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अथर्ववेद के काण्ड - 13 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 14
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
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    यत्स॑मु॒द्रमनु॑ श्रि॒तं तत्सि॑षासति॒ सूर्यः॑। अध्वा॑स्य॒ वित॑तो म॒हान्पूर्व॒श्चाप॑रश्च॒ यः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । स॒मु॒द्रम् । अनु॑ । श्रि॒तम् । तत् । सि॒षा॒स॒ति॒ । सूर्य॑: । अध्वा॑ । अ॒स्य॒ । विऽत॑त: । म॒हान् । पूर्व॑: । च॒ । अप॑र: । च॒ । य: ॥2.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्समुद्रमनु श्रितं तत्सिषासति सूर्यः। अध्वास्य विततो महान्पूर्वश्चापरश्च यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । समुद्रम् । अनु । श्रितम् । तत् । सिषासति । सूर्य: । अध्वा । अस्य । विऽतत: । महान् । पूर्व: । च । अपर: । च । य: ॥2.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 2; मन्त्र » 14
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्) जो कुछ (समुद्रम् अनु) समुद्र [संसार] में (श्रितम्) ठहरा हुआ है, (तत्) उस को (सूर्यः) सूर्य [लोकों का चलानेवाला रवि] (सिषासति) सेवा करना चाहता है। (अस्य) उस [सूर्य] का (अध्वा) मार्ग (विततः) फैला हुआ और (महान्) बड़ा है, (यः) जो [मार्ग] (पूर्वः) आगे (च च) और (अपरः) पीछे [अथवा पूर्व और पश्चिम] है ॥१४॥

    भावार्थ

    यह सूर्य अपने घेरे के भीतर सब लोकों को आकर्षण, वृष्टि आदि से सेवता है, उस नियम को निरखकर विद्वान् लोग मर्यादा पर चलें ॥१४॥

    टिप्पणी

    १४−(यत्) वस्तुजातम् (समुद्रम्) संसाररूपम् (अनु) प्रति (श्रितम्) स्थितम् (तत्) (सिषासति) षण संभक्तौ-सन्। सेवितुमिच्छति (सूर्यः) आदित्यलोकः (अध्वा) मार्गः (अस्य) सूर्यस्य (विततः) विस्तृतः (पूर्वः) (च) (अपरः) पश्चाद् भवः। पश्चिमः (च) (यः) मार्गः ॥

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    विषय

    'वृष्टि व कालचक्र' का कारणभूत सूर्य

    पदार्थ

    १. (यत्) = जो जल समुद्र (अनुचितम्) = समुद्र में आश्रय किये हुए है, (तत्) = उसे (सूर्यः) = सूर्य (सिषासति) = समविभक्त करना चाहता है। सूर्य समुद्र-जल को अपनी किरणों के द्वारा वाष्पीभूत करके ऊपर ले-जाता है, मानो सूर्य समुद्र-जल का पान करता है। २. (अस्य) = इस सूर्य का (यः अध्वा) = जो मार्ग (पूर्वः च अपर: च) = पूर्व से पश्चिम तक (विततः) = फैला हुआ है, वह निश्चय से (महान्) = अतिशयेन बड़ा है अथवा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यह सूर्य का मार्ग ही सब कालचक्र का कारण बनता है।

     

    भावार्थ

    सूर्य ही समुद्र-जल को वाष्पीभूत करके ऊपर ले जाता है और मेष-निर्माण द्वारा वृष्टि का कारण बनता है। पूर्व से पश्चिम तक फैला हुआ सूर्य का मार्ग ही कालचक्र का निर्माण करनेवाला बनता है।

     

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    भाषार्थ

    (यत्) जो मेघीय जल (समुद्रम् अनु श्रितम्) समुद्र अर्थात् अन्तरिक्ष में आश्रित है (तत्) उसे (सूर्यः) सूर्य (सिषासति) देना चाहता है या देता है। (अस्य) इस सूर्य का (अध्वा) मार्ग (महान्) महान् है (यः) जो कि (पूर्वः च अपरः च विततः) पूर्व और पश्चिम में फैला हुआ है।

    टिप्पणी

    [समुद्रम्= अन्तरिक्ष में या मेघ में जल का वास हैं जिसे कि सूर्य देता है। सूर्य निज ताप द्वारा पार्थिव जल का बाष्पीकरण करके, जल को अन्तरिक्ष में पहुंचाता और वर्षा ऋतु में हमें पुनः दे देता है। समुद्र के लिये देखो (मन्त्र १०)। तथा "समुद्र अन्तरिक्ष नाम" (निघं० १।३)]

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    विषय

    रोहित, परमेश्वर और ज्ञानी।

    भावार्थ

    (सूर्यः) सूर्य के समान तेज से युक्त आत्मा (तत्) उस परमरस को (सिषासति) प्राप्त करना चाहता है (यत्) जो (समुद्रम् अनुश्रितम्) समुद्र के समान आनन्दरस के सागर परमेश्वर में विद्यमान है। (अस्य) इस तक पहुंचने के लिये (यः) जो (पूर्वः) पूर्व, जो पहले चला आया है और (यः अपरः च) जो ‘अपर’ आगे भी चलना है यह समस्त (अध्वा) मार्ग (महान् विततः) बड़ा भारी उसके समक्ष विस्तृत है। अर्थात् ब्रह्म का मार्ग महान् है जिसका आगा और पीछा दोनों विशाल हैं। पूर्णब्रह्म का मार्ग अनन्त है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्म रोहितादित्यो देवता। १, १२-१५, ३९-४१ अनुष्टुभः, २३, ८, ४३ जगत्यः, १० आस्तारपंक्तिः, ११ बृहतीगर्भा, १६, २४ आर्षी गायत्री, २५ ककुम्मती आस्तार पंक्तिः, २६ पुरोद्व्यति जागता भुरिक् जगती, २७ विराड़ जगती, २९ बार्हतगर्भाऽनुष्टुप, ३० पञ्चपदा उष्णिग्गर्भाऽति जगती, ३४ आर्षी पंक्तिः, ३७ पञ्चपदा विराड़गर्भा जगती, ४४, ४५ जगत्यौ [ ४४ चतुष्पदा पुरः शाक्वरा भुरिक् ४५ अति जागतगर्भा ]। षट्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rohita, the Sun

    Meaning

    Whatever is implicit in the infinite creativity of Divinity, that the sun shares and wants to give. Great is the path of its motion and bestowal, spread far and wide, full and more, now and beyond, last and later, ever on.

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    Translation

    What is contained in the ocean, the sun wants to obtain. Its great path is stretched out far, that is eastward as well as westward.

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    Translation

    This sun keeps in its contact the present and is in the sea spreading out in its east and in its west is very great.

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    Translation

    The soul is willing to obtain God, Who lies in the ocean of joy. To reach Him, vast and mighty is the path laid down for the soul, for guidance in the past and future

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १४−(यत्) वस्तुजातम् (समुद्रम्) संसाररूपम् (अनु) प्रति (श्रितम्) स्थितम् (तत्) (सिषासति) षण संभक्तौ-सन्। सेवितुमिच्छति (सूर्यः) आदित्यलोकः (अध्वा) मार्गः (अस्य) सूर्यस्य (विततः) विस्तृतः (पूर्वः) (च) (अपरः) पश्चाद् भवः। पश्चिमः (च) (यः) मार्गः ॥

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