अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 35/ मन्त्र 2
ऋषिः - अथर्वा
देवता - हिरण्यम्, इन्द्राग्नी, विश्वे देवाः
छन्दः - जगती
सूक्तम् - दीर्घायु प्राप्ति सूक्त
158
नैनं॒ रक्षां॑सि॒ न पि॑शा॒चाः स॑हन्ते दे॒वाना॒मोजः॑ प्रथम॒जं ह्ये॒तत्। यो बिभ॑र्ति दाक्षाय॒णं हिर॑ण्यं॒ स जी॒वेषु॑ कृणुते दी॒र्घमायुः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठन । ए॒न॒म् । रक्षां॑सि । न । पि॒शा॒चा:। स॒ह॒नो॒ । दे॒वाना॑म् । ओज॑: । प्र॒थ॒म॒ऽजम् । हि । ए॒तत् ।य: । बिभ॑र्ति । दा॒क्षा॒य॒णम् । हिर॑ण्यम् । स: । जी॒वेषु॑ । कृ॒णु॒ते॒ । दी॒र्घम् । आयु॑: ॥
स्वर रहित मन्त्र
नैनं रक्षांसि न पिशाचाः सहन्ते देवानामोजः प्रथमजं ह्येतत्। यो बिभर्ति दाक्षायणं हिरण्यं स जीवेषु कृणुते दीर्घमायुः ॥
स्वर रहित पद पाठन । एनम् । रक्षांसि । न । पिशाचा:। सहनो । देवानाम् । ओज: । प्रथमऽजम् । हि । एतत् ।य: । बिभर्ति । दाक्षायणम् । हिरण्यम् । स: । जीवेषु । कृणुते । दीर्घम् । आयु: ॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सुवर्ण आदि धन प्राप्ति के लिये उपदेश।
पदार्थ
(न) न तो (रक्षांसि) हिंसा करनेहारे राक्षस और (न) न (पिशाचाः) मांसाहारी पिशाच (एनम्) इस पुरुष को (सहन्ते) दबा सकते हैं, (हि) क्योंकि (एतत्) यह [विज्ञान वा सुवर्ण] (देवानाम्) विद्वानों का (प्रथमजम्) प्रथम उत्पन्न (ओजः) सामर्थ्य है। (यः) जो पुरुष (दाक्षायणम्) बल की गति बढ़ानेवाले (हिरण्यम्) कमनीय तेजःस्वरूप विज्ञान वा सुवर्ण को (बिभर्ति) धारण करता है, (सः) वह (जीवेषु) सब जीवों में (आयुः) अपनी आयु को (दीर्घम्) दीर्घ (कृणुते) करता है ॥२॥
भावार्थ
जो पुरुष (प्रथमजम्) प्रथम अवस्था में गुणी माता, पिता और आचार्य से ब्रह्मचर्यसेवन करके शिक्षा पाते हैं, वह उत्साही जन सब विघ्नों को हटा कर दुष्ट हिंसकों के फंदे में नहीं फँसते हैं और वही सत्कर्मी पुरुष विज्ञान और सुवर्ण आदि धन को प्राप्त करके संसार में यश पाते हैं, इसी का नाम दीर्घ आयु करना है ॥२॥ यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में है, अ० ३४ म० ५१ ॥
टिप्पणी
२−न। निषेधे। एनम्। हिरण्यधारिणं पुरुषम्। रक्षांसि। १।२१।३। राक्षसाः, नष्टबुद्धयः स्वार्थिनः। पिशाचाः। १।१६।३। मांसभक्षिणः पिशिताशिनो महादुःखदायिनः। सहन्ते। अभिभवन्ति, बाधन्ते। देवानाम्। विदुषाम्। ओजः। १।१२।१। पराक्रमः। प्रथम-जम्। प्रथेरमच्। उ० ५।६८। इति प्रथ ख्यातौ−अमच्+जनी−ड। प्रथमतो मातापितृगुरुकारिताभ्यासत उत्पन्नम्। हि। खलु, यस्मात् कारणात्। एतत्। हिरण्यम्। यः। पुरुषः। बिभर्त्ति। भृञ् भरणधारणपोषणेषु−जुहोत्यादित्वात् शपः श्लुः। दधाति। दाक्षायणम्। म० १। बलस्य गतियुक्तम्, परमोत्साहवर्धकम्। हिरण्यम्। म० १। कमनीयं विज्ञानं सुवर्णादिकं वा। जीवेषु। इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः। पा० ३।१।१३५। इति जीव प्राणने−क। प्राणिषु। कृणुते। कृञ् हिंसाकरणयोः, स्वादिः। करोति। दीर्घम्। म० १। दॄ विदारणे−घञ्। लम्बमानम्। आयुः। म० १। इण्−उसि। जीवनम् ॥
विषय
दाक्षायण-हिरण्य
पदार्थ
१. (एनम) = गतमन्त्र में वर्णित हिरण्य को (रक्षांसि) = अपने रमण के लिए औरों का क्षय करनेवाले रोगकृमि [parasites] (न सहन्ते) = सहन नहीं कर पाते, अर्थात् इस हिरण्य से इनका हरण हो जाता है। इसीप्रकार (पिशाचा:) = हमारे मांस को ही खा जानेवाले कैंसर आदि रोगों के कृमि भी इस हिरण्य को नहीं सह सकते। इसके द्वारा उनका भी विनाश होता है। (यः) = जो भी व्यक्ति (दाक्षायणं हिरण्यम्) = सब प्रकार की उन्नतियों के कारणभूत-रोगकृमि-विनाशक इस वीर्य को (बिभर्ति) = धारण करता है, (स:) = वह (जीवेषु) = प्राणियों में (दीर्घम् आयुः) = दीर्घ जीवन को (कृणुते) = सिद्ध करता है। रोगकृमियों के नाश से नीरोग शरीर, पूर्णायुष्य तक क्यों न चलेगा?
भावार्थ
वीर्यरक्षण से रोग नहीं आते और आयुष्य का भङ्ग [रुजो भङ्गे] न होने से मनुष्य दीर्घजीवी होता है।
भाषार्थ
(न एनम्) न इसे (रक्षांसि) राक्षसी कर्म, (न पिशाचा:) न पैशाची कर्म (सहन्ते) पराभूत करते हैं, (हि) निश्चय से (एतत् ओज:) यह ओज (प्रथमजम्) प्रथम आश्रम में पैदा होता है, (देवानाम्) और इन्द्रिय देवों का है। (यः) जो (दाक्षायणम् ) दक्ष अर्थात् वृद्धि और बल के अयन अर्थात् निवासभूत, (हिरण्यम्) हिरण्यसदृश बहुमूल्य वीर्य का (बिभर्त्ति) धारण-पोषण करता है (सः) वह ( जीवेषु ) जीवितों में ( आयुः) निज आयु को (दीर्घम्) दीर्घ (कृणुते) करता है ।
टिप्पणी
[देवानाम् = नैनद् देवा आप्नुवन् पूर्वमर्षत् (यजु:० ४०।४)। देवा द्योतनात्मकाः चक्षुरादीनीन्द्रियाणि (महीधर)। राक्षसी कर्म है तामसिक, तमोगुण प्रधान और पैशाचीकर्म हैं राजसिक, रजोगुणप्रधान। "ओजः = शरीरधारको बलहेतुः अष्टमो धातुविशेषः। हिरण्यं रेतोरूपं तेजः" (सायण)। यतः हिरण्य है "रेतो-रूप ओज"। अतः इसका "अबध्नन्” (मन्त्र १) रस्सी द्वारा सम्भव नहीं हो सकता, अपितु शरीर में ही बन्धन सम्भव है, अर्थात् च्युत न होने देना है, ऊर्ध्वरेताः होना रूपी बन्धन है।]
विषय
दीर्घ जीवन का उपाय।
भावार्थ
( एनं ) वीर्य की रक्षा करने हारे ब्रह्मचारी को ( रक्षांसि ) विघ्नकारी दुष्टभाव और ज्वरादि पीड़ाएं और ( पिशाचाः ) मांसभोजी पुरुष और दुर्बल करने हारे रोग कभी ( न ) नहीं ( सहन्ते ) दबा सकते, क्योंकि ( एतत् ) यह वीर्यरूप सुवर्ण, कान्तिकारी मूल पदार्थ ( देवानां ) समस्त इन्द्रियों में और विद्वानों में ( प्रथमजं ) सबसे पूर्व और श्रेष्ठ ( ओजः ) ओज, तेज रूप हैं। ( यः ) जो ऊर्ध्वरेता पुरुष ( दाक्षायणं ) मुख्य प्राण में आश्रित इस (हिरण्यं) हितकारी, रमणीय पदार्थ शुक्र को ( बिभर्ति ) यत्नपूर्वक धारण, रक्षा करता है (सः) वह ( जीवेषु ) जीवों में ( आयुः ) अपने आयु, जीवन काल को ( दीर्घं ) बहुत लम्बा, अधिक (कृणुते ) करलेता है ।
टिप्पणी
“ओजो हि शरीरधारको बलहेतुरष्टमो धातुविशेषः।” न तद्रक्षांसि न पिशाचास्तरन्ति, देवानामोज: प्रथमं ह्येतत्। यो बिभर्त्ति दाक्षायणं हिरण्यं स देवेषु कृणुतेदीर्घमायुः। स मनुष्येषु कृणुते दीर्घमायुः। इति याजुषोमन्त्रपाठः ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
आयुष्कमोऽथर्वा ऋषिः। हिरण्यं विश्वेदेव वा देवताः। १-३ जगत्यः। ४ अनुष्टुप् गर्भा चतुष्पदा त्रिष्टुप्। चतुर्ऋचं सूक्तम् ।
इंग्लिश (4)
Subject
Health, Efficiency and Long Age
Meaning
That golden glow of discipline, demons and ogres cannot violate, nor can they challenge it. It is the splendour of divines, first born of Mother Nature. One who commands this golden discipline of life and living with efficiency and success lives a long life among humanity.
Translation
The pests and the blood suckers cannot stand against him, as this is the first born vigour of the bounties of Nature. He, who wears the gold got from the children of dexterous, leads a long life-among the living ones.
Translation
The germs of various diseases cannot overcome the effectivity of this, various fatal diseases cen not empower over its influence as this gold is the essential product of the egnroious elements, He who uses the calacined gold give long life to living creatures.
Translation
No fiends and deadly diseases, no cannibals and wasting ailments can conquer him, who preserves his semen, which is the luster of the learned, and their primal offspring. He who preserves this invigorating semen, precious like gold, prolongs his life among the sages.
Footnote
See Yajur, 34-51.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−न। निषेधे। एनम्। हिरण्यधारिणं पुरुषम्। रक्षांसि। १।२१।३। राक्षसाः, नष्टबुद्धयः स्वार्थिनः। पिशाचाः। १।१६।३। मांसभक्षिणः पिशिताशिनो महादुःखदायिनः। सहन्ते। अभिभवन्ति, बाधन्ते। देवानाम्। विदुषाम्। ओजः। १।१२।१। पराक्रमः। प्रथम-जम्। प्रथेरमच्। उ० ५।६८। इति प्रथ ख्यातौ−अमच्+जनी−ड। प्रथमतो मातापितृगुरुकारिताभ्यासत उत्पन्नम्। हि। खलु, यस्मात् कारणात्। एतत्। हिरण्यम्। यः। पुरुषः। बिभर्त्ति। भृञ् भरणधारणपोषणेषु−जुहोत्यादित्वात् शपः श्लुः। दधाति। दाक्षायणम्। म० १। बलस्य गतियुक्तम्, परमोत्साहवर्धकम्। हिरण्यम्। म० १। कमनीयं विज्ञानं सुवर्णादिकं वा। जीवेषु। इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः। पा० ३।१।१३५। इति जीव प्राणने−क। प्राणिषु। कृणुते। कृञ् हिंसाकरणयोः, स्वादिः। करोति। दीर्घम्। म० १। दॄ विदारणे−घञ्। लम्बमानम्। आयुः। म० १। इण्−उसि। जीवनम् ॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(রক্ষাংসি) হিংসক রাক্ষস ও (পিশাচাঃ) মাংসাহারী পিশাচ (এনম্) এই পুরুষকে (ন সহন্তে ন) পরাজয় করিতে পারে না (হি) কেননা (এতৎ) এই সুবর্ণ (দেবানাং) বিদ্বানদের (প্রথমজং) প্রথম উৎপন্ন (ওজঃ) সামর্থ । (য়ঃ) যে ব্যক্তি (দাক্ষায়নং) বল বর্ধক (হিরণ্যং) সুবর্ণকে (বিভর্ত্তি) ধারণ করে (সঃ) সেই (জীবেষু) সব জীবের মধ্যে (আয়ুঃ) আয়ুকে (দীর্ঘং) দীর্ঘ (কৃণুতে) করে।।
भावार्थ
হিংসক রাক্ষস বা মাংসাহারী পিশাচ এই পরুষকে পরাজয় করিতে পারে না কেননা এই সুবর্ণ বিদ্বানদের নিকট সর্বশ্রেষ্ঠ সামর্থ রূপে থাকে। যে ব্যক্তি বলবর্ধক সবর্ণকে ধারণ করে সে সব জীবের মধ্যে দীর্ঘায়ু লাভ করে।।
मन्त्र (बांग्ला)
নৈনং রক্ষাংসি ন পিশাচাঃ সহন্তে দেবানামোজঃ প্রথমজং হ্যে ৩ তৎ। য়ো বিভর্ত্তি দাক্ষায়ণং হিরণ্যং সজীবেষু বৃণুতে দীর্ঘমায়ুঃ।।
ऋषि | देवता | छन्द
অর্থবা (আয়ুষ্কামঃ)। হিরণ্যম্। জগতী
मन्त्र विषय
(সুবর্ণাদিধনলাভোপদেশঃ) সুবর্ণ আদি ধন প্রাপ্তির জন্য উপদেশ
भाषार्थ
(ন) না তো (রক্ষাংসি) হিংসাকারী/হিংসুক রাক্ষস এবং (ন) না (পিশাচাঃ) মাংসাহারী পিশাচ (এনম্) এই পুরুষকে (সহন্তে) দমন করতে পারে, (হি) কেননা (এতৎ) এই [বিজ্ঞান বা সুবর্ণ] (দেবানাম্) বিদ্বানদের (প্রথমজম্) প্রথম উৎপন্ন (ওজঃ) সামর্থ্য। (যঃ) যে পুরুষ (দাক্ষায়ণম্) বলের গতি বর্ধনকারী (হিরণ্যম্) কমনীয় তেজঃস্বরূপ বিজ্ঞান বা সুবর্ণকে (বিভর্তি) ধারণ করেন, (সঃ) তিনি (জীবেষু) সব জীবের মধ্যে (আয়ুঃ) নিজের আয়ুকে (দীর্ঘম্) দীর্ঘ (কৃণুতে) করেন ॥২॥
भावार्थ
যে পুরুষ (প্রথমজম্) প্রথম অবস্থায় গুণী মাতা, পিতা এবং আচার্য থেকে ব্রহ্মচর্য সেবন করে শিক্ষা প্রাপ্ত করে, সেই উৎসাহী ব্যক্তি সব বিঘ্নকে দূর করে দুষ্ট হিংসকদের বন্ধনে পড়েন না এবং সেই সৎকর্মী পুরুষ বিজ্ঞান এবং সুবর্ণ আদি ধন প্রাপ্ত করে সংসারে যশ প্রাপ্ত হন, এর নামই আয়ু দীর্ঘ করা॥২॥ এই মন্ত্র কিছু ভেদে যজুর্বেদে রয়েছে, অ০ ৩৪ ম০ ৫১ ॥
भाषार्थ
(ন এনম্) না একে (রক্ষাংসি) রাক্ষসী কর্ম, (ন পিশাচাঃ) না পৈশাচিক কর্ম (সহন্তে) পরাজিত করে, (হি) নিশ্চিতরূপে (এতৎ ওজঃ) এই ওজ (প্রথমজম্) প্রথম আশ্রমে জন্ম হয়, (দেবানাম্) এবং ইন্দ্রিয়-দেবতাদের। (যঃ) যে (দাক্ষায়ণম্) দক্ষ অর্থাৎ বৃদ্ধি ও বলের অয়ন অর্থাৎ নিবাসভূত, (হিরণ্যম্) হিরণ্যসদৃশ বহুমূল্য বীর্যের (বিভর্তি) ধারণ-পোষণ করে (সঃ) সে (জীবেষু) জীবিতদের মধ্যে (আয়ুঃ) নিজ আয়ুকে (দীর্ঘম্) দীর্ঘ (কৃণুতে) করে।
टिप्पणी
[দেবানাম্ =নৈনদ্ দেবা আপ্নুবন্ পূর্বমর্ষৎ (যজু০ ৪০।৪)। দেবা দ্যোতনাত্মকাঃ চক্ষুরাদীনীন্দ্রিয়াণি (মহীধর)। রাক্ষসী কর্ম হলো তামসিক, তমোগুণপ্রধান এবং পৈশাচিককর্ম হলো রাজসিক, রজোগুণপ্রধান। "ওজঃ = শরীরধারকো বলহেতুঃ অষ্টমো ধাতুবিশেষঃ। হিরণ্যং রেতোরূপং তেজঃ" (সায়ণ)। যতঃ হিরণ্য হলো "রেতো-রূপ ওজ"। অতএব ইহার "অবধ্নন্" (মন্ত্র ১) রজ্জু দ্বারা সম্ভব হতে পারে না, বরং শরীরেই বন্ধন সম্ভব, অর্থাৎ বিচ্ছিন্ন হতে না দেওয়া, ঊর্ধ্বরেতাঃ হওয়া রূপী বন্ধন।]
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