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यजुर्वेद अध्याय - 39
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  • यजुर्वेद - अध्याय 39/ मन्त्र 1
    ऋषि: - दीर्घतमा ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
    164

    स्वाहा॑ प्रा॒णेभ्यः॒ साधि॑पतिकेभ्यः। पृ॒थि॒व्यै स्वाहा॒ऽग्नये॒ स्वाहा॒ऽन्तरि॑क्षाय॒ स्वाहा॑ वा॒यवे॒ स्वाहा॑। दि॒वे स्वाहा॒। सूर्या॑य॒ स्वाहा॑॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्वाहा॑। प्रा॒णेभ्यः॑। साधि॑पतिकेभ्य॒ इति॒ साधि॑ऽपतिकेभ्यः ॥ पृ॒थि॒व्यै। स्वाहा॑। अग्नये॑। स्वाहा॑। अ॒न्तरि॑क्षाय। स्वाहा॑। वायवे॑। स्वाहा॑। दि॒वे। स्वाहा॑। सूर्य्या॑य। स्वाहा॑ ॥१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वाहाप्राणेभ्यः साधिपतिकेभ्यः पृथिव्यै स्वाहेग्नये स्वाहेन्तरिक्षाय स्वाहा वायवे स्वाहा । दिवे स्वाहा । सूर्याय स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    स्वाहा। प्राणेभ्यः। साधिपतिकेभ्य इति साधिऽपतिकेभ्यः॥ पृथिव्यै। स्वाहा। अग्नये। स्वाहा। अन्तरिक्षाय। स्वाहा। वायवे। स्वाहा। दिवे। स्वाहा। सूर्य्याय। स्वाहा॥१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 39; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथान्त्येष्टिकर्मविषयमाह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! युष्माभिः साधिपतिकेभ्यः प्राणेभ्यः स्वाहा पृथिव्यै स्वाहाऽग्नये स्वाहाऽन्तरिक्षाय स्वाहा वायवे स्वाहा दिवे स्वाहा सूर्याय स्वाहा च यथावत् संप्रयोज्या॥१॥

    पदार्थः

    (स्वाहा) सत्या क्रिया (प्राणेभ्यः) जीवनहेतुभ्यः (साधिपतिकेभ्यः) अधिपतिना जीवेन सह वर्त्तमानेभ्यः (पृथिव्यै) भूम्यै (स्वाहा) सत्या वाक् (अग्नये) पावकाय (स्वाहा) (अन्तरिक्षाय) आकाशे गमनाय (स्वाहा) (वायवे) वायुप्राप्तये (स्वाहा) (दिवे) विद्युत् प्राप्तये (स्वाहा) (सूर्याय) सवितृप्रापणाय (स्वाहा)॥१॥

    भावार्थः

    अस्मिन्नध्यायेऽन्त्येष्टिर्यस्या नृमेधः पुरुषमेधो दाहकर्मेत्यनर्थान्तरं नामोच्यते। यदा कश्चिन्म्रियेत तदा शरीरभारेण तुल्यं घृतं गृहीत्वा तत्र प्रतिप्रस्थमेकरक्तिकामात्रां कस्तूरीं माषकमात्रं केसरं चन्दनादीनि काष्ठानि च यथायोग्यं संभृत्य यावानूर्ध्वबाहुकः पुरुषस्तावदायामप्रमितां सार्द्धत्रिहस्तमात्रामुपरिष्टाद्विस्तीर्णां तावद् गभीरां वितस्तिमात्रामर्वाग्वेदीं निर्मायाऽधस्तादर्धमात्रां समिद्भिः प्रपूर्य्य तदुपरि शवं निधाय पुनः पार्श्वयोरुपरिष्टाच्च सम्यक् समिधः सञ्चित्य वक्षःस्थलादिषु कर्पूरं संस्थाप्य कर्पूरेण प्रदीप्तमग्निं चितायां प्रवेश्य यदा प्रदीप्तोऽग्निर्भवेत् तदैतैः स्वाहान्तैरेतदध्यायस्थैर्मन्त्रैः पुनः पुनरनुवृत्त्या घृतं हुत्वा शवं सम्यक् प्रदहेयुरेवं कृते दाहकानां यज्ञफलं प्राप्नुयान्न कदाचिच्छवं भूमौ निदध्युर्नारण्ये त्यजेयुर्न जले निमज्जयेयुर्विना दाहेन सम्बन्धिनो महत्पापं प्राप्नुयुः। कुतः? प्रेतस्य विकृतस्य शरीरस्य सकाशादधिकदुर्गन्धोन्नतेः प्राण्यप्राणिष्वसंख्यरोगप्रादुर्भावात् तस्मात् पूर्वोक्तविधिना शवस्य दाह एव कृते भद्रम्, नान्यथा॥१॥

    हिन्दी (1)

    विषय

    अब उनतालीसवें अध्याय का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में अन्त्येष्टि कर्म का विषय कहते हैं॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! तुमको योग्य है कि (साधिपतिकेभ्यः) इन्द्रियादि के अधिपति जीव के साथ वर्त्तमान (प्राणेभ्यः) जीवन के तुल्य प्राणों के लिये (स्वाहा) सत्यक्रिया (पृथिव्यै) भूमि के लिये (स्वाहा) सत्यवाणी (अग्नये) अग्नि के अर्थ (स्वाहा) सत्यक्रिया (अन्तरिक्षाय) आकाश में चलने के लिये (स्वाहा) सत्यवाणी (वायवे) वायु की प्राप्ति के अर्थ (स्वाहा) सत्यक्रिया (दिवे) विद्युत् की प्राप्ति के अर्थ (स्वाहा) सत्यवाणी और (सूर्य्याय) सूर्य्यमण्डल की प्राप्ति के लिये (स्वाहा) सत्यक्रिया को यथावत् संयुक्त करो॥१॥

    भावार्थ

    इस अध्याय में अन्त्येष्टिकर्म जिसको नरमेध, पुरुषमेध और दाहकर्म भी कहते हैं। जब कोई मनुष्य मरे तब शरीर की बराबर तोल घी लेकर उस में प्रत्येक सेर में एक रत्ती कस्तूरी, एक मासा केसर और चन्दन आदि काष्ठों को यथायोग्य सम्हाल के जितना ऊर्ध्वबाहु पुरुष होवे, उतनी लम्बी, साढ़े तीन हाथ चौड़ी और इतनी ही गहरी, एक बिलस्त नीचे तले में वेदी बनाकर, उसमें नीचे से अधवर तक समिधा भरकर, उस पर मुर्दे को धर कर, फिर मुर्दे के इधर-उधर और ऊपर से अच्छे प्रकार समिधा चुन कर, वक्षःस्थल आदि में कपूर धर, कपूर से अग्नि को जलाकर, चिता में प्रवेश कर जब अग्नि जलने लगे, तब इस अध्याय के इन स्वाहान्त मन्त्रों की बार-बार आवृत्ति से घी का होम कर मुर्दे को सम्यक् जलावें। इस प्रकार करने में दाह करनेवालों को यज्ञकर्म के फल की प्राप्ति होवे। और मुर्दे को न कभी भूमि में गाड़ें, न वन में छोड़ें, न जल में डुबावें, बिना दाह किये सम्बन्धी लोग महापाप को प्राप्त होवें, क्योंकि मुर्दे के बिगड़े शरीर से अधिक दुर्गन्ध बढ़ने के कारण चराचर जगत् में असंख्य रोगों की उत्पत्ति होती है, इससे पूर्वोक्त विधि के साथ मुर्दे के दाह करने में ही कल्याण है, अन्यथा नहीं॥१॥

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या अध्यायात अन्त्येष्टिकर्म अर्थात ज्याला नरमेध पुरुषमेध किंवा दाहकर्म म्हटले जाते त्याचे वर्णन आहे. जेव्हा एखाद्या माणसाचा मृत्यू होतो तेव्हा त्याच्या शरीराच्या वजनाइतके तूप घेऊन त्यात प्रत्येक शेराला एक गुंज कस्तुरी, एक मासा केशर व चंदन इत्यादींसह काष्ठ यथायोग्यरीत्या घेऊन जसा पुरुष असेल तितकी लांब, साडेतीन हात रुंद, तितकीच खोल वेदी बनवून त्यात खालून वरपर्यंत समिधा ठेवाव्या व त्यावर प्रेत ठेवावे. प्रेताच्या इकडेतिकडे, वर सगळीकडे समिधा ठेऊन छातीवर कापूर ठेऊन अग्नी प्रज्वलित करावा व चिता पेटवावी. जेव्हा अग्नी जळू लागेल तेव्हा या अध्यायातील स्वाहांत मंत्रांची वारंवार आवृत्ती करावी व तूपाने प्रेत जाळावे. या प्रकारे दाहकर्म करणाऱ्यांना यज्ञकर्माच्या फळाची प्राप्ती होते. प्रेताचे भूमीत दफन कधीही करू नये. प्रेत वनात सोडू नये किंवा पाण्यात बुडवू नये. दाह न केल्यास संबंधित लोकांना महापाप लागते. कारण मृत शरीरापासून अधिक दुर्गंध वाढल्यास पूर्ण जगात असंख्य रोगांची उत्पत्ती होते. म्हणून पूर्वोक्त विधीनुसार प्रेताचा दाहसंस्कार केल्याने कल्याण होते. अन्यथा कल्याण होत नाही.

    English (2)

    Meaning

    Swaha to the vital breathings with their controlling lord, the soul. To earth Swaha ! To Agni Swaha ! To Firmament Swaha ! To Vayu Swaha ! To Sky Swaha ! To Surya Swaha !

    Meaning

    This oblation is for the pranas, companions of the soul, (at the end of life when the pranas merge with the universal prana). This oblation is for the earth. This is for the fire. This is for the sky. This is for the air. This is for the heaven. This is for the sun. This is the end of life in truth of word and deed. (The divinities of nature take their portion of the temporal existence of the human being when death overtakes life. )

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