Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 7 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 19
    ऋषिः - अथर्वा देवता - उच्छिष्टः, अध्यात्मम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - उच्छिष्ट ब्रह्म सूक्त
    68

    चतु॑र्होतार आ॒प्रिय॑श्चातुर्मा॒स्यानि॑ नी॒विदः॑। उच्छि॑ष्टे य॒ज्ञा होत्राः॑ पशुब॒न्धास्तदिष्ट॑यः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    चतु॑:ऽहोतार: । आ॒प्रिय॑ । चा॒तु॒:ऽमा॒स्यानि॑ । नि॒ऽविद॑: । उत्ऽशि॑ष्टे । य॒ज्ञा: । होत्रा॑: । प॒शु॒ऽब॒न्धा: । तत् । इष्ट॑य: ॥९.१९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    चतुर्होतार आप्रियश्चातुर्मास्यानि नीविदः। उच्छिष्टे यज्ञा होत्राः पशुबन्धास्तदिष्टयः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    चतु:ऽहोतार: । आप्रिय । चातु:ऽमास्यानि । निऽविद: । उत्ऽशिष्टे । यज्ञा: । होत्रा: । पशुऽबन्धा: । तत् । इष्टय: ॥९.१९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 7; मन्त्र » 19
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सब जगत् के कारण परमात्मा का उपदेश।

    पदार्थ

    (चतुर्होतारः) चार [ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, चार वर्णों] से ग्राह्य व्यवहार, (चातुर्मास्यानि) चार महीनों में सिद्ध होनेवाले कर्म (आप्रियः) सर्वथा प्रीति उत्पन्न करनेवाली क्रियाएँ और (निविदः) निश्चित विद्याएँ, (यज्ञाः) यज्ञ [श्रेष्ठ व्यवहार], (होत्राः) देने लेने योग्य [वेदवाचाएँ] (पशुबन्धाः) प्राणियों के प्रबन्ध (तत्) तथा (इष्टयः) इष्ट क्रियाएँ (उच्छिष्टे) शेष [म० १।५ परमात्मा] में हैं ॥१९॥

    भावार्थ

    सर्वविद्यामय, सर्वाधार परमेश्वर की उपासना से मनुष्य अपने-अपने योग्य कर्मों में प्रवृत्ति करें ॥१९॥

    टिप्पणी

    १९−(चतुर्होतारः) चत्वारो ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्रा होतारो ग्रहीतारो येषां ते व्यवहाराः (आप्रियः) प्रीञ् तर्पणे कान्तौ च-क्विप्। सर्वथा प्रीत्युत्पादिकाः क्रियाः (चातुर्मास्यानि) चतुर्मासाण् ण्यो यज्ञे। वा० पा० ५।१।९४। चतुर्षु मासेषु साध्यानि कर्माणि (निविदः) अ० ५।२६।४। निश्चितविद्याः (उच्छिष्टे) (यज्ञाः) श्रेष्ठव्यवहाराः (होत्राः) अ० ११।६।१४। दानादानयोग्या वेदवाचः (पशुप्रबन्धाः) पशवो व्यक्तवाचश्चाव्यक्तवाचश्च-निरु० ११।२९। पशूनां प्राणिनां प्रबन्धाः (तत्) तथा (इष्टयः) इष्टक्रियाः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    यज्ञाः होत्राः

    पदार्थ

    १. (चतुर्होतार:) = चतुर्होतृसंज्ञक मन्त्र ['चित्ति नुक्'-तै० आ०३।१-५], (आप्रिय:) = होता जिन मन्त्रों से यज्ञ करता है [आप्रीभिः आप्रवन् तद् आप्रीणाम् आप्रित्वम्-तै० ब्रा०२।२।८।२] (चातुर्मास्यानि) = चार मासों में क्रियमाण 'वैश्वदेव, वरुणप्रघास, साकमेध और शुनासीरीय' नामक चार पर्व, नीविदः स्तोतव्य गुणप्रकर्ष निवेदनपरक मन्त्र, (यज्ञाः) = याग, (होत्रा:) = होत प्रमुख सात वषट्कर्ता, (पशबन्धा:) = 'अग्नीषोमीय सवनीय अनुबन्धी' रूप सोमांगभूत पशुयाग, (इष्टयः) = अंगभूत यज्ञ, (तत्) = वह सब चतु]तृप्रभृतिक मन्त्र, यज्ञ व (यज्ञांग उच्छिष्टे) = उच्छिष्यमाण प्रभु में आश्रित होकर रह रहे हैं।

    भावार्थ

    सब मन्त्रों, यज्ञों व यज्ञांगों के आधार प्रभु ही है।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (चतुर्होतारः) चतुर्होतृसंज्ञक मन्त्र, (आप्रियः) इध्म आदि १२ पदार्थ तथा एतत्सम्बन्धी १२ आप्री मन्त्र (अथर्व० काण्ड ५, सूक्त १२, २७), निरुक्त ८।२।४-१५; तथा ८।३।१६-२३)। आप्री मन्त्रों द्वारा देवताओं को प्रीणित अर्थात् प्रसन्न किया जाता है, (चातुर्मास्यानि) चार मासों में किये जाने वाले ४ यज्ञ, (नीविदः) स्तोतव्य देवों के गुणप्रकर्षो का निवेदन करने वाले मन्त्र, नथा (यज्ञाः) याग, (होत्राः) होता के समेत ७ ऋत्विक जो कि "वषट्" शब्द का उच्चारण करते हैं और तत्पश्चात् आहुति देते हैं। (पशुबन्धाः) यज्ञ में पशुओं का बान्धना, सम्भवतः प्रदर्शनी के लिये (इष्टयः) अङ्गभूत तथा स्वतन्त्र इष्टियां- (तत्) यह सब (उच्छिष्टे) उच्छिष्ट परमेश्वर में आश्रित हैं। मन्त्र की व्याख्या सायण भाष्यानुसार की गई है।

    टिप्पणी

    [चातुर्मास्यानि = कार्तिक से आरम्भ करके प्रत्येक चतुर्थमास में किये जाने वाले यज्ञ, अर्थात् वैश्वदेव, वरुणप्रधास, साकमेध शुनासीरीय]।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सर्वोपरि विराजमान उच्छिष्ट ब्रह्म का वर्णन।

    भावार्थ

    (चतुर्होतारः) चतुर्होतृ नामक अनुवाक (आप्रियः) पशुयाग सम्बन्धी प्रयोगों को याज्या मन्त्र, (चातुर्मास्यानि) चातुर्मास्य में किये जाने योग्य वैश्वदेव, वरुणप्रघास, साकमेध, शुनासिरीय आदि पर्व और (निविदः) स्तुति करने योग्य इष्ट देव के विशेष गुण प्रदर्शक वेद की ऋचाएं, (यज्ञाः) यज्ञ (होत्राः) होता आदि सात ऋत्विक् (पशुबन्धाः) पशु बन्ध द्वारा किये जाने वाले सोम याग के अंगभूत यज्ञ और (तदिष्टयः) उनके बीच की अङ्ग रूप इंष्टियें ये सब (उच्छिष्टे) उस सर्वोत्कृष्ट ब्रह्म में आश्रित हैं, उन सबका तात्पर्य परब्रह्मपरक है। उनकी सदा ब्रह्म विषयक व्याख्या करनी चाहिये।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। अध्यात्म उच्छिष्टो देवता। ६ पुरोष्णिग् बार्हतपरा, २१ स्वराड्, २२ विराट् पथ्याबृहती, ११ पथ्यापंक्तिः, १-५, ७-१०, २०, २२-२७ अनुष्टुभः। सप्तविंशर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Ucchhishta, the Ultimate Absolute Brahma

    Meaning

    Chatur-hotr mantras recited at new moon and full moon yajna, Apri mantras, four yajnas performed in four months, hymns of praise and celebration, yajnas, priests, all rules and disciplines of living beings, in fact all acts and rituals people wish to perform for specific purposes, all these abide in Brahma.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    The four-priest (catur-hotr) (sacrifices), the aparis, the seasonal (oblations), the nivids -- in the remnant (are) the sacrifices, the invocations, the victim-offerings (pasubandha), then the offerings (isti).

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    The four Hotars, Apriya hymns, Chaturmasya, Nivid verses; Yajna, seven priests hotar etc; Pashubanda, the Yajna for protection and preservation of animals, and the other Ishtis remain in the Uchchhista.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    The duties of Brahman, Kshatriya, Vaish, Sudra, acts of comradeship, four-monthly rites, exact sciences, sacrifices, Vedic verses worth preaching and observing, the literary compositions of scholars, noble desires: all rest in God.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १९−(चतुर्होतारः) चत्वारो ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्रा होतारो ग्रहीतारो येषां ते व्यवहाराः (आप्रियः) प्रीञ् तर्पणे कान्तौ च-क्विप्। सर्वथा प्रीत्युत्पादिकाः क्रियाः (चातुर्मास्यानि) चतुर्मासाण् ण्यो यज्ञे। वा० पा० ५।१।९४। चतुर्षु मासेषु साध्यानि कर्माणि (निविदः) अ० ५।२६।४। निश्चितविद्याः (उच्छिष्टे) (यज्ञाः) श्रेष्ठव्यवहाराः (होत्राः) अ० ११।६।१४। दानादानयोग्या वेदवाचः (पशुप्रबन्धाः) पशवो व्यक्तवाचश्चाव्यक्तवाचश्च-निरु० ११।२९। पशूनां प्राणिनां प्रबन्धाः (तत्) तथा (इष्टयः) इष्टक्रियाः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top