अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 18/ मन्त्र 2
ऋषिः - द्रविणोदाः
देवता - विनायकः
छन्दः - निचृज्जगती
सूक्तम् - अलक्ष्मीनाशन सूक्त
87
निरर॑णिं सवि॒ता सा॑विषक्प॒दोर्निर्हस्त॑यो॒र्वरु॑णो मि॒त्रो अ॑र्य॒मा। निर॒स्मभ्य॒मनु॑मती॒ ररा॑णा॒ प्रेमां दे॒वा अ॑साविषुः॒ सौभ॑गाय ॥
स्वर सहित पद पाठनि:। अर॑णिम् । स॒वि॒ता । सा॒वि॒ष॒क् । प॒दो: । नि: । हस्त॑यो: । वरु॑ण: । मि॒त्र: । अ॒र्य॒मा । नि: । अ॒स्मभ्य॑म् । अनु॑ऽमति: । ररा॑णा । प्र । इ॒माम् । दे॒वा: । अ॒सा॒वि॒षु॒: । सौभ॑गाय ॥
स्वर रहित मन्त्र
निररणिं सविता साविषक्पदोर्निर्हस्तयोर्वरुणो मित्रो अर्यमा। निरस्मभ्यमनुमती रराणा प्रेमां देवा असाविषुः सौभगाय ॥
स्वर रहित पद पाठनि:। अरणिम् । सविता । साविषक् । पदो: । नि: । हस्तयो: । वरुण: । मित्र: । अर्यमा । नि: । अस्मभ्यम् । अनुऽमति: । रराणा । प्र । इमाम् । देवा: । असाविषु: । सौभगाय ॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा के लिये धर्म का उपदेश।
पदार्थ
(सविता) [सबका चलानेहारा] सूर्य [सूर्यरूप तेजस्वी], (वरुणः) सबके चाहनेयोग्य जल [जलसमान शान्तस्वभाव], (मित्रः) चेष्टा देनेहारा वायु [वायु समान वेगवान् उपकारी], (अर्यमा) श्रेष्ठों का मान करनेहारा न्यायकारी राजा (अरणिम्) पीडा को (पदोः) दोनों पदों और (हस्तयोः) दोनों हाथों से (निः) निरन्तर (निः साविषत्) निकाल देवे। (रराणा) दानशीला (अनुमतिः) अनुकूल बुद्धि (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (निः=निः साविषत्) [पीडा को] निकाल देवे, (देवाः) उदार चित्तवाले महात्माओं ने (इमाम्) इस [अनुकूल बुद्धि] को (सौभगाय) बड़े ऐश्वर्य के लिये (प्र असाविषुः) भेजा है ॥२॥
भावार्थ
मन्त्रोक्त शुभ लक्षणोंवाला राजा और प्रजा परस्पर हितबुद्धि से और शुभचिन्तक महात्माओं के सहाय से क्लेशों का नाश करके सबका ऐश्वर्य बढ़ावें ॥२॥
टिप्पणी
टिप्पणी−सायणभाष्य में (अरणिम्) के स्थान में (अरणीम्) है और बंबई गवर्नमेन्ट के पुस्तक में लिखे] [साविषक्] के स्थान में सायणभाष्य में और अन्य दोनों पुस्तकों में (साविषत्) पद है, वही पाठ हमने रक्खा है। गवर्नमेन्ट पुस्तक में टिप्पणी है कि [साविषक्] शब्द शोधकर लिखा है, परन्तु यह अशुद्ध है, क्योंकि अथर्व० ६।१।३ में, ७।७७।७ में और ९।१५।४। में (सविता साविषत्) पाठ है, वही (सविता साविषत्) यहाँ भी शुद्ध है ॥ २−निर्। म० १। निश्चयेन। नितराम्। बहिर्भावे। अरणिम्। अर्त्तिसृधृ०। उ० २।१०२। ऋ हिंसने−अनि। आर्त्तिम्, पीडाम्। सविता। षूञ् प्रसवे प्रेरणे-तृच्। सर्वस्य प्रसविता=उत्पादकः। निरु० १०।१। सर्वप्रेरकः सूर्यः। निः+साविषत्। षूञ् प्रेरणे-लेट्। निःसुवतु, निःसारयतु। पदोः। पद्दन्नोमास्०। पा० ६।१।६३। इति पादशब्दस्य पद् आदेशः। पादयोः सकाशात्। हस्तयोः। हसिमृग्रिण्वामि०। उ० ३।८६। इति हस विकाशे-तन्। करयोः सकाशात्। वरुणः। १।३।३। वरणीयं जलम्। मित्रः। १।३।३। सर्वप्रेरको वायुः। अर्यमा। १।११।१। अर्यान् श्रेष्ठान् मिमीते मानयतीति। न्यायकारी राजा। अनुमतिः। अनु+मन ज्ञाने−क्तिन्। सम्मतिः। अनुकूला, सहायिका बुद्धिः। रराणा। रा दाने−कानच्। दानशीला। देवाः। पूज्याः, दातारः। प्र+असाविषुः। षूञ् प्रेरणे−लुङ्। प्रेरितवन्तः, दत्तवन्तः। सौभगाय। प्राणभृज्जातिवयोवचनोद्गात्रादिभ्योऽञ्। पा० ५।१।१२९। इति सुभग−भावे अञ्। ञ्नित्यादिर्नित्यम्। पा० ६।१।१९७। इति आद्युदात्तः। सुभगत्वाय, शोभनैश्वर्याय ॥
विषय
हाथ-पैरों की निर्दोषता
पदार्थ
१. (सविता) = सम्पूर्ण संसार को जन्म देनेवाला प्रभु (पदो:) = पाँवों में से (अरणिम्) = पीड़ा को (नि: साविषक्) = पूर्णरूपेण दूर करे, (हस्तयो:) = हाथों में से भी इस पीड़ा को (वरुण:) = वरुण, (मित्र:) = मित्र और (अर्यमा) = अर्यमा (निः) = दूर करे। पाँवों व हाथों में कमी आ जाने से सारी क्रियाएँ रुक जाती हैं। इन कमियों का दूरीकरण सविता, वरुण, मित्र व अर्यमा की कृपा से होता है। 'सविता' निर्माणात्मक कार्यों में लगे रहने का संकेत करता है, 'वरुण' द्वेष-निवारण की देवता है, 'मित्र: ' सबके साथ स्नेह की भावना को व्यक्त करता है, 'अर्यमा' [अरीन् यच्छति] काम
क्रोधादि शत्रुओं के नियमन को कह रहा है। एवं, हाथ-पाँवों के सब दोषों को दूर करने के लिए आवश्यक है कि [क] हम निर्माणात्मक कार्यों में लगे रहें । तोड़-फोड़ के विध्वंसक कार्यों को करनेवाले ही अपने हाथ-पैर विकृत कर बैठते हैं। [ख] इसी प्रसङ्ग में यह नितान्त आवश्यक है कि हम द्वेष न करें-सबके साथ स्नेह से चलें। [ग] इसके लिए अर्यमा बनने की आवश्यकता है। काम-क्रोध-लोभ का नियमन करने पर ही हम द्वेष से ऊपर उठकर प्रेम से वर्त्तनेवाले होते हैं। २. (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए (रराणा) = सब उत्कृष्ट भावों को देती हुई (अनुमतिः) = अनुकूल मति (नि:) = हमारे हाथों व पैरों से विकारों को दूर करे । प्रतिकूल मति विकृत भावों को पैदा करके अङ्गों की विकृति का कारण बनती है, अत: (इमाम्) = इस अनुकूल मति को सब (देवाः) = देव (प्र असाविषु:) = हमारे अन्दर उत्पन्न करें, जिससे (सौभगाय) = सौभग-सौन्दर्य हममें निवास करें।
भावार्थ
अशुभ लक्षणों को दूर करने के लिए और हाथ-पैरों के शुभ लक्षणों के लिए आवश्यकता है कि [क] हम निर्माण के कार्यों में लगे रहें, [ख] द्वेष न करें, [ग] स्नेहवाले हों, [घ] काम-क्रोध-लोभ को काबू करें, [ङ] अनुकूल मतिवाले हों, निराशा के विचारोंवाले न हों।
भाषार्थ
(सविता) वधू का प्रसवकर्ता पिता (पदोः) तेरे पैरों से (अरणिम्) अरमणीया चेष्टा को (निः साविषक= निःसाविषत्) निकल जाने को प्रेरित करे, (हस्तयोः) हाथों से (निः) निकल जाने को प्रेरित करे ( वरुण: )१ वरण करनेवाला (मित्रः) स्नेही ( अर्यमा) न्यायी [तेरा पति]। (अनुमतिः) आचार्यदेव के अनुकूल मतिवाली पत्नी (निः) अरमणीया चेष्टा को निकाल कर (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (रराणा) तुझे प्रदान करनेवाली हो। (देवाः) दिव्यगुणी अन्य सम्बन्धियों ने (इमाम् ) इस वधू को (सौभगाय) हमारे सौभाग्य के लिये (प्र असाविषुः) प्रेरित किया है। हमारे="वर के सम्बन्धियों के सौभाग्य के लिये"।
टिप्पणी
[मन्त्र में विवाहित वधू का वर्णन प्रतीत होता है। अनुमति है देवपत्नी। यथा "अनुमतिः राकेति देवपत्न्यौ इति नैरुक्ताः" (निरुक्त ११।३।३०)। वधू जब तक अल्पावस्था की है तब तक उसका पिता उसकी चेष्टाओं को नियन्त्रित करे। पढ़ने अर्थात विद्याध्ययन के लिये जब वह गुरुकुल में प्रविष्ट हुई है तब उसकी आचार्या उसकी चेष्टाओं का नियन्त्रण करे। विवाह हो जाने पर उसका वरण करनेवाला पति नियन्त्रण करे। निः साविषत्=षू प्रेरणे अस्मात् पञ्चमलकारे "लेटोऽडाटौ" (अष्टा० ३।४।९४) इति अडागमः। "सिब्बहुलम्" (अष्टा० ३।१।३४) इति सिप्। स च णिद् वक्तव्यः (अष्टा० ३।१।३४) इति वचनाद् अचो ञ्णिति (अष्टा० ७।२।११५) इति वृद्धिः । आर्धधातुकस्येड् वलादेः (अष्टा० ७।२।३५) इति सिपः इडागमः (सायण)।] [१. वृणोति वियते वाऽसौ वरुणः (उणा० ३।५३, दयानन्द)। वर-कन्या का वरण करता है, और कन्या द्वारा वर का वरण किया जाता है [यह अर्थ है अधिभौतिक दृष्टि में, न कि आध्यात्मिक दृष्टि में]
विषय
विवाह योग्य और अविवाह योग्य स्त्रियां।
भावार्थ
( सविता ) उत्पादक पिता ( पदोः ) कन्या के दोनों पैरों में वर्तमान ( अरणिम् ) वृथा अटन, इधर उधर घूमते रहने की आदत ( निः साविषत् ) निकाल दे, ( वरुणः मित्रः, अर्यमा ) वही पिता कभी दण्डरूप होकर, कभी मित्ररूप होकर, कभी दातृरूप होकर ( हस्तयोः ) कन्या के हाथों में वर्तमान (अरणिम्) अदान की, अथवा वृथा हाथों को चलाने की आदत को ( निः ) निकाल दे। (निः) ऐसी स्त्री जिसके कि हाथ पैर सधे हुए नहीं वह हमसे दूर रहे । ( अनुमतिः ) और पति के अनुकूल मति वाली ( रराणा ) सदा दान देने वाली स्त्री ( अस्यभ्यम् ) हमें प्राप्त हों। ( देवाः ) माता पिता और आचार्य देव बन कर ही ( इमाम् ) ऐसी कन्या को ( प्र असाविषुः ) उत्पन्न कर सकते हैं, (सौभगाय) ऐसी स्त्री घर के सौभाग्य के लिये हो ।
टिप्पणी
‘साविषक्’ इति निर्णयसागरीयः पाठः पदपाठानुमतश्च। ‘साविषत् इर्शितः’ सायणाभिमतः, अजमेरीयश्च पाठः। ‘अरणीम्’ इति पदपाठविरुद्धः सायणाभिमतः पाठः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
द्रविणोदाः ऋषिः। विनायको देवता। १ उपरिष्टाद् विराड् बृहती, २ निचृज्जगती, ३ विराड् आस्तारपंक्तिः त्रिष्टुप् । ४ अनुष्टुप् । चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Planning and Prosperity
Meaning
May Savita, cosmic creator’s natural inspiration and the parents in the home, Varuna, Mitra and Aryama, the teacher and our innate human sense of judgement and discrimination between truth and falsehood and between freedom and responsibility (Varuna), our friends and peer group and our sense of love and friendship with our rational sense of justice and reason (Mitra), and our passion for progress with our sense of purpose, direction and destination for life’s values (Aryama), may all these along with Anumati, creative wisdom, and the ‘Devas’, brilliant and generous divinities of nature and the wise and great people of the world, root out our sloth, negativity and adversity and inspire us with enthusiasm for the achievement of a dynamic peace and balanced prosperity. (This is our prayer as a prelude to planning and prosperity against adversity.)
Translation
The creator Lord (Savitr) has removed the pains out of her feet. The venerable Lord (Varuna), the friendly Lord (Mitra), and the Lord of justice (Aryaman) have removed the pains out of her hands. The bounteous favour (Anumati) has sent her out to us. The enlightened one (devah) have urged her to marital bliss.
Translation
Let the ruler who is inspirer of good spirit in subject, beloved by all, accepted by all and just in his administration, remove defector trouble (if any) from our hands and feet. He inspires unto us the sense of dexterity and munificence. The learned persons make this the policy of state for our prosperity.
Translation
Let father drive away from the feet of the girl, the ill habit of loitering about vainly. Let father as chastiser, friend and benefactor drive away from the hands of the girl, stinginess and the habit of moving them uselessly. Let that women remain far away from us whose hands and feet are not well trained and disciplined. May we secure a wife, who is obedient to the husband and charitably disposed. Noble parents alone can produce such a girl, for the prosperity of the family.
Footnote
In some texts, in place of साविषक we find साविषत्.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
टिप्पणी−सायणभाष्य में (अरणिम्) के स्थान में (अरणीम्) है और बंबई गवर्नमेन्ट के पुस्तक में लिखे] [साविषक्] के स्थान में सायणभाष्य में और अन्य दोनों पुस्तकों में (साविषत्) पद है, वही पाठ हमने रक्खा है। गवर्नमेन्ट पुस्तक में टिप्पणी है कि [साविषक्] शब्द शोधकर लिखा है, परन्तु यह अशुद्ध है, क्योंकि अथर्व० ६।१।३ में, ७।७७।७ में और ९।१५।४। में (सविता साविषत्) पाठ है, वही (सविता साविषत्) यहाँ भी शुद्ध है ॥ २−निर्। म० १। निश्चयेन। नितराम्। बहिर्भावे। अरणिम्। अर्त्तिसृधृ०। उ० २।१०२। ऋ हिंसने−अनि। आर्त्तिम्, पीडाम्। सविता। षूञ् प्रसवे प्रेरणे-तृच्। सर्वस्य प्रसविता=उत्पादकः। निरु० १०।१। सर्वप्रेरकः सूर्यः। निः+साविषत्। षूञ् प्रेरणे-लेट्। निःसुवतु, निःसारयतु। पदोः। पद्दन्नोमास्०। पा० ६।१।६३। इति पादशब्दस्य पद् आदेशः। पादयोः सकाशात्। हस्तयोः। हसिमृग्रिण्वामि०। उ० ३।८६। इति हस विकाशे-तन्। करयोः सकाशात्। वरुणः। १।३।३। वरणीयं जलम्। मित्रः। १।३।३। सर्वप्रेरको वायुः। अर्यमा। १।११।१। अर्यान् श्रेष्ठान् मिमीते मानयतीति। न्यायकारी राजा। अनुमतिः। अनु+मन ज्ञाने−क्तिन्। सम्मतिः। अनुकूला, सहायिका बुद्धिः। रराणा। रा दाने−कानच्। दानशीला। देवाः। पूज्याः, दातारः। प्र+असाविषुः। षूञ् प्रेरणे−लुङ्। प्रेरितवन्तः, दत्तवन्तः। सौभगाय। प्राणभृज्जातिवयोवचनोद्गात्रादिभ्योऽञ्। पा० ५।१।१२९। इति सुभग−भावे अञ्। ञ्नित्यादिर्नित्यम्। पा० ६।१।१९७। इति आद्युदात्तः। सुभगत्वाय, शोभनैश्वर्याय ॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(সবিতা) সূর্য তুল্য তেজস্বী (বরণঃ) জলের তুল্য শান্ত স্বভাব (মিত্রঃ) বায়ূর তুল্য হিতকারী (অর্য্যমা) ন্যায়বান রাজা (অরণিম্) পীড়াকে (পদোঃ) উভয়পদ ও (হন্তয়োঃ) উভয় হস্ত দ্বারা (নিঃ) নিরন্তর (নিঃ সাবিষৎ) দূর করুন। (ররাণা) দানশীল (অনুমতিঃ) অনুকূল বুদ্ধি (অস্মভ্যম্) আমাদের জন্য (নিঃ সাবিষৎ) পীড়াকে দূর করুক (দেবাঃ) বিদ্বানেরা (ইমাং) এই অনূকূল বুদ্ধিকে (সৌভগায়) ঐশ্বর্যের জন্য (প্র অসাবিষু) প্রদান করেন।।
भावार्थ
সূর্য তুল্য তেজস্বী, জল তুল্য শান্ত স্বভাব, বায়ু তুল্য হিতকারী ও ন্যায়বান রাজা বিঘ্ন ক্লেশ পীড়াকে উভয় পদ ও হস্ত দ্বারা বিদূরিত করুন। আমাদের দানশীলা অনুকূল বুদ্ধি আমাদের দুঃখ ক্লেশ পীড়াকে দূর করুক! বিদ্বানেরা এই অনুকূল বুদ্ধিকে আমাদের ঐশ্বর্য প্রাপ্তির জন্য প্রদান করেন।।
मन्त्र (बांग्ला)
নিররণিং সবিতা সাবিষৎ পদোণির্হস্তয়োবরুণো মিত্রো অর্রমা। নিরস্মভ্যমনুমতী ররাণা প্রেমাং দেবা অসাবিধুঃ সৌভগায়।।
ऋषि | देवता | छन्द
দ্রবিণোদাঃ। সবিত্রাদয়ো মন্ত্রোক্তাঃ। নিচূজ্জগতী
मन्त्र विषय
(রাজধর্মোপদেশঃ) রাজার জন্য ধর্মের উপদেশ
भाषार्थ
(সবিতা) [সকলের পরিচালক] সূর্য [সূর্যরূপ তেজস্বী], (বরুণঃ) সবার আকাঙ্ক্ষিত/কামনাযোগ্য জল [জলের ন্যায় শান্তস্বভাব], (মিত্রঃ) চেষ্টা দানকারী বায়ু [বায়ুর ন্যায় বেগবান উপকারী], (অর্যমা) শ্রেষ্ঠদের সম্মানকারী ন্যায়কারী রাজা (অরণিম্) পীড়াকে (পদোঃ) দুই পদ এবং (হস্তয়োঃ) দুই হাত দ্বারা (নিঃ) নিরন্তর (নিঃ সাবিষৎ) নিষ্কাশিত করুক। (ররাণা) দানশীলা (অনুমতিঃ) অনুকূল বুদ্ধি (অস্মভ্যম্) আমাদের জন্য (নিঃ=নিঃ সাবিষৎ) [পীড়াকে] নিষ্কাশিত করুক, (দেবাঃ) উদার চিত্তবান মহাত্মাগণ (ইমাম্) এই [অনুকূল বুদ্ধিকে] (সৌভগায়) বৃহৎ ঐশ্বর্যের জন্য (প্র অসাবিষুঃ) প্রেরণ করেছেন ॥২॥
भावार्थ
মন্ত্রোক্ত শুভ লক্ষণসম্পন্ন রাজা এবং প্রজা পরস্পর হিতবুদ্ধি দ্বারা এবং শুভচিন্তক মহাত্মাদের সহায়তা দ্বারা ক্লেশসমূহের নাশ করে সকলের ঐশ্বর্য বৃদ্ধি করবে/করুক॥২॥ টিপ্পণী−সায়ণভাষ্যে (অরণিম্) এর স্থানে [অরণীম্] রয়েছে। বোম্বাই গবর্নমেন্টের পুস্তকে [সাবিষক্] এর স্থানে সায়ণভাষ্যে এবং অন্য দুটি পুস্তকে (সাবিষৎ) পদ রয়েছে, সে পাঠই আমি রেখেছি। গবর্নমেন্ট পুস্তকে টিপ্পণী রয়েছে যে, [সাবিষক্] শব্দ শুদ্ধ করে লেখা হয়েছে। কিন্তু এটি মূলত অশুদ্ধ। কেননা অথর্ব০ ৬।১।৩, ৭।৭৭।৭ এবং ৯।১৫।৪। মন্ত্রে (সবিতা সাবিষৎ) পাঠ রয়েছে, সেখানে (সবিতা সাবিষৎ) এখানেও শুদ্ধ রয়েছে॥
भाषार्थ
(সবিতা) বধূর প্রসবকর্তা পিতা (পদোঃ) তোমার পা থেকে (অরণিম্) অরমণীয় চেষ্টাকে (নিঃ সাবিষক্ =নিঃ সাবিষৎ) বহির্গমনের জন্য প্রেরিত করো, (হস্তয়োঃ) হাথ থেকে (নিঃ) নিষ্কাশিত হওয়ার জন্য প্রেরিত করো (বরুণঃ ১) বরণকারী (মিত্রঃ) স্নেহী (অর্যমা) ন্যায়ী [তোমার পতি]। (অনুমতিঃ) আচার্যদেবের অনুকূল মতপোষণকারী পত্নী (নিঃ) অরমণীয়া চেষ্টা নিষ্কাশন করে (অস্মভ্যম্) আমার জন্য (ররাণা) তোমাকে প্রদানকারী হোক। (দেবাঃ) দিব্যগুণী অন্য আত্মীয়রা (ইমাম্) এই বধূকে (সৌভগায়) আমার সৌভাগ্যের জন্য (প্র অসাবিষুঃ) প্রেরিত করেছে। আমার="বর এর সৌভাগ্যের জন্য"।
टिप्पणी
[মন্ত্রে বিবাহিত বধূর বর্ণনা প্রতীত হয়। অনুমতি হলো দেবপত্নী। যথা "অনুমতিঃ রাকেতি দেবপত্ন্যৌ ইতি নৈরুক্তাঃ" (নিরুক্ত ১১।৩।২৯)। বধূ যতক্ষণ অল্পাবস্থার থাকে ততক্ষণ তাঁর পিতা তাঁর চেষ্টার নিয়ন্ত্রিত করে। পড়ার অর্থাৎ বিদ্যাধ্যয়নের জন্য যখন সে গুরুকুলে প্রবিষ্ট হয় তখন তাঁর আচার্য তাঁর চেষ্টার নিয়ন্ত্রণ করে। বিবাহ হয়ে গেলে তাঁর বরণকারী পতি নিয়ন্ত্রণ করে। নিঃ সাবিষত=ষু প্রেরণে অস্মাৎ পঞ্চমলকারে "লেটোঽডাটৌ" (অষ্টা০ ৩/৪/৯৪) ইতি অডাগমঃ। "সিব্বহুলম্" (অষ্টা০ ৩/১/৩৪) ইতি সিপ্। স চ ণিদ্ বক্তব্যঃ (অষ্টা০ ৩।১।৩৪) ইতি বচনাদ্ অচো ঞ্ণিতি (অষ্টা০ ৭/২/১১৫) ইতি বৃদ্ধিঃ। আর্ধধাতুকস্যেড্ বলাদেঃ (অষ্টা০ ৭/২/৩৫) ইতি সিপঃ ইডাগমঃ (সায়ণ)।] [১. বৃণোতি ক্রিয়তে বাঽসৌ বরুণঃ (উণা০ ৩।৫৩, দয়ানন্দ)। বর-কন্যার বরণ করে। এবং কন্যা দ্বারা বরের বরণ করা হয় [এই অর্থ হলো অধিভৌতিকদৃষ্টিতে, আধ্যাত্মিক দৃষ্টিতে নয়]।
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