अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 35/ मन्त्र 3
ऋषिः - अथर्वा
देवता - हिरण्यम्, इन्द्राग्नी, विश्वे देवाः
छन्दः - जगती
सूक्तम् - दीर्घायु प्राप्ति सूक्त
105
अ॒पां तेजो॒ ज्योति॒रोजो॒ बलं॑ च॒ वन॒स्पती॑नामु॒त वी॒र्या॑णि। इन्द्र॑ इवेन्द्रि॒याण्यधि॑ धारयामो अ॒स्मिन्तद्दक्ष॑माणो बिभर॒द्धिर॑ण्यम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒पाम् । तेज॑: । ज्योति॑: । ओज॑: । बल॑म् । च॒ । वन॒स्पती॑नाम् । उ॒त । वी॒र्याणि । इन्द्रे॑ऽइव । इ॒न्द्रि॒याणि॑ । अधि॑ । धा॒र॒या॒म॒: । अ॒स्मिन् । तत् । दक्ष॑माण: । बि॒भ॒र॒त् । हिर॑ण्यम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अपां तेजो ज्योतिरोजो बलं च वनस्पतीनामुत वीर्याणि। इन्द्र इवेन्द्रियाण्यधि धारयामो अस्मिन्तद्दक्षमाणो बिभरद्धिरण्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठअपाम् । तेज: । ज्योति: । ओज: । बलम् । च । वनस्पतीनाम् । उत । वीर्याणि । इन्द्रेऽइव । इन्द्रियाणि । अधि । धारयाम: । अस्मिन् । तत् । दक्षमाण: । बिभरत् । हिरण्यम् ॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सुवर्ण आदि धन प्राप्ति के लिये उपदेश।
पदार्थ
(अपाम्) प्राणों वा प्रजाओं के (तेजः) तेज, (ज्योतिः) कान्ति, (ओजः) पराक्रम (च) और (बलम्) बल को (उत) और भी (वनस्पतीनाम्) सेवनीय गुणों के रक्षक विद्वानों की (वीर्याणि) शक्तियों को (अस्मिन् अधि) इस [पुरुष] में (धारयामः) हम धारण करते हैं, (इव) जैसे (इन्द्रे) बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष में (इन्द्रियाणि) इन्द्र के चिह्न, [बड़े-बड़े ऐश्वर्य] होते हैं। [इसलिये] (दक्षमाणः) वृद्धि करता हुआ यह पुरुष (तत्) उस (हिरण्यम्) कमनीय विज्ञान वा सुवर्ण आदि को (बिभ्रत्) धारण करे ॥३॥
भावार्थ
विद्वानों के सत्सङ्ग से महाप्रतापी, विक्रमी, तेजस्वी, गुणी पुरुष वृद्धि करके विज्ञान और धनसंचय करे और सामर्थ्य बढ़ावे ॥३॥
टिप्पणी
३−अपाम्। आप्नोतेर्ह्रस्वश्च। उ० २।५८। इति आप्लृ व्याप्तौ−क्विप्। आप्नुवन्ति शरीरमिति आपः। प्राणानाम्। आप्तानां प्रजानां वा। यथा श्रीमद्दयानन्दभाष्ये। आपः=प्राणा जलानि वा। यजुः ४।७। पुनः। आप्ताः प्रजाः। य० ६।२७। तेजः। तिज निशाने−असुन्। दीप्तिः, कान्तिः। रेतः, सारः। ज्योतिः। १।९।१। प्रकाशः, कान्तिः। ओजः। म० २। पराक्रमः। बलम्। म० १ सामर्थ्यम्। शौर्य्यम्। वनस्पतीनाम्। १।१२।३। वन+पतिः, सुट् च। वृक्षाणाम्। अथवा। सेवनीयगुणपालकानां सज्जनानां पालकानाम्। यथा श्रीमद्दयानन्दभाष्ये यजु० २७।२१। वनस्पते =वनस्य संभजनीयस्य शास्त्रस्य पालक। वीर्याणि। १।७।५। सामर्थ्यानि। रेतांसि। इन्द्रे। १।२।३। परमैश्वर्यवति पुरुषे। इन्द्रियाणि। इन्द्रियमिन्द्रलिङ्गमिन्द्रदृष्टमिन्द्रसृष्टमिन्द्रजुष्टमिन्द्रदत्तमिति वा। पा० ५।२।९३। इन्द्रस्य लिङ्गानि चिह्नानि। परमैश्वर्याणि, धनादीनि। अधि। उपरि। धारयामः। स्थापयामः। अस्मिन्। पुरुषे। तत्। तस्मात् कारणात्। दक्षमाणः। दक्ष वृद्धौ−शानच्। वर्धमानः पुरुषः। बिभरत्। डुभृञ् धारणपोषणयोः−लेट्। धारयेत्, बिभर्तु। हिरण्यम्। म० १। कमनीयं धनम् ॥
विषय
जलों व वनस्पतियों का सेवन
पदार्थ
१. गतमन्त्र में वर्णित हिरण्य क्या है? इसका उत्तर देते हुए करते हैं-यह (अपाम) = जलों का (तेज:) = तेज है, यह (ज्योतिः) = जलों की ज्योति है, (ओजः बलं च) = यह जलों का ओज व बल है। जलों से उत्पन्न हुआ यह तेज अन्नमयकोश को तेजस्वी बनाता है, विज्ञानमयकोश को ज्योतिर्मय और मनोमय कोश को ओजस्वी व बलवान् बनाता है। २. (उत) = और यह हिरण्य (वनस्पतीनां वीर्याणि) = वनस्पतियों के वीर्य हैं। यह हिरण्य क्या है? वानस्पतिक पदार्थों के सेवन से शरीर में उत्पन्न हुई यह प्राणमयकोश को वीर्यवान बनाती है। ३. इस हिरण्य के शरीर में रक्षण के लिए हम (इन्द्रः इव) = एक जितेन्द्रिय पुरुष की भांति (इन्द्रियाणि) = इन्द्रियों को (अधिधारयामः) = आधिक्येन धारण करते हैं-इन्द्रियों को अपने वश में करते हैं। इन्द्रियों को वश में करने से ही इनका रक्षण हो सकता है। ४. इसप्रकार इन्द्रियों को वश में करनेवाला (दक्षमाण:) = सब प्रकार की उन्नति चाहनेवाला पुरुष (अस्मिन्) = इस शरीर में (तत्) = उस (हिरण्यम्) = हितरमणीय वीर्य को (बिभरत्) = धारण करता है।
भावार्थ
शरीर में धारण किया गया जलों व वनस्पतियों से उत्पन्न 'हिरण्य' अन्नमयकोश को तेजस्वी बनाता है, प्राणमयकोश को वीर्यसम्पन्न, मनोमयकोश को ओजस्वी व बलवान् तथा विज्ञानमयकोश को ज्योतिर्मय।
भाषार्थ
["यह रेतोरूप ओज"] (अपां तेजः) रक्तरूपी आप: का तेज, ज्योति, ओज, और बल है, (उत) तथा (वनस्पतीनाम्) वनस्पतियों के, (वीर्याणि) वीर्यों रूप है। (इव) जैसेकि (इन्द्रे अधि) जीवात्मा (इन्द्रियाणि) इन्द्रशक्तियाँ धारित हैं वैसे (अस्मिन् ) इस ब्रह्मचारी में, हम आचार्य ऐन्द्रियिक बल या वीर्य (धारयामः) स्थापित करते हैं, (तत्) उस (हिरण्यम्) हिरण्यसदृश बहुमूल्य वीर्य को, (दक्षिण:) वृद्धि और बल प्राप्त होता हुआ ब्रह्मचारी (बिभरत्) परिपुष्ट करे।
टिप्पणी
[शरीरस्थ वीर्य वनस्पतियों के खाने से पैदा होता है, अतः वानस्पत्य है, वनस्पतियों का परिणामरूप है। हिरण्य अर्थात् वीर्य "अपाम्" तेजः, ज्योतिः आदि रूप है। यह "आप" शरीरस्थ रक्तरूप हैं, जोकि विधिपूर्वक शरीर में स्थापित किये गये हैं। यथा, "को अस्मिन्नापो व्यदधाद् विषूवृतः पुरुवृतः सिन्धुसूत्याय जाताः। तीव्रा अरुणा लौहिनीस्ताम्रधूम्रा ऊर्ध्वा अपाचीः पुरुषे तिरश्चीः ।" (अथर्व० १०।२।११)। मन्त्र में सिन्धु है हृदय। व्याख्या यथा स्थान में देखो। सामान्य आपः में मन्त्रोक्त गुण नहीं होते।]
विषय
दीर्घ जीवन का उपाय।
भावार्थ
( इन्द्रः ) इन्द्र आत्मा ( इन्द्रियाणि इव ) जिस प्रकार इन्द्रियों को बल धारण कराता है उसी प्रकार (अपां) वीर्य का ( तेजः ) सामर्थ्य, ( ज्योतिः ) कान्ति, (ओजः ) ओज, (बलं ) बल, (च) और ( बनस्पतीनाम् ) बनस्पतियों या प्राणों के (उत ) भी (वीर्याणि) रसादि सामर्थ्यो को हम ( अस्मिन्) इस ब्रह्मचारी में ( धारयामः धारण कराते हैं। यह ब्रह्मचारी (दक्षमाणः ) बल और शौर्य में बराबर वृद्धि करता हुआ (तत्) उस परम ( हिरण्यं ) वीर्य को ( बिभरत् ) धारण करे।
टिप्पणी
‘इन्द्र इवाधिधारयामो’ इति व्यड्गः पाठः ह्विटनिकामितः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
आयुष्कमोऽथर्वा ऋषिः। हिरण्यं विश्वेदेव वा देवताः। १-३ जगत्यः। ४ अनुष्टुप् गर्भा चतुष्पदा त्रिष्टुप्। चतुर्ऋचं सूक्तम् ।
इंग्लिश (4)
Subject
Health, Efficiency and Long Age
Meaning
Just as Indra, the soul, bears and commands the senses and mind with self-control, so do we help this young man to bear and preserve the glow of nature’s fluid energies, light of life and vigour and vitality of all the herbal essences since he conscientiously holds on to the golden discipline of continence in daily living.
Translation
Brilliance, light, vigour and power of the waters as well as potencies of the plant we lay in him just as the capabilities abide in the resplendent Lord. Whosoever wants to become dexterous, let him wear gold.
Translation
We put in him (the man) the lusture, the power, and strength of watery substances and the Strength and Vigours of the Plants as Indra, mighty electricity has in it the all electrical strength. Let he have this gold in his use.
Translation
The light, the power, the luster of semen, the strength of the learned, and all their forceful vigor, we lay on this Brahmchari, as powers reside in the soul ; so let him preserve this golden semen and show his valour.
Footnote
See Yajur, 27-21. Swami Dayananda translates वनस्पति as a learned person. Brahmchari: A person who observes the vow of celibacy.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−अपाम्। आप्नोतेर्ह्रस्वश्च। उ० २।५८। इति आप्लृ व्याप्तौ−क्विप्। आप्नुवन्ति शरीरमिति आपः। प्राणानाम्। आप्तानां प्रजानां वा। यथा श्रीमद्दयानन्दभाष्ये। आपः=प्राणा जलानि वा। यजुः ४।७। पुनः। आप्ताः प्रजाः। य० ६।२७। तेजः। तिज निशाने−असुन्। दीप्तिः, कान्तिः। रेतः, सारः। ज्योतिः। १।९।१। प्रकाशः, कान्तिः। ओजः। म० २। पराक्रमः। बलम्। म० १ सामर्थ्यम्। शौर्य्यम्। वनस्पतीनाम्। १।१२।३। वन+पतिः, सुट् च। वृक्षाणाम्। अथवा। सेवनीयगुणपालकानां सज्जनानां पालकानाम्। यथा श्रीमद्दयानन्दभाष्ये यजु० २७।२१। वनस्पते =वनस्य संभजनीयस्य शास्त्रस्य पालक। वीर्याणि। १।७।५। सामर्थ्यानि। रेतांसि। इन्द्रे। १।२।३। परमैश्वर्यवति पुरुषे। इन्द्रियाणि। इन्द्रियमिन्द्रलिङ्गमिन्द्रदृष्टमिन्द्रसृष्टमिन्द्रजुष्टमिन्द्रदत्तमिति वा। पा० ५।२।९३। इन्द्रस्य लिङ्गानि चिह्नानि। परमैश्वर्याणि, धनादीनि। अधि। उपरि। धारयामः। स्थापयामः। अस्मिन्। पुरुषे। तत्। तस्मात् कारणात्। दक्षमाणः। दक्ष वृद्धौ−शानच्। वर्धमानः पुरुषः। बिभरत्। डुभृञ् धारणपोषणयोः−लेट्। धारयेत्, बिभर्तु। हिरण्यम्। म० १। कमनीयं धनम् ॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(অপাং) প্রজাদের (তেজঃ) তেজ (জ্যোতিঃ) কান্তি (ওজঃ) পরাক্রম (চ) এবং (বলম্) বলকে (উত) এবং (বনস্পতিনাম্) সেবনীয় গুণ সমূহের রক্ষক বিদ্বানদের (বীর্য়ানি) শক্তিকে (অস্মিন্ অধি) এই আমার মধ্যে (ধারয়ামঃ) ধারণ করি। (ইব) যেমন (ইন্দ্রে) ঐশ্বর্যবান পুরুষের মধ্যে (ইন্দ্রিয়ানি) ঐশ্বর্যের চিহ্ন থাকে। (দক্ষমাণঃ) উন্নতিশীল এই পুরুষ (তৎ) সেই (হিরণ্যং) সুবর্ণকে (বিভরৎ) ধারণ করুন।।
भावार्थ
ঐশ্বর্যবান পুরুষেরা ঐশ্বর্যের চিহ্ন যেমন ধারণ করে তেমন প্রজাদের তেজ, কান্তি, ওজ, পরাক্রম, বল ও বিদ্বানদের শক্তিকে আমার মধ্যে ধারণ করি। উন্নতিশীল এই ব্যক্তি সেই সুবর্ণকে ধারণ করুক।।
मन्त्र (बांग्ला)
অপাং তেজো জ্যোতিরোজো বলং চ বনস্পতীনামুত বীৰ্য্যাণি। ইন্দ্র ইবেন্দ্রিয়ান্যধি ধারয়ামো অস্মিন্ তদ্ দক্ষমাণো বিবর দ্ধিরণ্যম্।।
ऋषि | देवता | छन्द
অর্থবা (আয়ুষ্কামঃ)। হিরণ্যম্। জগতী
मन्त्र विषय
(সুবর্ণাদিধনলাভোপদেশঃ) সুবর্ণ আদি ধন প্রাপ্তির জন্য উপদেশ
भाषार्थ
(অপাম্) প্রাণসমূহের বা প্রজাদের (তেজঃ) তেজ, (জ্যোতিঃ) কান্তি, (ওজঃ) পরাক্রম (চ) এবং (বলম্) বলকে (উত) এবং (বনস্পতীনাম্) সেবনীয় গুণসমূহের রক্ষক বিদ্বানদের (বীর্যাণি) শক্তিসমূহকে (অস্মিন্ অধি) এই [পুরুষে] (ধারয়ামঃ) আমরা ধারণ করি, (ইব) যেরূপ (ইন্দ্রে) বৃহৎ ঐশ্বর্যশালী পুরুষে (ইন্দ্রিয়াণি) ইন্দ্রের চিহ্ন [উত্তম-উত্তম ঐশ্বর্য] বিদ্যমান থাকে। [এজন্য] (দক্ষমাণঃ) বর্ধমান এই পুরুষ (তৎ) সেই (হিরণ্যম্) কমনীয় বিজ্ঞান বা সুবর্ণ আদি (বিভ্রৎ) ধারণ করেন ॥৩॥
भावार्थ
বিদ্বানদের সৎসঙ্গ দ্বারা মহাপ্রতাপী, বিক্রমী, তেজস্বী, গুণী পুরুষ বৃদ্ধি করে বিজ্ঞান এবং ধনসঞ্চয় করবেন এবং সামর্থ্য বৃদ্ধি করবেন ॥৩॥
भाषार्थ
["এই রেতোরূপ ওজ"] (অপাং তেজঃ) রক্তরূপী আপঃ এর তেজ, জ্যোতি, ওজ, এবং বল, (উত) এবং (বনস্পতীনাম্) বনস্পতি-সমূহের, (বীর্যাণি) বীর্য রূপ। (ইব) যেমন (ইন্দ্র অধি) জীবাত্মায় (ইন্দ্রিয়াণি) ইন্দ্রশক্তি ধারিত রয়েছে সেভাবেই (অস্মিন) এই ব্রহ্মচারীর মধ্যে, আমরা আচার্য ঐন্দ্রিয়িক বল বা বীর্য (ধারয়ামঃ) স্থাপিত করি, (তৎ) সেই (হিরণ্যম্) হিরণ্যসদৃশ বহুমূল্য বীর্যকে, (দক্ষমাণঃ) বৃদ্ধি ও বল প্রাপ্ত হয়ে ব্রহ্মচারী (বিভরৎ) পরিপুষ্ট হোক।
टिप्पणी
[শরীরস্থ বীর্য বনস্পতি ভোজন করলে উৎপন্ন হয়, অতঃ বানস্পত্য, বনস্পতির পরিণামরূপ। হিরণ্য অর্থাৎ বীর্য "অপাম্" তেজঃ, জ্যোতিঃ আদি রূপ। এই "আপ" শরীরস্থ রক্তরূপ যা বিধিপূর্বক শরীরে স্থাপিত করা হয়েছে। যথা, "কো অস্মিন্নাপো ব্যদধাদ্ বিষূবৃতঃ পুরুবৃতঃ সিন্ধুসৃত্যায় জাতাঃ। তীব্রা অরুণা লৌহিনীস্তাম্রধুম্রা ঊর্ধ্বা অপাচীঃ পুরুষে তিরশ্চী।" (অথর্ব০ ১০।২।১১)। মন্ত্রে সিন্ধু হলো হৃদয়। ব্যাখ্যা যথা স্থানে দেখো। সামান্য আপঃ-এর মধ্যে মন্ত্রোক্ত গুণ থাকে না।]
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal