अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 15/ मन्त्र 4
ऋषिः - अथर्वा
देवता - सिन्धुसमूहः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - पुष्टिकर्म सूक्त
85
ये स॒र्पिषः॑ सं॒स्रव॑न्ति क्षी॒रस्य॑ चोद॒कस्य॑ च। तेभि॑र्मे॒ सर्वैः॑ संस्रा॒वैर्धनं॒ सं स्रा॑वयामसि ॥
स्वर सहित पद पाठये । स॒र्पिष॑: । स॒म्ऽस्रव॑न्ति । क्षी॒रस्य॑ । च॒ । उ॒द॒कस्य॑ । च॒ । तेर्भि॑: । मे॒ । सर्वै॑: । स॒म्ऽस्रा॒वै: । धन॑म् । सम् । स्रा॒व॒या॒म॒सि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ये सर्पिषः संस्रवन्ति क्षीरस्य चोदकस्य च। तेभिर्मे सर्वैः संस्रावैर्धनं सं स्रावयामसि ॥
स्वर रहित पद पाठये । सर्पिष: । सम्ऽस्रवन्ति । क्षीरस्य । च । उदकस्य । च । तेर्भि: । मे । सर्वै: । सम्ऽस्रावै: । धनम् । सम् । स्रावयामसि ॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ऐश्वर्य की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ
(सर्पिषः) घृत की (च) और (क्षीरस्य) दूध की (च) और (उदकस्य) जल की (ये) जो धाराएँ (संस्रवन्ति) मिलकर बह चलती हैं। (तैः सर्वैः) उन सब (संस्रावैः) धाराओं के साथ (मे) अपने (धनम्) धनको (सम्) उत्तम रीति से (स्रावयामसि) हम व्यय करें ॥४॥
भावार्थ
जैसे घी, दूध और जल की बूँद-बूँद मिलकर धारें बँध जाती और उपकारी होती हैं, इसी प्रकार हम लोग उद्योग करके थोड़ा-थोड़ा संचय करने से बहुत सा विद्या, धन और सुवर्ण आदि धन प्राप्त करके उत्तम कामों में व्यय करें ॥४॥
टिप्पणी
४−ये। संस्रावाः प्रवाहाः। सर्पिषः। अर्चिशुचिहुसृपि०। उ० २।१०८। इति सृप गतौ=सर्पणे-इसि। सर्पणशीलस्य द्रवणस्वभावस्य घृतस्य। क्षीरस्य-घसेः किच्च। उ० ४।३४। इति घस=अद भक्षणे−ईरन्, उपधालोपे कत्वं षत्वं च। दुग्धस्य। उदकस्य−उदकं च। उ० २।३९। इति उन्दी क्लेदने−क्वुन्, युवोरनाकौ। पा० ७।१।१। इति अकादेशः। जलस्य। अन्यद् व्याख्यातं म० ॥४॥
विषय
घी, दूध की नदियों
पदार्थ
१. (ये) = जो (सर्पिषः संस्त्रवन्ति) = घृत के प्रवाह मिलकर चलते हैं। एक-एक बूंद ने क्या बहना? इसीप्रकार (क्षीरस्य च) = जो दूध के प्रवाह बहते हैं और (उदकस्य च) = पानी के प्रवाह भी बहते हैं, इनमें भी एक-एक बूंद को तो नष्ट ही हो जाना था। इसप्रकार (मे) = मेरे (तेभिः सर्वैः संस्त्रावैः) = उन सब मिलकर बहनेवाले प्रवाहों से (धनम्) = धन को (संस्त्रावयामसि) = संस्तुत करते हैं। २. एक घर को 'घृत, दुग्ध व जल' के प्रवाह ही धन्य बनाते हैं। घर वही उत्तम है, जहाँ इन वस्तुओं की कमी न हो। इनकी कमी न होने पर मनुष्य सबल, स्वस्थ व सुन्दर शरीरवाला बनकर धनार्जन के योग्य बनता है। २. यहाँ प्रसङ्गवश यह सङ्केत भी ध्यान देने योग्य है कि जहाँ सङ्गठन व मेल होता है वहाँ घृत व दूध आदि की नदियाँ बहती हैं, वहाँ निर्धनता के कारण इन वस्तुओं का अभाव नहीं होता।
भावार्थ
मेल में ही स्वर्ग है, घी-दूध की नदियों का प्रवाह मेल में ही है।
विशेष
इस सूक्त में नदियों, वायुओं व पक्षिगणों के उदाहरण से मेल के महत्त्व को स्पष्ट किया गया है [१]। सङ्गठन-यज्ञों में हम पशुभाव को नष्ट करने का प्रयत्न करें [२]। सङ्गठन में ही धन है [३], वहीं घी, दूध की नदियों का प्रवाह है [४]। ऐसे सङ्गठनवाले समाज में चोर नहीं होते। यह समाज चोरों का नाश करनेवाला होता है, अत: 'चातन' [चातयति नाशयति] कहलाता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है।
भाषार्थ
(ये) जो उत्सा: (सर्पिषः) आज्य के, ( च क्षीरस्य) और दूध के, (उदकस्य च) और उदक के (संस्रवन्ति) सम्यक् प्रवाहित होते हैं, (तेभि: मे सर्वे: संस्रावैः) उन मेरे सब संस्रावों अर्थात् प्रवाहों द्वारा, (धनम्) धन को (संस्रावयामसि) हम परस्पर मिलकर प्रवाहित करते हैं, प्रभूत रूप में पैदा करते हैं ।
टिप्पणी
[सर्पिः, दूध द्वारा तथा पशुओं की सहायता द्वारा कूपों से उद्धृत उदक के सेचन से प्राप्त, कृष्यन्न तो, स्वयं धन रूप है तथा इनके विक्रय से भी धनप्राप्ति होती है।]
विषय
गमनागमन के साधन
भावार्थ
( सर्पिषः ) घृत के (क्षोरस्य च) और दुग्ध के (ये) जो प्रवाह अर्थात गो बकरी आदि पशु के रूप में ( उदकस्य च ) और जल के जो प्रवाह, नदी आदि के रूप में ( सं स्रवन्ति ) वह रहे हैं ( तेभिः मे सर्वैः संस्रावैः ) अपने उन सब प्रवाहों द्वारा हम ( धनं संस्रावयामसि) बल तथा शक्ति रूप धन और प्राकृतिक धन को बढ़ाते और फैलाते रहें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। सिन्धुर्देवता । १, ३, ४ अनुष्टुप् छन्दः। २ भुरिक्पथ्यापंक्तिः। चतुऋचं सूक्तम् ।
इंग्लिश (4)
Subject
Joint Power
Meaning
Whatever confluent streams of ghrta, milk and water in the form of world resources, by all those streams we augment and raise the world’s wealth together for ourselves.
Translation
The streams of melted butter, of milk, and of water flow to meet together, with all those confluent streams may you make riches flow converging towards me.
Translation
Whatever streams of ghee, milk and water flow incessantly in our nation we take use of them and with all these confluent streams we make riches flow here abundantly.
Translation
All these streams of melted butter (ghee) of milk and water, which flow together with all these confluent streams of ours we make abundant riches flow.
Footnote
Money can be earned through agriculture, navigation, and rearing mammals.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−ये। संस्रावाः प्रवाहाः। सर्पिषः। अर्चिशुचिहुसृपि०। उ० २।१०८। इति सृप गतौ=सर्पणे-इसि। सर्पणशीलस्य द्रवणस्वभावस्य घृतस्य। क्षीरस्य-घसेः किच्च। उ० ४।३४। इति घस=अद भक्षणे−ईरन्, उपधालोपे कत्वं षत्वं च। दुग्धस्य। उदकस्य−उदकं च। उ० २।३९। इति उन्दी क्लेदने−क्वुन्, युवोरनाकौ। पा० ७।१।१। इति अकादेशः। जलस्य। अन्यद् व्याख्यातं म० ॥४॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(সর্পিষঃ) ঘৃতের (চ) এবং (ক্ষীরস্য) দুগ্ধের (চ) এবং (উদবস্য) জলের (য়) যে ধারা (সংস্রবন্তি) মিলিত ভাবে রহিয়া চলে (তৈঃ সর্বৈঃ) সে সব (সংস্রাবৈঃ) ধারার সহিত (মে) আমার (ধনং) ধনকে (সম্) উত্তম রীতিতে (স্রাবয়ামসি) ব্যয় করি।
भावार्थ
ঘৃতের, দুগ্ধের ও জলের যে সব ধারা মিলিত ভাবে রহিয়া চলেম সেই সব ধারার সহিত মিলিয়া আমরাও স্বীয় ধনকে সদ্ভাবে ব্যয় করি।।
ঘৃত, দুগ্ধ ও জলের ধারা চিরকাল ধরিয়া প্রবাহিত রহিয়াছে। আমাদের ধনেরও এইরূপ সদ্ব্যবহার করিব, ইহাও নিঃশেষ হইবে না।।
मन्त्र (बांग्ला)
য়ে সর্পিষঃ সংস্রবন্তি ক্ষীরস্য চোদকস্যচ। তেভির্মে সর্বৈঃ সংস্রাবৈর্ধনং সংস্রাবয়ামসি।।
ऋषि | देवता | छन्द
অর্থবা। সিদ্ধাদয়ো মন্ত্রোক্তাঃ। অনুষ্টুপ্
मन्त्र विषय
(ঐশ্বর্যপ্রাপ্ত্যুপদেশঃ) ঐশ্বর্য প্রাপ্তির উপদেশ
भाषार्थ
(সর্পিষঃ) ঘৃতের (চ) এবং (ক্ষীরস্য) দুধের (চ) এবং (উদকস্য) জলের (যে) যে ধারাসমূহ (সংস্রবন্তি) মিলিত হয়ে/একসাথে প্রবাহিত হয়, (তৈঃ সর্বৈঃ) সেই সব (সংস্রাবৈঃ) ধারার সাথে (মে) নিজের (ধনম্) ধনকে (সম্) উত্তম রীতিতে (স্রাবয়ামসি) আমরা ব্যয় করবো ॥৪॥
भावार्थ
যেরূপ ঘী, দুধ এবং জলের বিন্দু-বিন্দু মিলে ধারা তৈরি হয় এবং উপকারী হয়, সেরূপ আমরা উদ্যোগী হয়ে অল্প-অল্প সঞ্চয় করার মাধ্যমে বহু বিদ্যা, ধন এবং সুবর্ণ আদি ধন প্রাপ্ত করে উত্তম কর্মসমূহে ব্যয় করবো ॥৪॥
भाषार्थ
(যে) যে উৎস (সর্পিষঃ) আজ্যের, (চ ক্ষীরস্য) ও দুধের, (উদকস্য চ) এবং উদকের (সংস্রবন্তি) সম্যক প্রবাহিত হয়, (তেভিঃ মে সর্বৈঃ সংস্রাবৈঃ) আমার সেই সমস্ত সংস্রাব অর্থাৎ প্রবাহের দ্বারা, (ধনম্) ধনকে (সংস্রাবয়ামসি) আমরা পরস্পর মিলে প্রভূত রূপে উৎপন্ন করে প্রবাহিত করি।
टिप्पणी
[সর্পিঃ, দুধ দ্বারা ও পশুদের সহায়তা দ্বারা কূপ থেকে উদ্ধৃত উদক/জল এর সেবনে প্রাপ্ত, কৃষ্যন্ন তো, স্বয়ং ধনরূপ এবং এর বিক্রয়েও ধনপ্রাপ্তি হয়]॥
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