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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 29
    सूक्त - कुत्सः देवता - आत्मा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त
    36

    पू॒र्णात्पू॒र्णमुद॑चति पू॒र्णं पू॒र्णेन॑ सिच्यते। उ॒तो तद॒द्य वि॑द्याम॒ यत॒स्तत्प॑रिषि॒च्यते॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पू॒र्णात् । पू॒र्णम् । उत् । अ॒च॒ति॒ । पू॒र्णम्‌ । पू॒र्णेन॑ । सि॒च्य॒ते॒ । उ॒तो इति॑ । तत् । अ॒द्य । वि॒द्या॒म॒ । यत॑: । तत् । प॒रि॒ऽसि॒च्यते॑ ॥८.२९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पूर्णात्पूर्णमुदचति पूर्णं पूर्णेन सिच्यते। उतो तदद्य विद्याम यतस्तत्परिषिच्यते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पूर्णात् । पूर्णम् । उत् । अचति । पूर्णम्‌ । पूर्णेन । सिच्यते । उतो इति । तत् । अद्य । विद्याम । यत: । तत् । परिऽसिच्यते ॥८.२९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 29
    Acknowledgment

    हिन्दी (2)

    विषय

    परमात्मा और जीवात्मा के स्वरूप का उपदेश।

    पदार्थ

    (पूर्णात्) पूर्ण [ब्रह्म] से (पूर्णम्) सम्पूर्ण [जगत्] (उत् अचति) उदय होता है। (पूर्णेन) पूर्ण [ब्रह्म] करके (पूर्णम्) संपूर्ण [जगत्] (सिच्यते) सींचा जाता है। (उतो) और भी (तत्) उस [कारण] को (अद्य) आज (विद्याम) हम जानें, (यतः) जिस कारण से (तत्) वह [सम्पूर्ण जगत्] (परिषिच्यते) सब प्रकार सींचा जाता है ॥२९॥

    भावार्थ

    यह सम्पूर्ण जगत् परमात्मा से उत्पन्न होकर वृद्धि को प्राप्त होता है। उसी परब्रह्म की उपासना सब लोग करें ॥२९॥

    टिप्पणी

    २९−(पूर्णात्) सर्वश्रेष्ठगुणपूरितात् परमात्मनः (पूर्णम्) समग्रं जगत् (उदचति) उदेति (पूर्णम्) समग्रम् (पूर्णेन) परमात्मना (सिच्यते) आर्द्रीक्रियते। वर्ध्यते (उतो) अपि च (तत्) कारणम् (अद्य) अस्मिन् दिने (विद्याम) जानीम (यतः) यस्मात् कारणात् (तत्) पूर्णं जगत् (परिषिच्यते) सर्वतो वर्ध्यते ॥

    प्रवचन

    भाषार्थ पूर्ण परमेश्वर से पूर्ण जगत उत्पन्न होता है, पूर्ण से पूर्ण सींचा जाता है आज हम जानते हैं कि कहां से सींचा जाता है।

    पूर्ण मदः पूर्ण मिदं पूर्णात पूर्ण मुदचत्ये, पूर्णस्य पूर्ण मादाये पूर्ण मेवावशिश्यते॥ ईशावास्य उपनिषद

    श्लोकार्थ अर्थात् वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म पुरुषोत्तम परमात्मा सभी प्रकार से सदा सर्वदा परिपूर्ण है । यह जगत् भी उस परब्रह्म से पूर्ण ही है, क्योँकि यह पूर्ण उस पूर्ण पुरुषोत्तम से ही उत्पन्न हुआ है । इस प्रकार परब्रह्म की पूर्णता से जगत् पूर्ण होने पर भी वह परब्रह्म परिपूर्ण है । उस पूर्ण मेँ से पूर्ण को निकाल देने पर भी वह पूर्ण ही शेष रहता है।

    शृङ्गी ऋषि कृष्णदत्त जी महाराज

    बेटा! कितना विचित्र जगत है, वह परमात्मा कितना अनन्त है, पूर्ण में से पूर्ण को उत्पन्न कर रहा है, वह परमात्मा पूर्ण है और पूर्ण ही प्रकृति को जन्म दे रहा है। जैसे माता पिता पूर्ण मदं पूर्ण मा पूर्णमुच्यते पूर्ण मे पूर्ण की उत्पति हो रही है।

    मेरे प्यारे! प्रभु का ज्ञान कितना नितान्तर हैं कितना विशाल है बेटा! आयुर्वेद की औषधियों को हम जानते हुए परमात्मा कैसा वैज्ञानिक है बेटा! मानो वह रचा रहा हैं पूर्ण में से पूर्ण को उत्पन्न कर रहा हैं कैसा अनुपम है बेटा! आओ, मेरे प्यारे! वह प्रभु कितना महान हैं उस महानता का वर्णन करते हुए उसकी प्रतिभा का वर्णन करते हुए इस संसार सागर से पार होते चले जाएं।

    प्रत्येक मानव प्रत्येक देवकन्या प्रत्येक मेरा प्यारा ऋषिमण्डल उस प्रभु की आभा में ही गतिशील हो रहा हैं अथवा जितना भी यह जड़ जगत जो मुझे चेतनता दृष्टिपात आ रही हैं उस चेतनता में यदि कोई मौन वत हैं तो वह चैतन्य देव माना जाता हैं वह मेरा देव कितना विचित्र हैं अथवा कितनी आभा में रमण कर रहा हैं इन शून्य को गति देने वाला वह मेरा प्यारा प्रभु ही कहलाता हैं क्योंकि वह पूर्ण हैं और पूर्ण में से पूर्ण ही अग्रत दृष्टिपात आ रहा हैं मेरे प्यारे! जब हम उस परमपिता परमात्मा के ज्ञान और विज्ञान मे रमण करने लगते हैं तो बेटा! वह प्रभु हमें अनन्ता में दृष्टिपात आने लगता हैं क्योंकि उसी की अनन्ता उस जगत में दृष्टिपात आ रही हैं जब हम लोक लोकान्तरो के क्षेत्र में जाते हैं अथवा उस प्रभु के विज्ञान में गतिशील होना चाहते हैं तो बेटा! हमें ऐसा प्रतीत होने लगता हैं जैसे हम परमपिता परमात्मा के अनन्त ज्ञान और विज्ञान में रमण कर रहे हैं तो आओ, मेरे प्यारे ऋषिवर! आज हम अपने देव की प्रतिभा का वर्णन करते चले जायें जो संसार को रचा रहा हैं अथवा शून्य को गति देने वाला हैं पूर्ण में से पूर्ण को उत्पन्न कर रहा हैं क्योंकि पूर्ण ही वह है पूर्ण में से गति बनाता हुआ पूर्णता को दृष्टिपात करा रहा हैं मेरे प्यारे! आज का वेद का ऋषि हमें केवल चेतना के सम्बन्ध में यह उपदेश दे रहा था अथवा वह जो द्वितीय वाक् है परन्तु जब हम उस परमपिता परमात्मा की आभा में रमण करने लगते हैं अथवा अपने में यह स्वीकार करने लगते हैं कि वह परमपिता परमात्मा हमारी अन्तरात्मा में विराजमान हैं उस प्रभु की अनन्ता से बेटा! यह जगत गतिशील हो रहा हैं और उसी की गति मेरे प्यारे! हमें प्रत्येक प्राणी मात्र में दृष्टिपात आती चली जा रही हैं लोक लोकान्तरों के क्षेत्र में गति करने लगते हैं।

    इंग्लिश (1)

    Subject

    Jyeshtha Brahma

    Meaning

    From the full, complete and perfect Infinity, the full, complete and perfect infinity of the cosmic tree is evolved. The infinite is poured and all round sustained by Infinity. Let us now know whence the cosmic tree is sprinkled and sustained.

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २९−(पूर्णात्) सर्वश्रेष्ठगुणपूरितात् परमात्मनः (पूर्णम्) समग्रं जगत् (उदचति) उदेति (पूर्णम्) समग्रम् (पूर्णेन) परमात्मना (सिच्यते) आर्द्रीक्रियते। वर्ध्यते (उतो) अपि च (तत्) कारणम् (अद्य) अस्मिन् दिने (विद्याम) जानीम (यतः) यस्मात् कारणात् (तत्) पूर्णं जगत् (परिषिच्यते) सर्वतो वर्ध्यते ॥

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