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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 1
    ऋषिः - शन्तातिः देवता - चन्द्रमा अथवा मन्त्रोक्ताः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
    161

    अ॒ग्निं ब्रू॑मो॒ वन॒स्पती॒नोष॑धीरु॒त वी॒रुधः॑। इन्द्रं॒ बृह॒स्पतिं॒ सूर्यं॒ ते नो॑ मुञ्च॒न्त्वंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निम् । ब्रू॒म॒: । वन॒स्पती॑न् । ओष॑धी: । उ॒त । वी॒रुध॑: । इन्द्र॑म् । बृह॒स्पति॑म् । सूर्य॑म् । ते । न॒: । मु॒ञ्च॒न्तु॒ । अंह॑स: ॥८.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निं ब्रूमो वनस्पतीनोषधीरुत वीरुधः। इन्द्रं बृहस्पतिं सूर्यं ते नो मुञ्चन्त्वंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निम् । ब्रूम: । वनस्पतीन् । ओषधी: । उत । वीरुध: । इन्द्रम् । बृहस्पतिम् । सूर्यम् । ते । न: । मुञ्चन्तु । अंहस: ॥८.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    विषय

    कष्ट हटाने के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (अग्निम्) अग्नि, (वनस्पतीन्) वनस्पतियों [बड़े वक्षों] (ओषधीः) ओषधियों [अन्न आदिकों], (उत) और (वीरुधः) [विविध प्रकार उगनेवाली] जड़ी-बूटियों, (इन्द्रम्) इन्द्र [मेघ] और (बृहस्पतिम्) बड़े-बड़े लोकों के पालन करनेवाले (सूर्यम्) सूर्य का (ब्रूमः) हम कथन करते हैं, (ते) वे (नः) हमें (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चन्तु) छुड़ावें ॥१॥

    भावार्थ

    विद्वानों को योग्य है कि अग्नि आदि पदार्थों के गुण जानकर, उनसे यथावत् उपकार लेकर दुःखों का नाश करें ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(अग्निम्) (ब्रूमः) कथयामः। स्तुमः (वनस्पतीन्) पिप्पलादिमहावृक्षान् (ओषधीः) अन्नादिरूपाः (उत) अपि च (वीरुधः) विरोहणशीला लताद्याः (इन्द्रम्) मेघम् (बृहस्पतिम्) बृहतां लोकानां पालकम् (सूर्यम्) आदित्यम् (ते) पूर्वोक्ताः (नः) अस्मान् (मुञ्चन्तु) मोचयन्तु, (अंहसः) अमेर्हुक् च। उ–० ४।२१३। अम रोगे पीडने च-असुन् हुक् च। कष्टा ॥

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    विषय

    'अग्नि-सूर्य' द्वारा 'पाप व कष्ट से मोचन'

    पदार्थ

    १. 'पाप' क्या है? एक वस्तु का अयथायोग 'गलत प्रयोग' ही पाप है और इस पाप के कारण ही कष्ट होते हैं। प्रस्तुत मन्त्रों में प्रयुक्त 'अंहस्' शब्द के दोनों ही अर्थ हैं [Sin [पाप] [B] Trouble, anxiety, care, distress [कष्ट]। यदि हम अग्नि आदि देवों का ठीक ज्ञान प्राप्त करके इनका उपयुक्त प्रयोग करेंगे तो पाप व कष्ट से ऊपर उठ पाएँगे, अत: कहते हैं कि (अग्निं ब्रूम:) = अग्नि का व्यक्त [स्पष्ट] प्रतिपादन करते हैं-उसका ठीक ज्ञान प्रास करते हैं। इसी प्रकार (वनस्पतीन् ओषधी: उत वीरुधः) = वनस्पतियों, ओषधियों व लताओं का ठीक प्रकार से प्रतिपादन करते हैं। २. (इन्द्र बृहस्पति सूर्यम्) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले [इन्द्र], ज्ञान के स्वामी [बृहस्पति], सबको कर्मों में प्रेरित करनेवाले [सुवति कर्मणि-सूर्यः] प्रभु को हम स्तुत करते हैं और स्वयं भी जितेन्द्रिय, ज्ञानी व क्रियाशील बनने का प्रयास करते हैं। (ते) = वे सब अग्नि आदि देव (न:) = हमें (अंहसः मुञ्चन्तु) = पाप व कष्ट से मुक्त करें।

    भावार्थ

    हम अग्नि आदि देवों का ठीक ज्ञान प्राप्त करते हुए उनकी सहायता से पापों व कष्टों से बचें।

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    भाषार्थ

    (अग्निम्, वनस्पतीन्, ओषधीः) अग्नि, वनस्पतियों (उत) तथा (वीरुधः) लताओं, (इन्द्रं बृहस्पतिम्) इन्द्र, बृहस्पति का (ब्रुम) हम कथन करते हैं, वर्णन करते हैं, (ते) वे [हे परमेश्वर ! ] (नः) हमें (अंहसः) हनन से (मुञ्चन्तु) मुक्त करें, हमारा हनन न करें।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में जिन कारणों से हनन की सम्भावना है, उन का कथन किया हैं। तथा उनके द्वारा हनन न होने की याचना की गई है। यह याचना परमेश्वर से की गई— यह भाव मन्त्र का प्रतीत होता है। अग्नि आदि को, हनन के कारण रूप में वर्णित किया है। यदि प्रार्थना इनसे की होती तो यह कहा जाता कि "ते यूयं अंहसः नो मुञ्चत" न कि "मुञ्चन्तु"। देखो (मंत्र १८) में सायणाचार्य का अर्थ। अग्नि जलाने से, वनस्पतियों, ओषधियों और लताओं के सूख जाने से, इन्द्र अर्थात् विद्युत् तथा बृहस्पति अर्थात् वायु द्वारा अतिताप या अतिवर्षा से, सूर्य द्वारा अतिताप और अतिसर्दी से मृत्यु की सम्भावना होती है। अग्नि आदि पदार्थ परमेश्वराधीन हैं। वह इन का नियन्ता है। अतः नियन्ता से प्रार्थना उचित प्रतीत होती है। बृहस्पति मध्यस्थानी देवता है। सम्भवतः वायु। यथा "निष्टज्जभार चमसं न बृक्षाद् बृहस्पतिर्विरवेणाविकृत्य" (ऋ० १०।६८।८) अर्थात् बृहस्पति, गर्जनाओं द्वारा मेघ को काट कर, वर्षा प्रदान करता है। जैसे कि बड़हई वृक्ष से चमस को काट निकालता है। तथा "बृहस्पतिर्विरवेण शब्देन विकृत्य" (निरुक्त १०।१।१२)। अंहसः = "१हतेर्निरूढोपधात्, विपरीतात्" (निरुक्त ४।४।२५)।] [१. हन्= ह्+अ+न्, अ+न्+ह्=अंह्। अंह्+असुन्=अंहस्।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom from Sin and Distress

    Meaning

    We address Agni, fire, trees, herbs, plants and creepers, Indra, i.e., nature’s electric energy, Brhaspati, all sustaining air energy and the sun, and pray to the Lord of nature, they may protect us from sin, sickness and disease. (Natural forces correctly used give us health; abused, they cause suffering. We address them to understand their efficacy so that we take advantage of them and avoid abusing them. If we are correct, nature helps us, if we abuse or exploit nature, it reacts and we suffer. Therefore we pray: May God give us wisdom to take advantage of nature to be free from sin and suffering.)

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    Subject

    To many different gods : for relief

    Translation

    To many different gods : for relief. [See first Samullisa (chapter) of the Light of Truth by Dayananda for etymological derivations] Note: Satyartha Prakas and several name for God 1.Agni; 2. Varuna; 3.Mitra; 4.Visnu; 5.Bhaga; 6.Ansa; 7.Vivasvanta; 8.Savitr; 9.Dhatr; 10.Pusan; 11.Gandharva; 12.Apsaras; 13.Asvinau; 14.Brahmanspati; 15.Aryaman; 16.Diva; 17.Paatri; 18.Surya; 19.Candra; 20.Parjanya; 21.Soma; 22.Bhava; 23.Sarva.
    We address (bru) Agni, the forest trees, the herbs and the Plants, Indra, Brhaspati, the Sun; let them free us from distress.

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    Translation

    We describe and take to our use the fire, trees, herbaceous plants, plants electricity, cloud and sun, let them may us free from diseases.

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    Translation

    We call on God, on the trees lords of the forest, herbs and plants, on the learned teacher, a Vedic scholar and the Sun: may they deliver us from sin.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(अग्निम्) (ब्रूमः) कथयामः। स्तुमः (वनस्पतीन्) पिप्पलादिमहावृक्षान् (ओषधीः) अन्नादिरूपाः (उत) अपि च (वीरुधः) विरोहणशीला लताद्याः (इन्द्रम्) मेघम् (बृहस्पतिम्) बृहतां लोकानां पालकम् (सूर्यम्) आदित्यम् (ते) पूर्वोक्ताः (नः) अस्मान् (मुञ्चन्तु) मोचयन्तु, (अंहसः) अमेर्हुक् च। उ–० ४।२१३। अम रोगे पीडने च-असुन् हुक् च। कष्टा ॥

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