি॑ঞ্চ॒ন্ য়াভি॒রিন্দ্র॒মন॑য়॒ন্নত্যরা॑তীঃ ॥ ১ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অপো দেবা ইত্যস্য বরুণ ঋষিঃ । আপো দেবতাঃ । নিচৃদার্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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