अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 20/ मन्त्र 4
ऋषिः - अथर्वा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त
117
शा॒स इ॒त्था म॒हाँ अ॑स्यमित्रसा॒हो अ॑स्तृ॒तः। न यस्य॑ ह॒न्यते॒ सखा॒ न जी॒यते॑ क॒दा च॒न ॥
स्वर सहित पद पाठशा॒स: । इ॒त्था । म॒हान् । अ॒सि॒ । अ॒मि॒त्र॒ऽस॒ह: । अ॒स्तृ॒त: ।न । यस्य॑ । ह॒न्यते॑ । सखा॑ । न । जी॒यते॑ । क॒दा । च॒न ॥
स्वर रहित मन्त्र
शास इत्था महाँ अस्यमित्रसाहो अस्तृतः। न यस्य हन्यते सखा न जीयते कदा चन ॥
स्वर रहित पद पाठशास: । इत्था । महान् । असि । अमित्रऽसह: । अस्तृत: ।न । यस्य । हन्यते । सखा । न । जीयते । कदा । चन ॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
शत्रुओं से रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(इत्था) सत्य-सत्य (महान्) बड़ा (शासः) शासनकर्ता (अमित्रसाः) शत्रुओं को हरानेहारा और (अस्तृतः) कभी न हारनेहारा (असि) तू है। (यस्य) जिसका (सखा) मित्र (कदा चन) कभी भी (न) न (हन्यते) मारा जाता है और (न) न (जीयते) जीता जाता है ॥४॥
भावार्थ
वह परमात्मा (वरुण) सर्वशक्तिमान् शत्रुनाशक है, इस प्रकार श्रद्धा करके जो मनुष्य प्रयत्नपूर्वक, आत्मिक, शारीरिक और सामाजिक बल बढ़ाते रहते हैं, वे ईश्वर के भक्त दृढ़विश्वासी अपने शत्रुओं पर सदा जय प्राप्त करते हैं ॥४॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋ० १०।१५२।१ में है ॥
टिप्पणी
४−शासः। नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यचः। पा० ३।१।१३४। इति शासु अनुशिष्टौ−पचाद्यच्। चितः। पा० ६।१।१६३। इति अन्तोदात्तः। शासकः, नियन्ता, वरुणः। इत्था। सत्यनाम, निघ० ३।१०। सत्यम्। महान्। १।१०।४। सर्वोत्कृष्टः। महाँ असि। इत्यत्र संहितायाम्। दीर्घादटि समानपादे। पा० ८।३।९। इति नकारस्य रुत्वम्। आतोऽटि नित्यम्। पा० ८।३।३। इति अकारस्य अनुनासिकः। अमित्र-सहः। अमेर्द्विषति चित्। उ० ४।१७४। इति अम रोगे पीडने−इत्रच्। षह अभिभवे−पचाद्यच्। चितः। पा०। ६।१।१६३। इति अन्तोदात्तः। अमित्राणां शत्रूणां सोढा, अभिभविता। अस्तृतः। स्तृञ् हिंसायाम्−कर्मणि क्तः। अहिंसितः। न। निषेधे। यस्य। वरुणस्य। हन्यते। सार्वधातुके यक्। पा० ३।१।६७। इति कर्मणि यक्। हिंस्यते। अभिभूयते। सखा। समाने ख्यः स चोदात्तः। उ० ४।१३७। इति समान+ख्या प्रसिद्धौ कथने च−इन्। टिलोपयलोपौ समानस्य सभावश्च। अनङ् सौ। पा० ७।१।९३। इति अनङ्। मित्रम्, सुहृद्। जीयते। जि जये−पूर्ववद् यक्। अभिभूयते। कदा। कस्मिन् काले। चन। अपि ॥
विषय
आत्मशासन व महत्ता
पदार्थ
१. प्रभु अथर्वा से कहते हैं-(शास:) = तू अपना शासन करनेवाल बन । (इत्था) = इस प्रका ही तू (महान् असि) = बड़ा होता है। अपना विजय करनेवाला ही सर्वमहान् विजेता है। (अमित्र साह:) = अपना विजय करके तू शत्रुओं का पराभव करता है और (अस्तृतः) = अहिंसित होता है। जिस समय हम अपना शासन करके राग-द्वेष आदि को जीत पाते हैं, उसी समय हम महान् होते हैं, बाह्य शत्रुओं को भी जीतनेवाले होते हैं और किसी प्रकार से हिसित नहीं होते। २. (यस्य) = जिसका (सखा) = मित्र (न हन्यते) = नहीं मारा जाता वह (कदाचन) = कभी भी (न जीयते) = पराजित नहीं होता। यदि हममें स्नेह का भाव बना रहता है तो हम कभी भी पराभूत नहीं होते। इस मन्त्र-भाग का यह अर्थ भी द्रष्टव्य है कि जो प्रभुरूप मित्र को नहीं भूलता वह अपराभूत बना रहता है।
भावार्थ
आत्मविजय हमें महान् बनाती है और मित्रभाव हमें अपराजित बनाता है।
विशेष
सूक्त के आरम्भ में प्रार्थना है कि हमारा प्रत्येक कार्य मेल को बढ़ानेवाला हो [१] । समाति पर कहा है कि हम आत्मविजयी बनकर अपराजित बनें [४]। अगले सूक्त में
भी यही अथर्वा आराधना करता है कि -
पदार्थ
शब्दार्थ = हे परमात्मन्! आप ( इत्था ) = सत्य - सत्य ( महान् ) = बड़े ( शास: ) = शासक ( अमित्रसाहः ) = शत्रुओं को दबा देनेवाले ( अस्तृतः ) = कभी न हारनेवाले ( असि ) = हैं । ( यस्य सखा ) = जिस आपका सखा ( कदाचन ) = कभी भी ( न हन्यते ) = नहीं मारा जाता और ( न जीयते ) = हारता भी नहीं ।
भावार्थ
भावार्थ = हे परमात्मन्! आप ही सच्चे शासक, शत्रुओं को हरानेवाले, कभी नहीं हारनेवाले हो । आपके साथ सच्चा प्रेम करने से जो आपका मित्र बन गया है वह न कभी किसी से मारा जाता है और न किसी से दबाया जा सकता है।
भाषार्थ
(इत्था) सत्य है (महान् शासः) तू महाशासक (असि) है, (अमित्रसाहः) अस्नेहियों का अर्थात् शत्रुओं का पराभव करनेवाला है, (अस्तृतः) और उन द्वारा तु हिसित नहीं होता। (यस्य सखा) जिसका सखा (न हन्यते) नहीं होता, (न) और न (जीयते) वयोहानि को ( कदाचन ) कभी भी प्राप्त होता है।
टिप्पणी
[इत्था सत्यनाम (निघं० ३।१०)। साहः=षह१ मर्षणे (चुरादिः) । अस्तृतः२ = अ + स्तृञ् आच्छादने (क्र्यादिः)। आच्छादित होना, पराभूत होना। जीयते= ज्या वयोहानौ (क्र्यादिः)। वैदिक राजनीति इन्द्र अर्थात् सम्राट् और वरुण अर्थात् एक-एक राष्ट्र के पति का परस्पर सम्बन्ध है। अतः मन्त्र (३) में वर्णित बरुण द्वारा मन्त्र (४) में इन्द्र अर्थात् सम्राट् आक्षिप्त हुआ है, अतः मन्त्र ( ४) में सम्राट् को ही "सत्य" अर्थात् वास्तविक शासक कहा है।] [१. षह अभिभवे (सायण)। २. अस्तृतः में ह्रस्व ऋकारान्त के प्रयोग से "स्तु" धातु भी वेदानुमोदित है। सायण में "स्तृ" ह्रस्व ऋकारान्त ही पाठ है "स्तृञ् हिंसायाम्"।]
विषय
राजा के कर्तव्य ।
भावार्थ
( इत्था ) इस प्रकार से हे राजन् ! तू ( अमित्रसाहः ) शत्रुओं का पराभव करने वाला ( अस्तृतः ) स्वयं किसी से भी हिंसित न होने वाला, ( महान् ) बड़ा भारी ( शासः ) शासक ( असि ) है ( यस्य ) जिसका ( सखा ) मित्र भी किसी से ( न हन्यते ) नहीं मारा जा सकता और ( न कदाचन ) न कभी ( जीयते ) जीता जा सकता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः । १ सोमः, २ मरुतः, ३ मित्रावरुणौ, ४ इन्द्रो देवता । १ त्रिष्टुप् २-४ अनुष्टुप्। चतुऋचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
No Enemies
Meaning
Indra, ruler supreme, you are so great, destroyer of unfriendly powers and assailants, unconquered and inviolable whose friend and ally is never hurt, never defeated, never destroyed.
Subject
Indra
Translation
Verily, you are the mighty miler, conqueror of enemies and himself unconquered, whose friend is never slain and never subdued.
Translation
O' king; you are unconquered exterminator of assailants and thus a mighty ruler whose friend is never sain and never overcome.
Translation
Verily, O God, Thou art a Mighty Ruler, Unconquered, Vanquisher of foes whose friend is never slain, whose friend is never overcome.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−शासः। नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यचः। पा० ३।१।१३४। इति शासु अनुशिष्टौ−पचाद्यच्। चितः। पा० ६।१।१६३। इति अन्तोदात्तः। शासकः, नियन्ता, वरुणः। इत्था। सत्यनाम, निघ० ३।१०। सत्यम्। महान्। १।१०।४। सर्वोत्कृष्टः। महाँ असि। इत्यत्र संहितायाम्। दीर्घादटि समानपादे। पा० ८।३।९। इति नकारस्य रुत्वम्। आतोऽटि नित्यम्। पा० ८।३।३। इति अकारस्य अनुनासिकः। अमित्र-सहः। अमेर्द्विषति चित्। उ० ४।१७४। इति अम रोगे पीडने−इत्रच्। षह अभिभवे−पचाद्यच्। चितः। पा०। ६।१।१६३। इति अन्तोदात्तः। अमित्राणां शत्रूणां सोढा, अभिभविता। अस्तृतः। स्तृञ् हिंसायाम्−कर्मणि क्तः। अहिंसितः। न। निषेधे। यस्य। वरुणस्य। हन्यते। सार्वधातुके यक्। पा० ३।१।६७। इति कर्मणि यक्। हिंस्यते। अभिभूयते। सखा। समाने ख्यः स चोदात्तः। उ० ४।१३७। इति समान+ख्या प्रसिद्धौ कथने च−इन्। टिलोपयलोपौ समानस्य सभावश्च। अनङ् सौ। पा० ७।१।९३। इति अनङ्। मित्रम्, सुहृद्। जीयते। जि जये−पूर्ववद् यक्। अभिभूयते। कदा। कस्मिन् काले। चन। अपि ॥
बंगाली (3)
পদার্থ
শাস ইত্থা মহাঁ অস্যমিত্রসাহো অস্তৃতঃ ।
ন য়স্য হন্যতে সখা ন জীয়তে কদাচন ।।৬৫।।
(অথর্ব ১।২০।৪)
পদার্থঃ হে পরমাত্মা! তুমি (ইত্থা) সত্যই (মহান্) মহান (শাসঃ) শাসক, (অমিত্র সাহঃ) অপশক্তি সমূহের পরাভবকারী, (অস্তৃতঃ অসি) অজেয়, সর্বদা জয়শীল। (য়স্য সখা) যে তোমার সখা, সে (কদাচন) কখনোই (ন হন্যতে) হত্যার যোগ্য না; (ন জীয়তে) তাকে জয় করাও অসম্ভব।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ হে পরমাত্মা! তুমি যেমন মহান শাসক, তেমনই তোমার প্রকৃত অনুসারীও আত্ম শাসনে দৃঢ়। তুমি যেমন অজেয়, তোমার প্রকৃত ভক্তও যেন এই সংসারে অজেয় হয়, সেও যেন অবধ্য হয় ।।৬৫।।
मन्त्र विषय
(শত্রুভ্যো রক্ষণোপদেশঃ) শত্রুদের থেকে রক্ষার উপদেশ
भाषार्थ
(ইত্থা) সত্য-সত্য (মহান্) মহান (শাসঃ) শাসনকর্তা (অমিত্রসাঃ) শত্রুদের পরাজিতকারী এবং (অস্তৃতঃ) অপরাজিত/অজেয় (অসি) তুমি হও, (যস্য) যার (সখা) মিত্র (কদা চন) কখনও (ন) না (হন্যতে) মারা যায় এবং (ন) না (জীয়তে) জয় করা যায় ॥৪॥
भावार्थ
সেই পরমাত্মা (বরুণ) সর্বশক্তিমান শত্রুনাশক, এই ভাবে শ্রদ্ধাপূর্বক যে মনুষ্য প্রচেষ্টাপূর্বক আত্মিক, শারীরিক এবং সামাজিক বল বৃদ্ধি করতে থাকে, সেই ঈশ্বর ভক্ত দৃঢ়বিশ্বাসী নিজের শত্রুদের উপর সদা জয় প্রাপ্ত করে॥৪॥ এই মন্ত্র কিছু ভেদে ঋ০ ১০।১৫২।১ এ রয়েছে॥
भाषार्थ
(ইত্থা) সত্য (মহান শাসঃ) তুমি মহাশাসক (অসি) হও, (অমিত্রসাহঃ) অস্নেহকারীদের অর্থাৎ শত্রুদের পরাজিতকারী (অস্তৃতঃ) এবং তাঁদের দ্বারা তুমি হিংসিত হও না/অহিংসিত। (যস্য সখা) যার সখা (ন হন্যতে) হিংসিত হয় না (ন) এবং না (জীয়তে) বৃদ্ধাবস্থা/নির্বলতা/দুর্বলতা (কদাচন) কখনো প্রাপ্ত হয়।
टिप्पणी
[ইত্থা সত্যনাম (নিঘং০ ৩।১০)। সাহঃ =ষহ১ মর্ষণে (চুরাদিঃ)। অস্তৃতঃ২ =অ+স্তৃঞ্ আচ্ছাদনে (ক্রয়াদিঃ)। আচ্ছাদিত হওয়া, পরাজিত হওয়া। জীয়তে=জ্যা বয়োহানৌ (ক্র্যাদিঃ)। বৈদিক রাজনীতি ইন্দ্র অর্থাৎ সম্রাট্ ও বরুণ অর্থাৎ এক-এক রাষ্ট্রের পতির পরস্পর সম্বন্ধ রয়েছে। অতঃ মন্ত্র (৩) এ বর্ণিত বরুণ দ্বারা মন্ত্র (৪) এ ইন্দ্র অর্থাৎ সম্রাট আক্ষিপ্ত/নির্দিষ্ট হয়েছে, অতঃ মন্ত্র (৪) এ সম্রাটকেই "সত্য" অর্থাৎ বাস্তবিক শাসক বলা হয়েছে।] [১. ষহ অভিভবে (সায়ণ)। ২. অস্তৃতঃ-এ হ্রস্ব ঋকারান্তের প্রয়োগ দ্বারা "স্তৃ" ধাতু ও বেদানুমোদিত। সায়ণ ভাষ্যে "স্তৃ" হ্রস্ব ঋকারান্তই পাঠ হয়েছে "স্তৃঞ্ হিংসায়াম্""।]
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