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अथर्ववेद के काण्ड - 1 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अथर्वा देवता - चन्द्रमा और पर्जन्य छन्दः - त्रिपदा विराड् गायत्री सूक्तम् - रोग उपशमन सूक्त
    309

    वृ॒क्षं यद्गावः॑ परिषस्वजा॒ना अ॑नुस्फु॒रं श॒रमर्च॑न्त्यृ॒भुम्। शरु॑म॒स्मद्या॑वय दि॒द्युमि॑न्द्र ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वृ॒क्षम् । यत् । गावः॑ । प॒रि॒ऽस॒ख॒जा॒नाः । अ॒नु॒ऽस्फु॒रम् । श॒रम् । अर्च॑न्ति । ॠ॒भुम् । शरु॑म् । अ॒स्मत् । य॒व॒य॒ । दि॒द्युम् । इ॒न्द्र॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वृक्षं यद्गावः परिषस्वजाना अनुस्फुरं शरमर्चन्त्यृभुम्। शरुमस्मद्यावय दिद्युमिन्द्र ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वृक्षम् । यत् । गावः । परिऽसखजानाः । अनुऽस्फुरम् । शरम् । अर्चन्ति । ॠभुम् । शरुम् । अस्मत् । यवय । दिद्युम् । इन्द्र ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    बुद्धि की वृद्धि के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्) जब (वृक्षम्) धनुष से (परि-सस्वजानाः) लिपटी हुयी (गावः) चिल्ले की डोरियाँ (अनुस्फुरम्) फुरती करते हुए (ऋभुम्) विस्तीर्ण ज्योतिवाले अथवा सत्य से प्रकाशमान वा वर्त्तमान, बड़े बुद्धिमान् (शरम्) बाणधारी शूरपुरुष की (अर्चन्ति) स्तुति करें। [तब] (इन्द्र) हे बड़े ऐश्वर्यवाले जगदीश्वर ! [वा हे वायु !] (शरुम्) वाण और (दिद्युम्) वज्र को (अस्मत्) हमसे (यावय) तू अलग रख ॥३॥

    भावार्थ

    जब दोनों ओर से (आध्यात्मिक वा आधिभौतिक) घोर संग्राम होता हो, बुद्धिमान् चतुर सेनापति ऐसा साहस करे कि सब योद्धा लोग उस की बड़ाई करें और वह परमेश्वर का सहारा लेकर और अपने प्राण वायु को साधकर शत्रुओं को निरुत्साह कर दे और जय प्राप्त करके आनन्द भोगे ॥३॥ निरुक्त अध्याय २, खण्ड ६ और ५ के अनुसार (वृक्ष) का अर्थ [धनुष] इस लिये है कि उससे शत्रु छेदा जाता है और (गौ) का नाम चिल्ला इसलिये है कि उससे वाणों को चलाते हैं ॥

    टिप्पणी

    ३−वृक्षम्। स्नुव्रश्चिकृत्यिषिभ्यः कित्। उ० ३।६६। इति ओव्रश्चू छेदने-क्स प्रत्ययः। वृक्षे वृक्षे धनुषि धनुषि वृक्षो व्रश्चनात्−निरु० २।६। धनुर्दण्डम्। धनुः। यत्। यदा। गावः। गमेर्डोः। उ० २।६७। इति गम्लृ गतौ-डो। ज्यापि गौरुच्यते गव्या चेत् ताद्धितमथ चेन्न गव्या गमयतीषूनिति−निरु० २।५। ज्याः, मौर्व्यः। परि-सस्वजानाः। ष्वञ्ज परिष्वङ्गे, लिटः कानच्, नकारलोपे द्विर्वचनम्। आश्लिष्य धनुष्कोटौ आरोपिताः। अनु-स्फुरम्। स्फुर संचलने-घञर्थे कविधानम्। प्रतिस्फुरणम्, स्फूर्तियुक्तम्। शरम्। मं० १। शत्रुछेदकम्। वाणधारकं शूरम्। अर्चन्ति। पूजयन्तिः, स्तुवन्ति। ऋभुम्। ऋ गतौ−क्विप्। ऋकारः=उरु वा ऋतम्। ऋ+भा दीप्तौ वा भू सत्तायाम्-डु। यद्वा, उरुशब्दस्य ऋतशब्दस्य वा ऋकार आदेशः। ऋभव उरु भान्तीति वर्त्तेन भान्तीति वर्त्तेन भवन्तीति वा−निरु० ११।१५। ऋभुः=मेधावी−निघ० ३।१५। उरुभासनम्, ऋतेन सत्येन भान्तं भवन्तं वा। मेधाविनम्। शरुम्। श्रॄस्वृस्निहि० उ० १।१०। इति श्रॄ हिंसायाम्−उ प्रत्ययः। छेदकं वाणम्। अस्मत्। अस्मत्तः। यवय। यु मिश्रणामिश्रणयोः−णिच्-लोट्। पृथक्कुरु। दिद्युम्। द्युतिगमिजुहोतां द्वे च। वार्त्तिकम्। पा० ३।२।१७८। इति द्युत दीप्तौ−क्विप्। द्योतते उज्ज्वलत्वात्। अथवा दो अवखण्डने-क्विप्। द्यति खण्डयति शत्रून्। पृषोदरादिः। तलोपश्छान्दसः। दिद्युत्, वज्रः, निघ० २।२०। वज्रम्। इन्द्र। ऋज्रेन्द्राग्रवज्र०। उ० २।२८। इति इदि परमैश्वर्ये−रन्। ञ्नित्यादिर्नित्यम्। पा० ६।१।१९७। इति नित्त्वाद् आद्युदात्तत्वे प्राप्ते आमन्त्रितत्वात् सर्वानुदात्तत्वम्। इन्द्रियमिन्द्रलिङ्गमिन्द्रदृष्टमिन्द्रसृष्टमिन्द्रजुष्टमिन्द्रदत्तमिति वा। पा० ५।२।९३। वायुर्वेन्द्रो वान्तरिक्षस्थानः−निरु०।७।५। हे परमैश्वर्यवन्, वायो, हे जीव ॥

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    विषय

    गोदुग्ध व वानस्पतिक पदार्थ

    पदार्थ

    १. प्रस्तुत मन्त्र में शरीर को 'वृक्ष' कहा है, क्योंकि मानव-जीवन का लक्ष्य यही है कि अन्तत: इस शरीर का वृश्चन-छेदन हो। हमें फिर-फिर शरीर न लेना पड़े। (यत्) = जब (गाव:) = गौओं से दिया गया दूध (वृक्षम्) = इस शरीर-वृक्ष को (परिषस्वजाना:) = आलिङ्गन करनेवाला होता है तथा (अनुस्फुरम्) = [अनुर्लक्षणे] स्फूर्ति का लक्ष्य करके लोग (ऋभुम्) = [उरु भाति] तेजस्विता से दीप्त (शरम् अर्चन्ति) = शर का आदर करते हैं तब हे (इन्द्र) = शत्रुओं के विद्रावक प्रभो! (अस्मत) = हमसे (दिद्युम्) = एक चमकते हुए घातक अस्त्र के समान (शरुम्) = क्रोध व वासना [Anger, passion] को (यावय) = दूर कीजिए। २. दूध व शर आदि औषधियों का प्रयोग शरीर में स्फूर्ति व दीसि लाता है तथा मन से क्रोध व वासना को दूर करता है। यह क्रोध हमारे लिए ही एक घातक अस्त्र बनता है और हमारा ही विनाश करता है, अत: हमें प्रयत्न यही करना है कि हमारा भोजन दूध व वनस्पति ही रहे। हम घासपक्षवाले ही बने रहें, मांसपक्षवाले न बन जाएँ। यह मांस तो [माम् सः] मुझे ही खा जाएगा।

    भावार्थ

    हम गोदुग्ध व शरादि वानस्पतिक पदार्थों से ही शरीर का पोषण करें।

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    भाषार्थ

    (गावः) इन्द्रियाँ (यत्) जो (वृक्षम्) छेदनीय शरीर को (परिषस्वजानाः) सब ओर आलिङ्गन करती हुई, (अनु स्फुरम्) निज स्फूर्ति के अनुसार (ऋभुम्) उरु भासमान१ (शरम् ) शर अर्थात् जीवात्मा की (अर्चन्ति) अर्चना करती हैं, (इन्द्र) हे परमेश्वर ! (शरुम् दिद्युम्) हिंस्र पापरूपी वज्र को (अस्मत्) हम से (यावय) पृथक् कर दे ।

    टिप्पणी

    [दिद्युद् वज्रनाम (निघं० २।२०)। अभिप्राय यह कि इन्द्रियाँ जब निज स्फूर्तियां अर्थात् संचरण करती हुई जीवात्मा की अर्चना करती हैं, उसे निज पूज्य करती हैं, तब परमेश्वर पापरूपी हिंस्र वज्र को हमसे पृथक् कर देता है, हटा देता है। गावः= गौः इन्द्रियम् (उणा० २।६८; दयानन्द) । वृक्षम्= वृश्च्यते इति, ओव्रश्चू छेदने (तुदादिः), छेदनीय शरीर है, विनाशी शरीर। वृक्ष पद के नानार्थ हैं-(१) प्रकृति, यथा "किं स्विद् वनं क उ स वृक्ष आसीद् यतो द्यावापृथिवी निस्ततक्षुः" (यजु० १७।२०) । (२) "वृक्षेवृक्षे नियता मीमयद् गौः।" (ऋ० १०।२७।२२)= वृक्षेवृक्षे=धनुषि धनुषि (निरुक्त २।१।६)। (३) वृक्षम्= वृक्षविकारं धनुर्दण्डम् (सायण)।] [१. जीवात्मा भासमान है, प्रकाशस्वरूप है, तभी वह इन्द्रियों और बुद्धि को प्रकाशित करता है। जो स्वयं प्रकाशमान नहीं वह अन्यों को प्रकाशित नहीं कर सकता।]

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    विषय

    बाण, शर और कानून का वर्णन

    भावार्थ

    ( यद्) जब (गावः) गोचर्म की तांत की बनी अथवा बाणों को दूर फेंकने वाली डोरियां, ( वृक्षं ) धनुष् को ( परि सस्वजानाः ) आलिङ्गन करती हुई ( अनुस्फुरं ) तीव्र प्रहार करने हारे, (ऋभुम् ) तीक्ष्ण, चमचमाते ( शरं ) बाण को (अर्चन्ति) फेंकती है तब हे इन्द्र ! सेनापते ! ( दिद्युम् ) अतिप्रकाशमान (शरुं) शत्रु के घातक बाण को (अस्मत्) हम से ( यवय ) परे रख, जिससे वे हमें न सतावें । अथवा—( यद् गावः वृक्षं परिसस्वजानाः ) जिस प्रकार ग्रीष्म काल में गौ आदि पशु वृक्ष के आश्रय में आती हैं उसी प्रकार ( ऋभुं शरं अनुस्फुरं अर्चन्ति ) ज्ञान और शक्ति द्वारा विशेष रूप से तेजस्वी, शत्रु के हिंसक राजा का आश्रय लेकर प्रजाएं उसकी आज्ञा के अनुकूल चल कर उसका आदर करती हैं और कहती हैं कि—( इन्द्र दिघुं शरुं अस्मद् यवय ) हे इन्द्र ! राजन् ! अपने चमचमाते तेजस्वी, घातक, शत्रु और दुष्ट के विनाशक, वज्र के समान हिंसक शस्त्र को हम से परे रख, हम प्रजाओं पर उसका प्रयोग न कर । अध्यात्म पक्ष में—गावः—इन्द्रियें। ऋभु, शर और वृक्ष=आत्मा । ‘परि-स्वज्’=आलिङ्गन करना। इस शब्दप्रयोग के कारण स्त्रीपुरुष के व्यवहार में गावः = कन्याएं । वृक्ष=आश्रय पति । ऋभु विद्वान् ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। अमृतमयः पर्जन्यश्चन्द्रमा देवता। १, २, ४, अनुष्टुप् छन्द, ३ त्रिपदा विराड् गायत्री। चतुर्ऋचं सुक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Hymn of Victory

    Meaning

    When the bow strings of the warriors, strung by the ends of the bow at optimum tension, shoot the sharp and deadly whizzing arrows, then, O mighty warrior, O commander, O Indra, intercept and throw off the enemy’s missiles far from us.

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    Translation

    As the bow-strings embracing the wooden staff of the bow sing praises to the mighty whizzing arrow, O resplendent Lord, may you ward off the shining shaft from us.

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    Translation

    O' Indra, (the Physician) please keep away from us the shining and painful Sharah, the medicinal grass when the sunrays Jike the vowstrings embracing the bow, fall on the pointed splendid stalk of it. The Sharah should be kept in water for whole night and this water should be used only, not the dry stalk of it.

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    Translation

    When, closely clinging round the bow, the strings sing triumph to the learned warrior, O Commander, ward off from us the shaft, the missile.

    Footnote

    He refers to a devotee. Just as both ends of a bow remain strained and tightened, which enables an arrow to reach its distant goal, so should a devotee reach his goal, through knowledge and action.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−वृक्षम्। स्नुव्रश्चिकृत्यिषिभ्यः कित्। उ० ३।६६। इति ओव्रश्चू छेदने-क्स प्रत्ययः। वृक्षे वृक्षे धनुषि धनुषि वृक्षो व्रश्चनात्−निरु० २।६। धनुर्दण्डम्। धनुः। यत्। यदा। गावः। गमेर्डोः। उ० २।६७। इति गम्लृ गतौ-डो। ज्यापि गौरुच्यते गव्या चेत् ताद्धितमथ चेन्न गव्या गमयतीषूनिति−निरु० २।५। ज्याः, मौर्व्यः। परि-सस्वजानाः। ष्वञ्ज परिष्वङ्गे, लिटः कानच्, नकारलोपे द्विर्वचनम्। आश्लिष्य धनुष्कोटौ आरोपिताः। अनु-स्फुरम्। स्फुर संचलने-घञर्थे कविधानम्। प्रतिस्फुरणम्, स्फूर्तियुक्तम्। शरम्। मं० १। शत्रुछेदकम्। वाणधारकं शूरम्। अर्चन्ति। पूजयन्तिः, स्तुवन्ति। ऋभुम्। ऋ गतौ−क्विप्। ऋकारः=उरु वा ऋतम्। ऋ+भा दीप्तौ वा भू सत्तायाम्-डु। यद्वा, उरुशब्दस्य ऋतशब्दस्य वा ऋकार आदेशः। ऋभव उरु भान्तीति वर्त्तेन भान्तीति वर्त्तेन भवन्तीति वा−निरु० ११।१५। ऋभुः=मेधावी−निघ० ३।१५। उरुभासनम्, ऋतेन सत्येन भान्तं भवन्तं वा। मेधाविनम्। शरुम्। श्रॄस्वृस्निहि० उ० १।१०। इति श्रॄ हिंसायाम्−उ प्रत्ययः। छेदकं वाणम्। अस्मत्। अस्मत्तः। यवय। यु मिश्रणामिश्रणयोः−णिच्-लोट्। पृथक्कुरु। दिद्युम्। द्युतिगमिजुहोतां द्वे च। वार्त्तिकम्। पा० ३।२।१७८। इति द्युत दीप्तौ−क्विप्। द्योतते उज्ज्वलत्वात्। अथवा दो अवखण्डने-क्विप्। द्यति खण्डयति शत्रून्। पृषोदरादिः। तलोपश्छान्दसः। दिद्युत्, वज्रः, निघ० २।२०। वज्रम्। इन्द्र। ऋज्रेन्द्राग्रवज्र०। उ० २।२८। इति इदि परमैश्वर्ये−रन्। ञ्नित्यादिर्नित्यम्। पा० ६।१।१९७। इति नित्त्वाद् आद्युदात्तत्वे प्राप्ते आमन्त्रितत्वात् सर्वानुदात्तत्वम्। इन्द्रियमिन्द्रलिङ्गमिन्द्रदृष्टमिन्द्रसृष्टमिन्द्रजुष्टमिन्द्रदत्तमिति वा। पा० ५।२।९३। वायुर्वेन्द्रो वान्तरिक्षस्थानः−निरु०।७।५। हे परमैश्वर्यवन्, वायो, हे जीव ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    (য়ং) যখন (বৃক্ষম্) ধনুতে (পরিসস্বজানাঃ) সংলগ্ন (গাবঃ) ছিলা (অনুস্ফুরং) স্ফুর্তিযুক্ত (ঋভুম্) জ্ঞানবান (শরম্) বাণধারী বীর পুরুষকে (অর্চস্থি) স্তুতি করে, তখন হে পরমাত্মন! (শরম্) বাণ ও (বিদ্যুৎ) বজ্রকে (অস্মাৎ) আমা হইতে (য়াবয়) তুমি পৃথক রাখ।।
    (বৃক্ষং) ব্ৰচু ছেদনে কস্ প্রত্যয়ঃ। ‘বৃক্ষে বৃক্ষে ধনুষি ধনুষি বৃক্ষো ব্রশ্চনাং। নিরুক্ত ২.৬। ধনুদ্বারা শত্রুকে ছেদন করা হয় এজন্য ধনুর এক নাম বৃক্ষ। (গৌঃ) গম্‌ল্ গতৌ ডো। জ্যাপি গৌরুচ্যতে গব্যা চেৎ তাদ্বিদমথ চেন্ন গব্যা গমম্নতীয়ু নিতি। নিরুক্ত : ২.৫। চিল্লার এক নাম গো কেননা ইহা দ্বারা বাণ চালিত হয়।। ৩।।

    भावार्थ

    যখন ধনুতে সংলগ্ন ছিলা-রজ্জু তেজস্বী, জ্ঞানবান বীর পুরুষকে স্তুতি করে তখন হে ঐশ্বর্যবান জগদীশ্বর! আমাদিগকে বাণ ও বজ্র হইতে পৃথক রাখ।।
    ঘোর সংগ্রামে বুদ্ধিমান সেনাপতির বীরত্বকে যোদ্ধাগণ প্রশংসা করে এবং সেনাপতি পরমাত্মার শরণ গ্রহণ করিয়া শত্রু দমন করে।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    বৃক্ষং য়দ্ গাবঃ পরিষাস্বজানা অনুসফুরং শরমচর্জ্যভুম্। শরুমল্মদ্ য়াবয় দিদ্যু মিন্দ্ৰ।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    অর্থবা। পর্জন্যঃ। ত্রিপদা বিরাণনামগায়ত্রী

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    मन्त्र विषय

    (বুদ্ধিবৃদ্ধ্যুপদেশঃ) বুদ্ধির বৃদ্ধির জন্য উপদেশ।

    भाषार्थ

    (যৎ) যখন (বৃক্ষম্) ধনুকের সাথে (পরিসস্বজানাঃ) লিপ্ত থাকা (গাবঃ) ছিলার দড়ি (অনুস্ফুরম্) স্ফূর্তিময় (ঋভুম্) বিস্তীর্ণ জ্যোতির্ময় অথবা সত্যের দ্বারা প্রকাশমান বুদ্ধিমান্ (শরম্) বাণধারী শৌর্যশালীপুরুষের (অর্চন্তি) স্তুতি করে; [তখন] (ইন্দ্র) হে পরম ঐশ্বর্যবান জগদীশ্বর ! [বা হে বায়ু !] (শরুম্) বাণ এবং (দিদ্যুম্) বজ্রকে (অস্মৎ) আমার থেকে (যাবয়) তুমি পৃথক রাখো ॥৩॥

    भावार्थ

    যখন দুই দিক থেকে (আধ্যাত্মিক ও আধিভৌতিক) ঘোর সংগ্রাম হয়ে থাকে, বুদ্ধিমান চতুর সেনাপতি এমন সাহস প্রদর্শন করুক যেন সমস্ত যোদ্ধারা তাঁর প্রশংসা করে এবং সে পরমেশ্বরের আশ্রয় নিয়ে এবং নিজের প্রাণ বায়ুর সাধন করে শত্রুদের নিরুৎসাহী করুক এবং জয় প্রাপ্ত করে আনন্দ উপভোগ করুক ॥৩॥ নিরুক্ত অধ্যায় ২, খণ্ড ৬ ও ৫ এর অনুসারে (বৃক্ষ) এর অর্থ [ধনুক] এইজন্য যে, তা দিয়ে শত্রুকে নাশ করা যেতে পারে এবং (গৌ) এর নাম ছিলা [ধনুকের দড়ি] এজন্যই যে তা দিয়ে বাণ চালানো যায় ॥

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    भाषार्थ

    (গাবঃ) ইন্দ্রিয়-সমূহ (যৎ) যা (বৃক্ষম্) ছেদনীয় শরীরকে (পরিষস্বজানাঃ) সবদিকে আলিঙ্গন করে, (অনু স্ফুরম্) নিজ স্ফূর্তির অনুসারে (ঋভুম্) উরু ভাসমান১ (শরম্) শর অর্থাৎ জীবাত্মার (অর্চন্তি) অর্চনা করে, (ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর ! (শরুম্ দিদ্যুম্) হিংস্র পাপরূপী বজ্রকে (অস্মৎ) আমাদের থেকে (যাবয়) পৃথক্ করো/করে দাও ।

    टिप्पणी

    [দিদ্যুদ্ বজ্রনাম (নিঘং০ ২।২০)। অভিপ্রায় এটাই, ইন্দ্রিয়-সমূহ যখন নিজ স্ফূর্তি অর্থাৎ সঞ্চরণ করে জীবাত্মার অর্চনা করে, তাকে নিজ পূজ্য করে, তখন পরমেশ্বর পাপরূপী হিংস্র বজ্রকে আমাদের থেকে পৃথক্ করে দেয়, অপসারণ করেন। গাবঃ= গৌঃ ইন্দ্রিয়ম্ (উণা০ ২।৬৮; দয়ানন্দ)। বৃক্ষম্= বৃশ্চ্যতে ইতি, ওব্রশ্চূ ছেদনে (তুদাদিঃ), ছেদনীয় শরীর হল, বিনাশী শরীর। বৃক্ষ পদের নানার্থ হয়-(১) প্রকৃতি, যথা “কিং স্বিদ্ বনং ক উ স বৃক্ষ আস যতো দ্যাবাপৃথিবী নিষ্টতক্ষুঃ” (যজু০ ১৭।২০) । (২) “বৃক্ষে-বৃক্ষে নিয়তা মীময়দ্ গৌঃ।“ (ঋ০ ১০।২৭।২২)= বৃক্ষেবৃক্ষে=ধনুষি ধনুষি (নিরুক্ত ২।১।৬)। (৩) বৃক্ষম্= বৃক্ষবিকারং ধনুর্দণ্ডম্ (সায়ণ)।] [১. জীবাত্মা হল ভাসমান, প্রকাশস্বরূপ, তাই তা ইন্দ্রিয় ও বুদ্ধিকে প্রকাশিত করে। যে স্বয়ং প্রকাশমান নয় সে/তা অন্যকে প্রকাশিত করতে পারে না।]

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