अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 24/ मन्त्र 1
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - आसुरी वनस्पतिः
छन्दः - निचृत्पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - श्वेत कुष्ठ नाशन सूक्त
121
सु॑प॒र्णो जा॒तः प्र॑थ॒मस्तस्य॒ त्वं पि॒त्तमा॑सिथ। तदा॑सु॒री यु॒धा जि॒ता रू॒पं च॑क्रे॒ वन॒स्पती॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒ऽप॒र्ण: । जा॒त: । प्र॒थ॒म: । तस्य॑ । त्वम् । पि॒त्तम् । आ॒सि॒थ॒ ।तत् । आ॒सु॒री । यु॒धा । जि॒ता । रू॒पम् । च॒क्रे॒ । वन॒स्पती॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
सुपर्णो जातः प्रथमस्तस्य त्वं पित्तमासिथ। तदासुरी युधा जिता रूपं चक्रे वनस्पतीन् ॥
स्वर रहित पद पाठसुऽपर्ण: । जात: । प्रथम: । तस्य । त्वम् । पित्तम् । आसिथ ।तत् । आसुरी । युधा । जिता । रूपम् । चक्रे । वनस्पतीन् ॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
महारोग के नाश के लिये उपदेश।
पदार्थ
(सुपर्णः) उत्तम रीति से पालन करनेहारा, वा अति पूर्ण परमेश्वर (प्रथमः) सबका आदि (जातः) प्रसिद्ध है। (तस्य) उस [परमेश्वर] के (पित्तम्) पित्त [बल] को, [हे औषधि !] (त्वम्) तूने (आसिथ) पाया था। (तत्) तब (युधा) संग्राम से (जिता) जीती हुयी (आसुरी) असुर [प्रकाशमय परमेश्वर] की माया [प्रज्ञा वा बुद्धि] ने (वनस्पतीन्) सेवा करनेवालों के रक्षा करनेहारे वृक्षों को (रूपम्) रूप (चक्रे) किया था ॥१॥
भावार्थ
सृष्टि से पहिले वर्त्तमान परमेश्वर की नित्य शक्ति से ओषधि-अन्न आदि में पोषणसामर्थ्य रहता है। वह (आसुरी) परमेश्वर की शक्ति (युधा जिता) युद्ध अर्थात् प्रलय के अन्धकार के उपरान्त प्रकाशित होती है, जैसे अन्न और घास-पात आदि का बीज शीत और ग्रीष्म ऋतुओं में भूमि के भीतर पड़ा रहता और वृष्टि का जल पाकर हरा हो जाता है ॥१॥
टिप्पणी
टिप्पणी−(असुर) शब्द के लिये १।१०।१। और (आसुरी) के लिये ७।३९।१। देखो। हे ओषधि ! तू रात्रि में उत्पन्न हुई है। ऐसा १।२३।१। में आया है। ऋग्वेद १०।१२९।३ में कहा है। तम॑ आसी॒त् तम॑सा गू॒ढमग्रेऽप्रके॒तं स॑लि॒लं सर्व॑मा इ॒दम्। पहिले [प्रलय काल में] अन्धकार था और यह सब अन्धकार से ढका हुआ चिह्नरहित समुद्र था। १−सु-पर्णः। धापॄवस्यज्यतिभ्यो नः। उ० ३।६। इति सु+पॄ पालनपूरणयोः−न। शोभनपालनः, शोभनपूरणः परमेश्वरः। जातः। प्रादुर्भूतः। प्रसिद्धः। प्रथमः। १।१२।१। आद्यः, अग्रिमः, उत्तमः। पित्तम्। अपि+देङ् पालने, दो छेदने वा−क्त। अच उपसर्गात् तः। पा० ७।४।४७। इति तादेशः, अपेरल्लोपः। अपि अवश्यं दयते पालयति सुगुणान्, अथवा द्यति नाशयति दुर्गुणान् तत् पित्तम्। वीर्यम् अथवा शरीरस्थधातुविशेषः। तत्पर्यायः तेजः, उष्मा, अग्निः। तस्य कर्माणि। “पाचकं पचते भुक्तं शेपाग्निबलवर्धनम्। रसमूत्रपुरीषाणि विरेचयति नित्यशः” ॥१॥ इति शब्दकल्पद्रुमे। आसिथ। अस दीप्तिग्रहणगतिषु−लिट्। त्वं गृहीतवती प्राप्तवती। तत्। तदा। आसुरी। १।१०।१। असुरस्य इयम्। मायायामण्। पा० ४।४।१२४। इति असुर−अण्। टिड्ढाणञ्द्वयसज्०। पा० ४।१।१५। इति ङीप्। माया=प्रज्ञा−निघ० ३।९। असुरस्य दीप्यमानस्य परमेश्वरस्य माया प्रज्ञा। युधा। युध संप्रहारे−क्विप्। युद्धेन संग्रामेण विघ्ननिवारणेन। जिता। प्राप्तपराजया। वशीकृता रूपम्। १।१।१। आकारम्। सौन्दर्य्यम्। चक्रे। डुकृञ् करणे−लिट्। कृतवती, दत्तवती। वनस्पतीन्। १।११।३। वनानां सेवकानां पालकान्। वृक्षान् सृष्टिपदार्थान्, इत्यर्थः ॥१॥
विषय
आसुरी [ओषधिविशेष]
पदार्थ
१. (सुपर्ण:) = सूर्य (प्रथमः जात:) = सबसे प्रथम प्रादुर्भूत हुआ। यह सूर्य अपनी किरणों से प्राणों का सञ्चार करता हुआ सबका पालन करता है, अत: 'सुपर्ण' है। इस सुपर्ण के पित्त को आसुरी ग्रहण करती है। सूर्य की उष्णता का तत्त्व जो रोग का दहन कर देता है, उसे ही यहाँ 'पित्त' कहा गया है। कुष्ठ 'कफ-वात' का विकार है, यह पित्त उसे दूर करनेवाला होता है। हे आसुरी ओषधे! (त्वम्) = तू (तस्य) = उस 'सुपर्ण' की-सूर्य की (पित्तम्) = पित्त (आसिथ) = है, उसकी पित्त को लिये हुए है। २. (तत्) = सूर्य की पित्त को लिये हुए होने के कारण (आसरी) = प्राणशक्ति का सञ्चार करनेवाली यह ओषधि (युधा) = रोगों के साथ युद्ध के द्वारा (जिता) = [जितम् अस्या अस्ति इति]-विजयवाली होती है। युद्ध के द्वारा रोगों पर विजय प्राप्त करके यह (वनस्पतीन्) = [ Arn ascetic तपस्वी] तपस्वियों को (रूपं चक्रे) = फिर से प्रशस्त रूपवाला बना देती है। ३. वनस्पति शब्द यहाँ शरीर के पति, अर्थात् जितेन्द्रिय का वाचक है। आसुरी ओषधि के प्रयोग के साथ तपस्वी जीवन भी नितान्त आवश्यक है। भोजनाच्छादन का कठोर नियम किये बिना यह ओषधि कुष्ठ का निवारण करके सुरूप प्रदान करने में समर्थ नहीं। वनस्पतियों-तपस्वियों को यह औषधि रूपवाला कर सकती है।
भावार्थ
आसुरी ओषधि में सूर्य का पित्ताश है। इससे बह तपस्वी को कुष्ठ का निवारण करके सुरूप प्रदान करती है।
भाषार्थ
(सुपर्णः) उत्तम पणों अर्थात् पंखोंवाला [गरुड़] (प्रथमः) आदिभूत हुआ, अथवा (प्रथमः प्रतमः) प्रकृष्टतम अति प्रकृष्ट, (जातः) उत्पन्न हुआ, (तस्य) उसकी (त्वम्) तू [हे ओषधि !] (पित्तम् ) पित्तरूप (आसिथ) हुई थी। (तत् ) वह पित्त ( आसुरी) प्राणवान् मनुष्य की शक्तिरूपा हुआ, (युधा) उसने युद्ध द्वारा (जिता)१ किलास रोग पर विजय पाई और (वनस्पतीन्) वनस्पतियों को (रूपम्)२ निज पित्त रूप (चक्रे) कर लिया।
टिप्पणी
[अभिप्राय यह कि गरुड़ पक्षी के शरीर से प्रथम या प्रकृष्टतम पित्त पैदा हुआ था। वह पित्त आसुरी शक्तिरूप हुआ। आसुरी =असुरत्वम् प्राणवत्त्वम् (अनत्रत्वम्), अन प्राणने (अदादिः)। (निरुक्त १०३।३४)। वह आसुरी शक्ति है वनस्पतियाँ, रोगनिवारक ओषधियां।] [१. जितवती, जि जये अस्मात् कर्तरि क्तः (सायण)। २. अर्थात् वनस्पतियाँ भी पित्त का काम करती है। पित्त द्वारा भुक्तान्न का परिपाक होता है। पित्त के क्षीण हो जाने पर वनस्पतियाँ भी पित्त की क्षीणता को निवारित कर देती हैं। मन्त्र में युधा द्वारा पित्त की प्रबल शक्ति दर्शाई है। जैसे कोई प्रवल व्यक्ति युद्ध द्वारा निर्बल पर विजय पा लेता है वैसे पित्त ने, वनस्पतियों की अपेक्षा क्लास पर विजय पाई, उसे निराकृत किया।]
इंग्लिश (4)
Subject
Leprosy Cure
Meaning
First bom, first cure, is Suparna, the sun. You, O earth and moon, O Rajani, receive the life energy of the sun. That wonderful life energy, Asuri, received from interaction of the sun, moon and earth through photo synthesis, creates the many forms of herbs and trees.
Subject
Asuri Vanaspati-Against Leprosy
Translation
The Sun, the strong winged bird (suparna) was born first. Its gall, the pitta, you have received. The biotic force, gained by the sustained experiments and I observanions, gave that form to the plants.
Translation
First before all is created the Sun. This Rajani herb sucks the heat from the Sun. The Asuri herb is potentially powerful and changes the other herbs to its colour.
Translation
Most efficacious for healing this disease is the medicine known as suparna. O Rajni, thou possessest the healing power of Suparna. Asuri named medicine, lends its color and shape to different plants, and is made serviceable through pulverization.
Footnote
This verse is rather difficult, Suparna and Asuri are the names of medicines. This disease refers to whiteness of the skin ( Phulveri ). Suparna may also mean, the sun, whose rays lend warmth to plants. Pt. Khem Karan Das Trivedi translates suparna as God.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
टिप्पणी−(असुर) शब्द के लिये १।१०।१। और (आसुरी) के लिये ७।३९।१। देखो। हे ओषधि ! तू रात्रि में उत्पन्न हुई है। ऐसा १।२३।१। में आया है। ऋग्वेद १०।१२९।३ में कहा है। तम॑ आसी॒त् तम॑सा गू॒ढमग्रेऽप्रके॒तं स॑लि॒लं सर्व॑मा इ॒दम्। पहिले [प्रलय काल में] अन्धकार था और यह सब अन्धकार से ढका हुआ चिह्नरहित समुद्र था। १−सु-पर्णः। धापॄवस्यज्यतिभ्यो नः। उ० ३।६। इति सु+पॄ पालनपूरणयोः−न। शोभनपालनः, शोभनपूरणः परमेश्वरः। जातः। प्रादुर्भूतः। प्रसिद्धः। प्रथमः। १।१२।१। आद्यः, अग्रिमः, उत्तमः। पित्तम्। अपि+देङ् पालने, दो छेदने वा−क्त। अच उपसर्गात् तः। पा० ७।४।४७। इति तादेशः, अपेरल्लोपः। अपि अवश्यं दयते पालयति सुगुणान्, अथवा द्यति नाशयति दुर्गुणान् तत् पित्तम्। वीर्यम् अथवा शरीरस्थधातुविशेषः। तत्पर्यायः तेजः, उष्मा, अग्निः। तस्य कर्माणि। “पाचकं पचते भुक्तं शेपाग्निबलवर्धनम्। रसमूत्रपुरीषाणि विरेचयति नित्यशः” ॥१॥ इति शब्दकल्पद्रुमे। आसिथ। अस दीप्तिग्रहणगतिषु−लिट्। त्वं गृहीतवती प्राप्तवती। तत्। तदा। आसुरी। १।१०।१। असुरस्य इयम्। मायायामण्। पा० ४।४।१२४। इति असुर−अण्। टिड्ढाणञ्द्वयसज्०। पा० ४।१।१५। इति ङीप्। माया=प्रज्ञा−निघ० ३।९। असुरस्य दीप्यमानस्य परमेश्वरस्य माया प्रज्ञा। युधा। युध संप्रहारे−क्विप्। युद्धेन संग्रामेण विघ्ननिवारणेन। जिता। प्राप्तपराजया। वशीकृता रूपम्। १।१।१। आकारम्। सौन्दर्य्यम्। चक्रे। डुकृञ् करणे−लिट्। कृतवती, दत्तवती। वनस्पतीन्। १।११।३। वनानां सेवकानां पालकान्। वृक्षान् सृष्टिपदार्थान्, इत्यर्थः ॥१॥
बंगाली (1)
पदार्थ
(সুপর্ণঃ) অতিশয় রপূর্ণ পরমেশ্বরের (প্রথমঃ) সকলের আদি (জাতঃ) প্রসিদ্ধ । (তস্য) সেই পরমেশ্বরের (পিত্তম্) পিত্তকে হে ওষধি (ত্বম্) তুমি (আসিথ) পাইয়াছিলে। (তৎ) তোমার (য়ুধা) সংগ্রাম দ্বারা (জিতা) লব্ধ (আসুরী) প্রকাশময় পরমেশ্বরের প্রজ্ঞা (বনস্পতীন্) বৃক্ষাদিকে (রূপং) রূপ (চক্রে) দান করিয়াছে।।
भावार्थ
পূর্ণতম পরমেশ্বর সকলের আদি ও প্রসিদ্ধ । হে ওষধি! তুমি সেই পরমেশ্বরের বলকে লাভ করিয়াছ। তোমার সংগ্রামে লব্ধ পরমেশ্বরের প্রজ্ঞা বৃক্ষাদির রূপকে দান করিয়াছ।।
পরমেশ্বর সৃষ্টির পূর্ব হইতেই বিদ্যমান আছেন। তাহার নিত্য শক্তি হইতে ওষধির মধ্যে পোষণ শক্তি বর্তমান থাকে অন্ন ও তৃণাদির বীজ যেমন গ্রীষ্ম ও শীত ঋতুওত ভূমির মধ্যে অপ্রকাশিত অবস্থায় থাকে কিন্তু বৃষ্টির জল পাইলেই অঙ্কুরিত হয় তেমন পরমেশ্বরের শক্তি যুদ্ধ বা প্রলয়ের অন্ধকারের পরে প্রকাশিত হয়। ‘তম আসীং তমব গূঢ় মগ্রেহপ্রকেতঃ সলিলং সর্বমা ইদম্। ঋ০ ১০.১২৯.৩ অর্থাৎ সৃষ্টির পূর্বে প্রলয়কালে অন্ধকার ছিল। সবই তখন অন্ধকারাবৃত চিহ্ন রহিত সমূদ্র রূপে ছিল।।
मन्त्र (बांग्ला)
সুপর্ণো জাতঃ প্রথমস্তস্য ত্বং পিত্তমাসিথ । তদাসুরী য়ুধা জিতা রূপং চক্রে বনস্পতীন।।
ऋषि | देवता | छन्द
ব্রহ্মা। আসুরী বনস্পতিঃ। অনুষ্টুপ্
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