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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 24
    ऋषिः - अथर्वा देवता - उच्छिष्टः, अध्यात्मम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - उच्छिष्ट ब्रह्म सूक्त
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    ऋचः॒ सामा॑नि॒ च्छन्दां॑सि पुरा॒णं यजु॑षा स॒ह। उच्छि॑ष्टाज्जज्ञिरे॒ सर्वे॑ दि॒वि दे॒वा दि॑वि॒श्रितः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋच॑: । सामा॑नि । छन्दां॑सि । पु॒रा॒णम् । यजु॑षा । स॒ह । उत्ऽशि॑ष्टात् । ज॒ज्ञि॒रे॒ । सर्वे॑ । दि॒वि । दे॒वा: । दि॒वि॒ऽश्रित॑: ॥९.२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋचः सामानि च्छन्दांसि पुराणं यजुषा सह। उच्छिष्टाज्जज्ञिरे सर्वे दिवि देवा दिविश्रितः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋच: । सामानि । छन्दांसि । पुराणम् । यजुषा । सह । उत्ऽशिष्टात् । जज्ञिरे । सर्वे । दिवि । देवा: । दिविऽश्रित: ॥९.२४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 7; मन्त्र » 24
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सब जगत् के कारण परमात्मा का उपदेश।

    पदार्थ

    (ऋचः) स्तुतिविद्याएँ [वा ऋग्वेदमन्त्र] (सामानि) मोक्षज्ञान [वा सामवेदमन्त्र] और (यजुषा सह) विद्वानों के सत्कारसहित [वा यजुर्वेदसहित] (छन्दांसि) आनन्दप्रद कर्म [वा अथर्ववेदमन्त्र] और (पुराणम्) पुराण [पुरातन वृत्तान्त]-(सृष्टि उत्पत्ति प्रलय आदि वृत्तांत) [यह सब और] (दिवि) आकाश में [वर्तमान] (दिविश्रितः) सूर्य [के आकर्षण] में ठहरे हुए (सर्वे) सब (देवाः) गतिमान् लोक (उच्छिष्टात्) शेष [म० १। परमात्मा] से (जज्ञिरे) उत्पन्न हुए हैं ॥२४॥

    भावार्थ

    परमेश्वर ने सब उत्तम कर्म और वेद  और सब पदार्थ मनुष्य के सुख के लिये प्रकट किये हैं ॥२४॥

    टिप्पणी

    २४−(ऋचः) अ० ११।६।१४। स्तुतिविद्याः। ऋग्वेदमन्त्राः (सामानि) अ० ११।६।१४। मोक्षज्ञानानि। साममन्त्राः (छन्दांसि) अ० ४।३४।१। चदि आह्लादने-असुन्, चस्य छः। आह्लादकर्माणि। अथर्ववेदमन्त्राः (पुराणम्) अ० १०।७।२६। पुरातनवृत्तान्तः (यजुषा) अ० ७।५४।२। विदुषां सत्कारेण। यजुर्मन्त्रेण (सह) शेषं पूर्ववत् ॥

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    विषय

    सर्वाधार प्रभु

    पदार्थ

    १. (यत् च) = जो भी प्राणिसमूह (प्राणेन प्राणति) = प्राणवायु से प्राणन-व्यापार करता है अथवा घ्राणेन्द्रिय से गन्धों को सँघता है, (यत् च) = और जो प्राणिसमूह (चक्षुषा पश्यति) = आँख से रूप को देखता है (सर्वे) = वे सब प्राणी (उच्छिष्टात् जजिरे) = उच्छिष्यमाण प्रभु से प्रादुर्भूत हुए हैं तथा (दिवि) = द्युलोक में स्थित (दिविश्रित:) = प्रकाशमय सूर्य के आकर्षण में श्रित (देवा:) = [दिव् गतौ] गतिमय लोक उस उच्छिष्ट प्रभु में ही आश्रित हैं। २. (ऋचः) = पादबद्ध मन्त्र, (सामानि) = गीतिविशिष्टमन्त्र, (छन्दांसि) = गायत्री आदि सातों छन्द, (यजुषा सह) = यज्ञ प्रतिपादक मन्त्रों के साथ (पुराणम्) = सृष्टि-निर्माण व प्रलयादि के प्रतिपादक मन्त्र ये सब उच्छिष्यमाण प्रभु में आश्रित हैं। २. (प्राणापानौ) = प्राण और अपान, (चक्षुः श्रोत्रम्) = आँख व कान, (अक्षिति: च) = क्षय का अभाव (या च क्षिति:) = और जो क्षय है, वह सब उच्छिष्ट प्रभु में आश्रित है। इसी प्रकार (आनन्दाः) = विषयोप भोगजनित सुख, (मोदा:) = विषयदर्शनजन्य हर्ष, (प्रमुदा:) = प्रकृष्ट विषयलाभजन्य हर्ष, (ये च) = और जो (अभीमोदमुद:) = [अभिमोदेन मोदयन्ति] संनिहित सुख हेतु पदार्थ हैं-ये सब उस प्रभु में आश्रित हैं। ३. (देवा:) = आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य तथा इन्द्र और प्रजापति नामक तेतीस देव, (पितर:) = पालनात्मक कर्मों में प्रवृत्त रक्षक वर्ग, (मनुष्या:) = प्रभुमननपूर्वक धनार्जन करनेवाले मनुष्य, (गन्धर्व-अप्सरसः च ये) = जो वेदवाणी का धारण [गा धारयन्ति] और यज्ञादि कर्मों को करनेवाले [अप्सु सरन्ति] लोग हैं-ये सब उस प्रभु के आधार से ही रह रहे हैं।

    भावार्थ

    प्राणिमात्र व पदार्थमात्र के आधार वे प्रभु ही है, सब ज्ञानों व आनन्दों का आधार भी वही हैं।

    सर्वाधार प्रभु का स्मरण करता हुआ यह साधक अपने कर्तव्यमार्ग पर निरन्तर आगे बढ़ता है। कर्त्तव्य कर्म करने को ही अपना मार्ग समझनेवाला यह 'कौरुपथि' ही अगले सूक्त का ऋषि है। इस सूक्त का देवता 'अध्यात्मम् है, इसमें शरीर की रचना आदि का काव्यमय वर्णन है -

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    भाषार्थ

    (ऋचः) ऋचाएं अर्थात् ऋग्वेद, (सामानि) साममन्त्र अर्थात् सामवेद, (छन्दांसि) आह्लादप्रद अथर्वमन्त्र अथर्ववेद, (यजुषा सह) यजुर्वेद के साथ (पुराणम्) पुराण अर्थात् भूमि की प्रागवस्था की विद्या या प्रकृति, तथा (सर्वे देवाः) सब देव (दिवि) जोकि द्युलोक में हैं (दिविश्रितः) और द्युलोक में जिन का आश्रय है- (उच्छिष्टात्) वे प्रलय में भी अवशिष्ट परमेश्वर से (जज्ञिरे) पैदा हुए हैं।

    टिप्पणी

    [छन्दांसि="चन्देरादेश्च छः" (उणा० ४।२१०), चदि आह्लादने आह्लाद= अथर्ववेद, पुराणम्=भूमि की प्रागवस्था की विद्या (अथव० ११।८।७)। तथा पुराण=प्रकृति (अथर्व० १०।७।२३)। देवाः= द्योतमानाः सूर्यतारा नक्षत्रादयः]।

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    विषय

    सर्वोपरि विराजमान उच्छिष्ट ब्रह्म का वर्णन।

    भावार्थ

    (ऋचः) ऋग्वेद के मन्त्र, (सामानि) सामवेद और उसके सहस्रों सामगान के भेद, (छन्दांसि) गायत्री आदि छन्द अथवा अथर्व के मन्त्र (यजुषा सह पुराणं) यजुर्वेद, कर्मप्रवर्त्तक मन्त्रों के साथ साथ सृष्टि उत्पत्ति प्रलय आदि के वर्णन करने हारे मन्त्र और ब्राह्मण भाग और (सर्वे देवा दिविश्रितः) आकाशस्थ सूर्यादि समस्त दिव्य लोक (उच्छिष्टशत् जज्ञिरे) ‘उच्छिष्ट’ उस सर्वोत्कृष्ट परमेश्वर से उत्पन्न होते हैं।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘ऋग् यजुः सामानि’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। अध्यात्म उच्छिष्टो देवता। ६ पुरोष्णिग् बार्हतपरा, २१ स्वराड्, २२ विराट् पथ्याबृहती, ११ पथ्यापंक्तिः, १-५, ७-१०, २०, २२-२७ अनुष्टुभः। सप्तविंशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Ucchhishta, the Ultimate Absolute Brahma

    Meaning

    All descriptions in the form of celebration and the Rgveda, songs of ecstasy and Samaveda, happy songs and Atharva-veda, all pre-historic literature along with Yajurveda, and all the divinities abiding and sustained in the region of light are born of the Ultimate Brahma.

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    Translation

    The verses (rc), the chants, the meters, the ancient (purana), together with the formula (yajus): from the remnant were born etc.

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    Translation

    Rigvedic verses, Saman verses, Atharvavedic verses and the verses containing science of creation with that Yajurvedic verses which are concerned with rites, rituals and Yajnas were revealed by Uchchhista. Rest is like previous one.

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    Translation

    The verses of the Rigveda, the Sāmaveda, the Atharvaveda, and the Yajurveda, along with the verses pertaining to the creation and dissolution of the universe, all the luminous objects in heaven, and all emancipated souls spring from God.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २४−(ऋचः) अ० ११।६।१४। स्तुतिविद्याः। ऋग्वेदमन्त्राः (सामानि) अ० ११।६।१४। मोक्षज्ञानानि। साममन्त्राः (छन्दांसि) अ० ४।३४।१। चदि आह्लादने-असुन्, चस्य छः। आह्लादकर्माणि। अथर्ववेदमन्त्राः (पुराणम्) अ० १०।७।२६। पुरातनवृत्तान्तः (यजुषा) अ० ७।५४।२। विदुषां सत्कारेण। यजुर्मन्त्रेण (सह) शेषं पूर्ववत् ॥

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