अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 34
ऋषिः - अथर्वा, क्षुद्रः
देवता - स्कन्धः, आत्मा
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
65
यस्य॒ वातः॑ प्राणापा॒नौ चक्षु॒रङ्गि॑र॒सोऽभ॑वन्। दिशो॒ यश्च॒क्रे प्र॒ज्ञानी॒स्तस्मै॑ ज्ये॒ष्ठाय॒ ब्रह्म॑णे॒ नमः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । वात॑: । प्रा॒णा॒पा॒नौ । चक्षु॑: । अङ्गि॑रस: । अभ॑वन् । दिश॑: । य: । च॒क्रे । प्र॒ऽज्ञानी॑: । तस्मै॑ । ज्ये॒ष्ठाय॑ । ब्रह्म॑णे । नम॑: ॥७.३४॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्य वातः प्राणापानौ चक्षुरङ्गिरसोऽभवन्। दिशो यश्चक्रे प्रज्ञानीस्तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य । वात: । प्राणापानौ । चक्षु: । अङ्गिरस: । अभवन् । दिश: । य: । चक्रे । प्रऽज्ञानी: । तस्मै । ज्येष्ठाय । ब्रह्मणे । नम: ॥७.३४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (7)
विषय
ब्रह्म के स्वरूप के विचार का उपदेश।
पदार्थ
(वातः) वायु (यस्य) जिसके (प्राणापानौ) प्राण और अपान [के समान] और (अङ्गिरसः) प्रकाश करनेवाली किरणें (चक्षुः) नेत्र [समान] (अभवन्) हुए। (दिशः) दिशाओं को (यः) जिस ने (प्रज्ञानीः) व्यवहार जतानेवाली (चक्रे) बनाया, (तस्मै) उस (ज्येष्ठाय) [सब से बड़े वा सब से श्रेष्ठ] (ब्रह्मणे) ब्रह्मा [परमात्मा] को (नमः) नमस्कार है ॥३४॥
भावार्थ
जो जगदीश्वर वायु, किरणों और दिशाओं में व्यापक है, उसको सब नमस्कार करें ॥३४॥
टिप्पणी
३४−(यस्य) (वातः) वायुः (प्राणापानौ) श्वासप्रश्वासतुल्यः (चक्षुः) (अङ्गिरसः) अङ्गिरा अङ्गरा अङ्कना अञ्चनाः-निरु० ३।१७। प्रकाशकाः किरणाः (अभवन्) (दिशः) (यः) (चक्रे) (प्रज्ञानीः) प्रज्ञापिनीर्व्यवहारप्रज्ञापयित्रीः। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
ईश्वरविषयः
व्याख्यान
( यस्य वातः प्राणापानौ ) जिसने ब्रह्माण्ड के वायु को प्राण और अपान की नाईं किया है, ( चक्षुरङ्गिरसोऽभवन् ) तथा जो प्रकाश करनेवाली किरण हैं, वे चक्षु की नाईं जिसने की हैं, अर्थात् उनसे ही रूप ग्रहण होता है।
( दिशो यश्चक्रे प्रज्ञानीः ) और जिसने दश दिशाओं को सब व्यवहारों की सिद्धि करने वाली बनाई हैं, ऐसा जो अनन्तविद्यायुक्त परमात्मा सब मनुष्यों का इष्टदेव है, ( तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ) उस ब्रह्म को निरन्तर हमारा नमस्कार हो।
पदार्थ
शब्दार्थ = ( यस्य ) = जिस भगवान् ने ( वात: ) = ब्रह्माण्ड की वायु को ( प्राणापानौ ) = प्राणपान के तुल्य बनाया। ( अङ्गिरस: ) = प्रकाश करनेवाली जो किरणें हैं वह ( चक्षुः अभवन् ) = आँख की न्याईं बनाईं। ( य: ) = जो परमेश्वर ( दिश: ) = दिशाओं को ( प्रज्ञानी: ) = व्यवहार के साधन सिद्ध करनेवाली बनाता है, ( तस्मै ज्येष्ठाय ) = ऐसे बड़े अनन्त ( ब्रह्मणे ) = परमात्मा को ( नम: ) = हमारा बारम्बार नमस्कार है ।
भावार्थ
भावार्थ = जिस जगदीश्वर प्रभु ने समष्टि वायु को प्राणापान के समान बनाया, प्रकाश करनेवाली किरणें जिसकी चक्षु की न्याईँ हैं अर्थात् उनसे ही रूप का ग्रहण होता है। उस परमात्मा ने ही सब व्यवहार को सिद्ध करनेवाली दश दिशाओं को बनाया है। ऐसे अनन्त परमात्मा को हमारा बारम्बार प्रणाम है ।
विषय
प्रभु का विराट् देह
पदार्थ
१. (यस्य) = जिसका (भूमिः) = यह पृथिवी (प्रमा) = पादमूल के समान है-पाँव का प्रमाण है, (उत) = और (अन्तरिक्षम्) = अन्तरिक्ष (उदरम्) = उदर है, (य: दिवं मूर्धानं चक्रे) = जिसने झुलोक को अपना मूर्धा [मस्तक] बनाया है। (यस्य) = जिसके (सूर्य:) = सूर्य (च) = और (पुनर्णवः चन्द्रमा:) = फिर फिर नया होनेवाला यह चन्द्र (चक्षुः) = आँख है। (य: अग्निं आस्यं चक्रे) = जिसने अग्नि को अपना मुख बनाया है। (यस्य वात: प्राणापानौ) = जिसके बायु ही प्राणापान हैं। (अङ्गिरसः चक्षुः अभवन्) = [अङ्गिरसं मन्यन्ते अङ्गानां यद्रस:-छां० १.२.१०] अङ्गरस ही उसकी आँख हुए। (दिश: य: प्रज्ञानी: चक्रे) = दिशाओं को जिसने प्रकृष्ट ज्ञान का साधन [श्रोत्र] बनाया। २. (तस्मै) = उस (ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः) = ज्येष्ठ ब्रह्म के लिए हम नतमस्तक होते हैं। प्रभु के लिए सूर्योदय से पूर्व सूर्योदय से ही क्या, उषाकाल से भी पूर्व उठकर प्रणाम करना चाहिए। यह प्रभु-नमन ही सब गुणों को धारण के योग्य बनाएगा।
भावार्थ
यह ब्रह्माण्ड उस सर्वाधार प्रभु का देह है। इस ब्रह्माण्ड को वे ही धारण कर रहे हैं। इसके अङ्गों में उस प्रभु की महिमा को देखने का प्रयत्न करना चाहिए। इस महिमा को देखता हुआ साधक उस प्रभु के प्रति नतमस्तक होता है।
भाषार्थ
(वातः) वायु (यस्य) जिस के (प्राणपानौ) प्राण और अपान हैं, (अङ्गिरसः) और किरण (चक्षुः) चक्षु की किरणें (अभवन्) हुई हैं। (दिशः) दिशाओं को (यः) जिस ने (प्रज्ञानीः) ज्ञान की सूक्ष्म नाड़ी रूप (चक्रे) किया है, (तस्मै) उस (ज्येष्ठाय) सर्वोत्कृष्ट (ब्रह्मणे) ब्रह्म के लिये (नमः) नमस्कार हो।
टिप्पणी
[प्रज्ञानीः= नर्वस-सिस्टम की ज्ञानवाहिनी सूक्ष्म नाड़ियां, सूक्ष्म तन्तु। ये नाडियां शरीर में सर्वत्र फैली हुई हैं, जैसे कि दिशाएं सर्वत्र फैली हुई हैं]
मन्त्रार्थ
(यस्य वातः प्राणापानौ) जिस सर्वाधार के प्राण और अपान के तुल्य बात हैं (यस्य चक्षुः अङ्गिरसः अभवन् ) जिस परमात्मा के नेत्र स्थानीय नेत्र दृष्टियां अङ्गिरस-विविध रश्मियां हैं (यः-दिशः प्रज्ञानी: चक्रे) जिस परमात्मा ने श्रोत्रवृत्तियाँ बनाई हैं (तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः) उस ज्येष्ठ ब्रह्म के लिये नम्री भाव है ॥३४॥
टिप्पणी
इस सूक्त पर सायणभाष्य नहीं है, परन्तु इस पर टिप्पणी में कहा है कि स्कम्भ इति सनातनतमो देवो "ब्रह्मणो प्याद्यभूतः । अतो ज्येष्ठं ब्रह्म इति तस्य संज्ञा । विराडपि तस्मिन्नेव समाहितः” । अर्थात् स्कम्भ यह अत्यन्त सनातन देव है जो ब्रह्म से भी आदि हैं अतः ज्येष्ठ ब्रह्म यह उसका नाम है विराड् भी उसमें समाहित है । यह सायण का विचार है ॥
विशेष
ऋषिः—अथर्वा ( स्थिर-योगयुक्त ) देवनाः - स्कम्भः, आत्मा वा ( स्कम्भ-विश्व का खम्भा या स्कम्मरूप आत्मा-चेतन तत्त्व-परमात्मा )
विषय
ज्येष्ठ ब्रह्म या स्कम्भ का स्वरूप वर्णन।
भावार्थ
(वातः) वात (यस्य प्राणापानौ) जिसके प्राण और अपान के समान हैं। और (अङ्गिरसः) ज्ञानी विद्वान् या तेजस्वी पदार्थ, जिसके (चक्षुः अभवत्) चक्षु के समान हैं। और (यः) जो (दिशः) दिशाओं को (प्रज्ञानीः) अपनी उत्कृष्ट ज्ञापक, पताकाओं के समान (चक्रे) बनाये हुए है (तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः) उस परम, सर्वश्रेष्ठ ब्रह्म के लिये नमस्कार है। इस रूपक को छान्दोग्य [ अ० ५ खं० १०-१८] उपनिषद् में स्पष्ट किया है—तस्य ह वा एतस्यात्मनो वैश्वानरस्य मूर्धैव सुतेजाश्चक्षुविश्वरूपः प्राणः पृथग्वर्त्मात्मा संदेहो बहुलो वस्तिरेव रयिः पृथिव्येव पादा बुर एव वेदिर्लोमानि बर्हिर्ह्रदयं गार्हपत्यो मनोऽन्वाहार्यपचन, आस्य माहवनीयः। इत्यादि।
टिप्पणी
(तृ०) ‘दिवं यश्चक्रे मूर्धानं’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा क्षुद्र ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्कम्भ अध्यात्मं वा देवता। स्कम्भ सूक्तम्॥ १ विराट् जगती, २, ८ भुरिजौ, ७, १३ परोष्णिक्, ११, १५, २०, २२, ३७, ३९ उपरिष्टात् ज्योतिर्जगत्यः, १०, १४, १६, १८ उपरिष्टानुबृहत्यः, १७ त्र्यवसानाषटपदा जगती, २१ बृहतीगर्भा अनुष्टुप्, २३, ३०, ३७, ४० अनुष्टुभः, ३१ मध्येज्योतिर्जगती, ३२, ३४, ३६ उपरिष्टाद् विराड् बृहत्यः, ३३ परा विराड् अनुष्टुप्, ३५ चतुष्पदा जगती, ३८, ३-६, ९, १२, १९, ४०, ४२-४३ त्रिष्टुभः, ४१ आर्षी त्रिपाद् गायत्री, ४४ द्विपदा वा पञ्चपदां निवृत् पदपंक्तिः। चतुश्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Skambha Sukta
Meaning
Whose prana and apana energies are the winds, and the sun rays, light of the eye, who has created the quarters of space as media of his perception and communication of knowledge, to that Supreme Brahma, homage of worship and adoration in submission!
Translation
Whose in-breath (prāņa) and out-breath (apāna) is the wind; whose eye are the Angiras; who has made the quarters his sense- organs, to him the Eldest Lord supreme let our homage be.
Translation
Our homage to that eternal Supreme Being whose two life-breathings are this obvious wind, whose sight is Angirasas, the luminous worlds and who make the regions to be the means of sense.
Translation
Homage to Him, that Highest God, Whose Two breaths were the Wind, The learned His sight. Who made the regions as His ears.
Footnote
Two breaths: Prana and Apana. Ears: Means of sense.
संस्कृत (2)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३४−(यस्य) (वातः) वायुः (प्राणापानौ) श्वासप्रश्वासतुल्यः (चक्षुः) (अङ्गिरसः) अङ्गिरा अङ्गरा अङ्कना अञ्चनाः-निरु० ३।१७। प्रकाशकाः किरणाः (अभवन्) (दिशः) (यः) (चक्रे) (प्रज्ञानीः) प्रज्ञापिनीर्व्यवहारप्रज्ञापयित्रीः। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषयः
ईश्वरविषयः
व्याख्यानम्
( यस्य वातः प्राणापानौ ) वातः समष्टिर्वायुर्यस्य प्राणापानाविवास्ति, ( अङ्गिरसः ) ‘अङ्गिरा अङ्गारा अङ्कना इति’ [ निरु॰३.१७ ] प्रकाशकाः किरणाः [ चक्षुः अभवन् ] चक्षुषी इव भवतः, [ दिशो यश्चक्रे प्रज्ञानीः ] यो दिशः प्रज्ञानीः प्रज्ञापिनीर्व्यवहारसाधिकाश्चक्रे, ( तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ) तस्मै ह्यनन्तविद्याय ब्रह्मणे महते सततं नमोऽस्तु।
मराठी (1)
व्याख्यान
भाषार्थ :(यस्य वात: प्राणापानौ ) ब्रह्मांडातील वायू ज्याने प्राण व अपानाप्रमाणे निर्मिलेले आहेत. (चक्षुरङ्गिरसोऽभवन्) प्रकाश देणाऱ्या किरणांद्वारे रूप ग्रहण होते ती चक्षुस्थानी ज्याने निर्माण केलेली आहेत (दिशो यश्चक्रे प्रज्ञानीस्त.) सर्व व्यवहार सिद्ध करणाऱ्या दिशा ज्याने निर्माण केलेल्या आहेत, असा अनंतविद्यायुक्त परमात्मा सर्व माणसांचा इष्ट देव आहे. त्या ब्रह्माला आम्ही निरंतर नमस्कार करतो ॥४॥
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