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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 14
    ऋषिः - अथर्वा देवता - रुद्रः छन्दः - विराड्गायत्री सूक्तम् - रुद्र सूक्त
    67

    भ॑वारु॒द्रौ स॒युजा॑ संविदा॒नावु॒भावु॒ग्रौ च॑रतो वी॒र्याय। ताभ्यां॒ नमो॑ यत॒मस्यां॑ दि॒शी॒तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भ॒वा॒रु॒द्रौ । स॒ऽयुजा॑ । स॒म्ऽवि॒दा॒नौ । उ॒भौ । उ॒ग्रौ । च॒र॒त॒: । वी॒र्या᳡य । ताभ्या॑म् । नम॑: । य॒त॒मस्या॑म् । दि॒शि । इ॒त: ॥२.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भवारुद्रौ सयुजा संविदानावुभावुग्रौ चरतो वीर्याय। ताभ्यां नमो यतमस्यां दिशीतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भवारुद्रौ । सऽयुजा । सम्ऽविदानौ । उभौ । उग्रौ । चरत: । वीर्याय । ताभ्याम् । नम: । यतमस्याम् । दिशि । इत: ॥२.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 2; मन्त्र » 14
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मज्ञान से उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    (सयुजा) समान संयोगवाले, (संविदानौ) समान ज्ञानवाले, (उग्रौ) तेजस्वी (उभौ) दोनों (भवारुद्रौ) भव और रुद्र [सुखोत्पादक और दुःखनाशक गुण] (वीर्याय) वीरता देने को (चरतः) विचरते हैं। (इतः) यहाँ से (यतमस्याम् दिशि) चाहे जौन-सी दिशा हो, उसमें (ताभ्याम्) उन दोनों को (नमः) नमस्कार है ॥१४॥

    भावार्थ

    चाहे हम कहीं होवें, परमेश्वर को सर्वज्ञ और सर्वव्यापक जानकर अपना वीरत्व बढ़ावें ॥१४॥

    टिप्पणी

    १४−(भवारुद्रौ) म० ३। भवश्च रुद्रश्च तौ। सुखोत्पादकदुःखनाशकौ गुणौ (सयुजा) समानं युञ्जानौ मित्रभूतौ (संविदानौ) समानं जानन्तौ (उभौ) (उग्रौ) तेजस्विनौ (चरतः) विचरतः (वीर्याय) वीरत्वं दातुम् (ताभ्याम्) भवारुद्राभ्याम्। अन्यत् पूर्ववत्-म० १३॥

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    विषय

    भव: रुद्रः

    पदार्थ

    १. (भवारुद्रौ) = 'सृष्टि को उत्पन्न करनेवाले व अन्ततः प्रलय करनेवाले' प्रभु के ये दोनों रूप (सयुजौ) = परस्पर मेलवाले व (संविदानौ) = ऐकमत्यवाले हैं। इनमें विरोध हो, ऐसी बात नहीं। प्रारम्भ करने के समय प्रभु 'भव' हैं, समाप्त करने के समय वे 'रुद्र' हैं। (उभौ उग्रौ) = ये भव और रुद्र दोनों उद्गुर्ण बलवाले हैं। वीर्याय (चरत:) = शक्तिशाली कर्म के लिए गतिवाले होते हैं। २. (इत:) = यहाँ से (यतमस्यां दिशि) = जिस भी दिशा में वे भव और रुद्र हैं (ताभ्यां नम:) = हम उन दोनों के लिए उस दिशा में नमस्कार करते हैं। पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण, ऊपर-नीचे' सब ओर हम प्रभु को भव और रुद्र के रूप में देखते हैं और उन्हे नमस्कार करते हैं।

    भावार्थ

    हम 'सृष्टि व प्रलय' रूप दोनों कार्यों में प्रभु की महिमा का अनुभव करें और उस भव और रुद्ररूप प्रभु को सब ओर नमस्कार करें।

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    भाषार्थ

    (सयुजा= सयुजौ) साथ-साथ रहने वाले (सं विदानौ) सम्यग् ज्ञानी या ऐकमत्य को प्राप्त (उभौ उग्रौ) दोनों उग्रबली (भवारुद्रौ) संसारोत्पादक तथा पापियों को रुलाने वाले परमेश्वर के दोनों स्वरूप (वीर्याय) अपनी-अपनी शक्ति के प्रदर्शन के लिये (चरतः) विचरते हैं। (इतः) इस संसार में (यतमस्याम् दिशि) जिस भी दिशा में ये हों (ताभ्याम्) उन दोनों स्वरूपों के लिये (नमः) नमस्कार हो।

    टिप्पणी

    [इतः= सार्वधिभक्तिकः तसिः। परमेश्वर के दोनों स्वरूपों के गुण-कर्म परस्पर में एक समान मन्त्र में दर्शाएं हैं, अतः इन दोनों स्वरूपों में एकत्व दर्शाया है। परमेश्वर सर्वव्यापक है, परन्तु जिस किसी दिशा में परमेश्वर का उग्रकर्म, वर्षाधिक्य, सूखापन, अतिगर्मी, भूचाल आदि प्रतीयमान हों, उस दिशा में मुख कर, उस के प्रति नमस्कार करने चाहिये। परमेश्वर है संविदान अर्थात् सम्यग्-ज्ञानी। अतः उस का उपकर्म जिधर भी हो रहा हो, उसे निजकर्मों का फल ही समझना चाहिये। इस निमित्त परमेश्वर की अवहेलना न करते हुए उसे नमस्कार ही करने चाहिये]।

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    विषय

    रुद्र ईश्वर के भव और शर्व रूपों का वर्णन।

    भावार्थ

    परमात्मा के दो स्वरूप हैं एक भव जो सर्वत्र जीवों को उत्पन्न करता है दूसरा शर्व जो उनको नाना प्रकार से संहार करता है वे ही दोनों (भवारुद्रौ) भव और रुद्र (सयुजा) सदा एक दूसरे के साथ संयुक्त और (संविदानौ) एक दूसरे के साथ मानो सलाह करके रहते हैं। (उभौ) वे दोनॉन (उग्रौ) बलवान् (वीर्याय चरतः) अपने वीर्य से सर्वत्र व्यापक हैं। (इतः यतमस्यां दिशि) यहां से जिस दिशा में भी वे दोनों विद्यमान हों (ताभ्यां) हम उन दोनों को (नमः) आदरपूर्वक नमस्कार करते हैं।

    टिप्पणी

    ‘तयोभूमिमन्तरिक्षं स्वद्यौस्ताभ्यां नमो भवमत्थाय कृण्व’। इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। रुद्रो देवता। १ परातिजागता विराड् जगती, २ अनुष्टुब्गर्भा पञ्चपदा जगती चतुष्पात्स्वराडुष्णिक्, ४, ५, ७ अनुष्टुभः, ६ आर्षी गायत्री, ८ महाबृहती, ९ आर्षी, १० पुरः कृतिस्त्रिपदा विराट्, ११ पञ्चपदा विराड् जगतीगर्भा शक्करी, १२ भुरिक्, १३, १५, १६ अनुष्टुभौ, १४, १७–१९, २६, २७ तिस्त्रो विराड् गायत्र्यः, २० भुरिग्गायत्री, २१ अनुष्टुप्, २२ विषमपादलक्ष्मा त्रिपदा महाबृहती, २९, २४ जगत्यौ, २५ पञ्चपदा अतिशक्वरी, ३० चतुष्पादुष्णिक् ३१ त्र्यवसाना विपरीतपादलक्ष्मा षट्पदाजगती, ३, १६, २३, २८ इति त्रिष्टुभः। एकत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rudra

    Meaning

    Bhava and Rudra, maker and breaker, both together, both simultaneously operative, both bright and unsparing, act together to realise their power and purpose of divine creative evolution. Homage and salutations to them wherever in whatever direction from here they be operating.

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    Translation

    Bhava and Rudra, allied, in concord, both go about, formidable, unto heroism; to them be homage, in whichever direction from here.

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    Translation

    These constructive fire and destrictive fires and accordant and allied in their operations. Both are powerful and function for great performances. We praise both of them where ever they be carrying out their functions.

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    Translation

    Both God’s powers of Creation and Dissolution, accordant and allies, with mighty strength exhibit deeds of valour. Wherever they may be, we pay them homage

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १४−(भवारुद्रौ) म० ३। भवश्च रुद्रश्च तौ। सुखोत्पादकदुःखनाशकौ गुणौ (सयुजा) समानं युञ्जानौ मित्रभूतौ (संविदानौ) समानं जानन्तौ (उभौ) (उग्रौ) तेजस्विनौ (चरतः) विचरतः (वीर्याय) वीरत्वं दातुम् (ताभ्याम्) भवारुद्राभ्याम्। अन्यत् पूर्ववत्-म० १३॥

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