अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 37
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मौदनः
छन्दः - विराड्जगती
सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त
77
येन॑ दे॒वा ज्योति॑षा॒ द्यामु॒दाय॑न्ब्रह्मौद॒नं प॒क्त्वा सु॑कृ॒तस्य॑ लो॒कम्। तेन॑ गेष्म सुकृ॒तस्य॑ लो॒कं स्वरा॒रोह॑न्तो अ॒भि नाक॑मुत्त॒मम् ॥
स्वर सहित पद पाठयेन॑ । दे॒वा: । ज्योति॑षा । द्याम् । उ॒त्ऽआय॑न् । ब्र॒ह्म॒ऽओ॒द॒नम् । प॒क्त्वा । सु॒ऽकृ॒तस्य॑ । लो॒कम् । तेन॑ । गे॒ष्म॒ । सु॒ऽकृ॒तस्य॑ । लो॒कम् । स्व॑: । आ॒ऽरोह॑न्त: । अ॒भि । नाक॑म् । उ॒त्ऽत॒मम् ॥१.३७॥
स्वर रहित मन्त्र
येन देवा ज्योतिषा द्यामुदायन्ब्रह्मौदनं पक्त्वा सुकृतस्य लोकम्। तेन गेष्म सुकृतस्य लोकं स्वरारोहन्तो अभि नाकमुत्तमम् ॥
स्वर रहित पद पाठयेन । देवा: । ज्योतिषा । द्याम् । उत्ऽआयन् । ब्रह्मऽओदनम् । पक्त्वा । सुऽकृतस्य । लोकम् । तेन । गेष्म । सुऽकृतस्य । लोकम् । स्व: । आऽरोहन्त: । अभि । नाकम् । उत्ऽतमम् ॥१.३७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्मज्ञान से उन्नति का उपदेश।
पदार्थ
(येन ज्योतिषा) जिस ज्योति द्वारा (देवाः) देवता [विजय चाहनेवाले लोग] (ब्रह्मौदनम्) ब्रह्म-ओदन [वेदज्ञान, अन्न वा धन के बरसानेवाले परमेश्वर] को (पक्त्वा) पक्का [मन में दृढ़] करके (सुकृतस्य) पुण्य कर्म के (द्याम्) प्रकाशमान (लोकम्) लोक [समाज] को (उदायन्) ऊपर पहुँचे हैं, (तेन) उसी [ज्योति] से (उत्तमम्) उत्तम (नाकम्) दुःखरहित (स्वः) सुखस्वरूप परब्रह्म को (अभि=अभिलक्ष्य) लखकर (आरोहन्तः) चढ़ते हुए हम (सुकृतस्य) पुण्य कर्म के (लोकम्) समाज को (गेष्म) खोजें ॥३७॥
भावार्थ
जिस वैदिक ज्योति द्वारा विजयी महात्मा लोगों ने चलकर परमात्मा को पाया है, उसी वैदिक ज्योति द्वारा परमात्मा को देखते हुए हम सब पुण्यात्माओं के बीच सुख पावें ॥३७॥इस मन्त्र का उत्तरार्ध आ चुका है-अ० ४।१४।६ ॥
टिप्पणी
३७−(येन) (देवाः) विजिगीषवः (ज्योतिषा) प्रकाशेन (द्याम्) प्रकाशमानम् (उदायन्) इण् गतौ-लङ्। उदगच्छन् (ब्रह्मौदनम्) म० १। ब्रह्मणो वेदज्ञानस्यान्नस्य धनस्य वा सेचकं वर्षकं परमात्मानम् (पक्त्वा) दृढं कृत्वा (सुकृतस्य) सुकर्मणः (लोकम्) समाजम् (गेष्म) गेषृ अन्विच्छायाम्-लोट्। गेषामहै। अन्वेषणेन प्राप्नवामः। अन्यत् पूर्ववत्-अ० ४।१४।६ ॥
विषय
ज्ञान-सुकृत-प्रकाश व आनन्द
पदार्थ
१.(देवा:) = देव लोग (येन ज्योतिषा) = जिस ज्योति के द्वारा (ब्रह्मौदनम्) = ज्ञानरूपी भोजन का पक्त्वा परिपाक करके (सुकृतस्य लोकम्) = पुण्यकर्मों के लोकभूत (द्याम् उद् आयन्) = द्युलोक को प्राप्त करते हैं, (तेन) = उस ज्योति से हम भी (सुकृतस्य लोकम्) = पुण्यकर्मों के लोक को (गेष्म) = प्राप्त हों। २. (स्व: आरोहन्त:) = प्रकाश में आरोहण करते हुए हम (उत्तमम् नाकम् अभि) [गेष्म] = सर्वोत्तम आनन्दमय लोक की ओर जाएँ।
भावार्थ
ज्ञान प्राप्त करके हम सुकृतों द्वारा प्रकाशमय लोक का विजय करें। प्रकाशमय लोक से आनन्दमय लोक में पहुँचें।
यह ज्ञानी पुरुष 'अथर्वा'-न डॉवाडोल वृत्तिवाला बनता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है -
भाषार्थ
(देवाः) दिव्यगुणी लोग (येन ज्योतिषा) जिस ज्योति के द्वारा, (याम्) द्युलोक या शिरःस्थ सहस्रारचक्र पर (उदायन्) चढ़े हैं, और (ब्रह्मोदनम्) ब्रह्म के प्रसादन के लिये वेदवेत्ताओं और ब्रह्मज्ञों को देय ओदन को अथवा ब्रह्मरूपी-ओदन (अथर्व० ११।३) को (पक्त्वा) अग्नि परिपाक कर के, तथा जीवन में परिपक्व कर के (सुकृतस्य लोकम्) सुकर्मियों द्वारा प्रापणीय सहस्रार चक्र रूप लोक को या ब्राह्मी-आलोक को प्राप्त हुए हैं, (तेन) उस ज्योति द्वारा (सुकृतस्य लोकम्) सुकर्मियों के इस लोक को (गेष्म) हम प्राप्त हों, अर्थात् (स्वः आरोहन्तः) "स्वः" पर आरोहण कर के, अर्थात् हृदय में परमेश्वर का दर्शन कर के (उत्तमम् नाकम् अभि) उत्तम नाक की ओर हम जांय, या उस को प्राप्त करें। नाकम्= गेष्म दुःख के संस्पर्श से रहित आनन्दमय परमेश्वर को हम प्राप्त करें।
टिप्पणी
[ज्योतिषा= सम्भवतः “ऋतम्भरा प्रज्ञा" अथवा "विवेकजज्ञान” (योग १।४६; ३।४९,५४)। द्याम्= शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत" (यजु० ३१।१३); "दिवं यश्चक्रे मूर्धानम्" (अथर्व० १०।७।३२), अर्थात् आध्यात्मिकार्थ में "द्योः या दिव्" हैं शिरः या मूर्धा। ब्रह्मौदनम्= इस के यथा लिखित दो अर्थ है-यह काण्ड ११ । सूक्त १ में स्पष्टतया वर्णित है। "ब्रह्मरूपी ओदन" इस अर्थ में ब्रह्म को "सुकृतस्यलोकम्" कहना यथार्थ प्रतीत होता हैं। मन्त्र के उत्तरार्ध में "सुकृतस्यलोकम्" "उत्तम-नाकम्" एकाभिप्रायक प्रतीत होते हैं। आध्यात्मिक दृष्टि में "स्व" शब्द हृदयस्थ कोश का भी वाचक है। यथा- "अष्टचक्रा नव द्वारा देवानां पूरयोध्या। तस्यां हिरण्ययः कोशः स्वर्गो ज्योतिषाबृत:" (अथर्व० १०।२।३१)। हृदयस्थ "हिरण्यय कोश" पारमेश्वरी ज्योति से आवृत रहता है। हिरण्यय-कोश में परमेश्वर का प्रथम दर्शन होता है। इस के पश्चात् शिरःस्थ सहस्रार चक्र में स्थित "नाक" अर्थात् आनन्दमय ब्रह्म का साक्षात्कार होता है। हृदय से सहस्रारचक्र में आरोहण करना, “स्वः” से “उत्तमनाक" तक आरोहण करना है। ब्रह्मौदनम्= मन्त्र ३७ के अनुसार "ब्रह्मौदन को पका कर" नाक अर्थात् मोक्ष या ब्रह्म को प्राप्त करने का कथन हुआ है। ब्रह्मज्ञों तथा वेदज्ञों को पकाया-ओदन देने मात्र से मोक्ष या ब्रह्म की प्राप्ति हो जाय, यह तो बुद्धिग्राह्य नहीं। इसलिये “ब्रह्मौदन" पद में "ब्रह्मप्रसादनार्थ" या ब्रह्मार्पण करके यह भावना अन्तर्निहित है। इस भावनानुसार ब्रह्मज्ञों और वेदज्ञों को दिया ओदन-योगशास्त्रोक्त “क्रियायोग" का अङ्ग हो जाता है, अर्थात् "ईश्वर प्रणिधान" हो जाता है। यथा "तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः" (योग २।१)। इस की व्याख्या में व्यासमुनि लिखते हैं कि "ईश्वर प्रणिधानं सर्वक्रियाणां परमगुरावर्पणं, तत्फलसन्न्यासो वा", अर्थात् सब क्रियाओं का परमगुरु परमेश्वर के प्रति अर्पण, अथवा उन कर्मों के फल की अभिलाषा न करते हुए उन्हें करना"। इस से समाधि की प्राप्ति होती तथा पञ्चक्लेश (योग० २।३) सूक्ष्म पड़ जाते हैं। तथा "समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात्” (योग २।४५) पर व्यासमुनि पुनः कहते हैं कि "ईश्वरार्पितसर्वभावस्य समाधिसिद्धिः" अर्थात् ईश्वर के प्रति जिस ने अपने सब भावों को अर्पित कर दिया है, उसे समाधि सिद्ध हो जाती है। इस प्रकार "ब्रह्मौदनं पक्त्वा" (३७) में, तथा इस से पूर्व के मन्त्रों में यदि "ब्रह्म के प्रसादनार्थ" इस भावना को अन्तर्हित माना जाय तो "यज्ञनामक ब्रह्म" की प्राप्ति भी सम्भव हो जाती है (३६), तथा नाक अर्थात् मोक्ष की सिद्धि भी हो जाती है (३७)। या मन्त्र ३६,३७ में, "ब्रह्मौदनम्" का अर्थ "ब्रह्म-रूपी-ओदन" जानना चाहिये। "ब्रह्मौदन" की विस्तृत व्याख्या काण्ड ११ । सूक्त ३ में की गई है।]
विषय
ब्रह्मोदन रूप से प्रजापति के स्वरूपों का वर्णन।
भावार्थ
(येन ज्योतिषा) जिस परम ज्योति से (देवाः) तत्व के द्रष्टा लोग और जिस ज्योति से (ब्रह्मोदनं) ब्रह्मरूप परम ओदन रसमय ज्ञान को (पक्त्वा) परिपाक करके (सुकृतस्य लोकम्) पुण्य कर्मों के फल स्वरूप (द्याम्) द्यौः या प्रकाशमय लोक को (उत् आयन्) प्राप्त होते हैं (तेन) उसी परम ज्योति से हम भी (स्वः आरोहन्तः) ‘स्वः’ परम तेजोमय (उत्तमम्) उत्कृष्टतम (नाकम्) सुखमय लोक को (अभि आरोहन्तः) चढ़ते हुए (सुकृतस्य लोकं) सुकृत, पुण्य कर्मों से प्राप्त होने योग्य लोक को (गेष्म) प्राप्त हों। यह सूक्त ‘ब्रह्मरूप ओदन’ अर्थात् ब्रह्म ज्ञान को परिपक्व करके मोक्ष प्राप्त करने पर कभी लगता है जिसको विस्तार भय से नहीं दर्शाया है॥
टिप्पणी
(तृ०) ‘तेन जेष्म’ इति सायणाभिमतः पाठः। (प्र० द्वि०) ‘तं त्वा पचामि ज्योतिषां ज्योतिरुत्तमं सनस्तद्वेहि सुकृतानु लोके’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्मोदनो देवता। १ अनुष्टुब्गर्भा भुरिक् पंक्तिः, २, ५ बृहतीगर्भा विराट्, ३ चतुष्पदा शाक्वरगर्भा जगती, ४, १५, १६ भुरिक्, ६ उष्णिक्, ८ विराङ्गायत्री, ६ शाक्करातिजागतगर्भा जगती, १० विराट पुरोऽतिजगती विराड् जगती, ११ अतिजगती, १७, २१, २४, २६, २८ विराड् जगत्यः, १८ अतिजागतगर्भापरातिजागताविराड्अतिजगती, २० अतिजागतगर्भापरा शाकराचतुष्पदाभुरिक् जगती, २९, ३१ भुरिक् २७ अतिजागतगर्भा जगती, ३५ चतुष्पात् ककुम्मत्युष्णिक्, ३६ पुरोविराड्, ३७ विराड् जगती, ७, १२, १४, १९, २२, २३, ३०-३४ त्रिष्टुभः। सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Brahmaudana
Meaning
By the light by which divine souls rose to the state of heavenly light and, having prepared and offered the homage of noble deeds to Divinity, ascended to the rewarding region of noble performance, by that very light and those very noble deeds performed as homage, we too would rise to the rewarding region of holy action, rising still higher and higher to the state of divine light and reach the highest bliss over every thing else.
Translation
With what light the gods went up to the sky, having cooked the brahman-rice-dish, to the world of the well-done, with that may we go to the world for the well-done, ascending the heaven, unto the highest firmament.
Translation
May we, cooking the (Odana) preparations for the purpose of Yajna, ascending to the state obtainable by good action, full of light reach the highest summit of salvation by dint of that shining knowledge through which the men of enlightened wisdom attain the state of happiness and reach the stage of highest enlightenment.
Translation
May we invested with that light go upward, ascending to the most lofty summit of joy, wherewith, the seers, after developing and strengthening Vedic knowledge, mounted to the lustrous world of virtue.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३७−(येन) (देवाः) विजिगीषवः (ज्योतिषा) प्रकाशेन (द्याम्) प्रकाशमानम् (उदायन्) इण् गतौ-लङ्। उदगच्छन् (ब्रह्मौदनम्) म० १। ब्रह्मणो वेदज्ञानस्यान्नस्य धनस्य वा सेचकं वर्षकं परमात्मानम् (पक्त्वा) दृढं कृत्वा (सुकृतस्य) सुकर्मणः (लोकम्) समाजम् (गेष्म) गेषृ अन्विच्छायाम्-लोट्। गेषामहै। अन्वेषणेन प्राप्नवामः। अन्यत् पूर्ववत्-अ० ४।१४।६ ॥
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