अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 15
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
44
तं समा॑प्नोति जू॒तिभि॒स्ततो॒ नाप॑ चिकित्सति। तेना॒मृत॑स्य भ॒क्षं दे॒वानां॒ नाव॑ रुन्धते ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । सम् । आ॒प्नो॒ति॒ । जू॒तिऽभि॑: । तत॑: । न । अप॑ । चि॒कि॒त्स॒ति॒ । तेन॑ । अ॒मृत॑स्य । भ॒क्षम् । दे॒वाना॑म् । न । अव॑ । रु॒न्ध॒ते॒ ॥2.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
तं समाप्नोति जूतिभिस्ततो नाप चिकित्सति। तेनामृतस्य भक्षं देवानां नाव रुन्धते ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । सम् । आप्नोति । जूतिऽभि: । तत: । न । अप । चिकित्सति । तेन । अमृतस्य । भक्षम् । देवानाम् । न । अव । रुन्धते ॥2.१५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पदार्थ
(तम्) उस [मार्ग] को (जूतिभिः) अपने वेगों से (सम् आप्नोति) वह [सूर्य] समाप्त करता रहता है, (ततः) उस मार्ग से (न अपचिकित्सति) वह भूल नहीं करता। (तेन) उसी कारण से (देवानाम्) विजय चाहनेवालों के (अमृतस्य) अमरपन [जीवनसाधन] के (भक्षम्) सेवन को (न अव रुन्धते) वे [विघ्न] नहीं रोकते हैं ॥१५॥
भावार्थ
सूर्य निरन्तर घूम कर संसार में प्रकाश करता रहता है, उसी से सब पुरुषार्थी जन जीवनसामग्री पाते हैं ॥१५॥
टिप्पणी
१५−(तम्) अध्वानम् (समाप्नोति) सम्यक् प्राप्नोति (जूतिभिः) जवनैः। वेगैः (ततः) तस्मात् मार्गात् (न) निषेधे (अप) (चिकित्सति) कित व्याधिप्रतीकारनिग्रहापनयननाशनसंशयेषु−स्वार्थे सन्। संदेहं प्रमादं करोति (तेन) कारणेन (अमृतस्य) अमरणस्य। जीवनसाधनस्य। (भक्षम्) वृतॄवदिवचि०। उ० ३।६२। भज सेवायाम्-स। सेवनम् (देवानाम्) विजिगीषूणाम् (न) निषेधे (अव) (रुन्धते) वर्जयन्ति विघ्नाः ॥
विषय
ब्रह्मप्राप्ति के लिए तीन बातें
पदार्थ
१. (तम्) = उस सूर्यसम ज्योति ब्रह्म को (जूतिभिः समाप्नोति) = कर्तव्यकर्मों को वेग से, अप्रमाद से करने के द्वारा प्रास करता है। (तत:) = उस ब्रह्म से (न अप चिकित्सति) = ये दूर रहने की कामना नहीं करता, ब्रह्म-प्राप्ति की प्रबल कामनाबाला होता है। २. (तेन) = उस ब्रह्म-प्राप्ति के उद्देश्य से ही (देवानाम्) = देवों के (अमृतस्य भक्षम्) = अमृत के भोजन को ये ब्रह्म-प्राप्ति के इच्छुक पुरुष (न अवरुन्धते) = नहीं रोकते, अर्थात् देवों की भाँति ये अमृत का भोजन करेनवाले होते हैं। यज्ञशेष ही अमृत है, अमृत का सेवन करते हुए ये ब्रह्म को प्रास करते हैं।
भावार्थ
ब्रह्म-प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि [क] हम कर्तव्यकर्मों को अप्रमाद से करनेवाले हों, [ख] ब्रह्म-प्राप्ति की प्रबल इच्छावाले हों, [ग] यज्ञशेष का सेवन करनेवाले बनें।
भाषार्थ
(तम्) उस मार्ग को सूर्य (जूतिभिः) वेगों से (समाप्नोति) समाप्त करता है, (ततः) उस मार्ग से वह (अप चिकित्सति, न) टलता नहीं या उस मार्ग को वह विस्मृत नहीं करता। (तेन) उस द्वारा (देवानाम्) देवों के (अमृतस्य भक्षम्) अमृत भक्षण को वह (रुन्धते न) रोकता नहीं।
टिप्पणी
[अमृतम् उदकनाम (निघं० १।१२)। अप चिकित्सति= अप + चिति स्मृत्याम; अपस्मरण= विस्मरण। ततः= पञ्चमी, या द्वितीया विभक्ति में तसिल्। जूतिभिः = वेगों से। बहुवचन द्वारा यह सूचित किया है कि सूर्य प्रतिदिन वेग से अपने मार्ग को इस लिये समाप्त करता है ताकि वर्षा ऋतु के दिन शीघ्र आ जायें, और वह जल को वाष्पीभूत कर के अन्तरिक्ष, वायु और विद्युत् आदि देवों को, और वर्षा द्वारा पृथिवी, ओषधि और वनस्पति आदि देवों को अमृत अर्थात् जल का पान करा सके। यह जल देवों का अमृत पक्ष है। मन्त्र में कूट कविता के शब्दों में भाव छिपा हुआ है१]।[१. मन्त्र की भावना "सहस्रगुणमुत्स्रष्टु मादत्त हि रसं रविः" के अनुरूप है।]
विषय
रोहित, परमेश्वर और ज्ञानी।
भावार्थ
वह योगी सूर्य के समान तेजस्वी आत्मा भी (जूतिभिः) अपने ही मानस ज्योतियों या ज्ञान के अति वेगों से (तम्) उस सुदूरवर्ती परब्रह्म मार्ग को (सम् आप्नोति) प्राप्त कर लेता है (ततः) तब वह (न अपचिकित्सति। उसे त्याग कर फिर कुमार्ग या संशय या भ्रम में नहीं जाता। (तेन) इसी कारण लोग (देवानां) विद्वान् लोगों के निमित्त (अमृतस्य) अन्न के (भक्षं) भोग को (न अवरुन्धते) नहीं रोकते।
टिप्पणी
(द्वि०) ‘जिगित्सति’ (च०) ‘तेनामृतस्य भक्षगं देवानां नावरुन्धते’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्म रोहितादित्यो देवता। १, १२-१५, ३९-४१ अनुष्टुभः, २३, ८, ४३ जगत्यः, १० आस्तारपंक्तिः, ११ बृहतीगर्भा, १६, २४ आर्षी गायत्री, २५ ककुम्मती आस्तार पंक्तिः, २६ पुरोद्व्यति जागता भुरिक् जगती, २७ विराड़ जगती, २९ बार्हतगर्भाऽनुष्टुप, ३० पञ्चपदा उष्णिग्गर्भाऽति जगती, ३४ आर्षी पंक्तिः, ३७ पञ्चपदा विराड़गर्भा जगती, ४४, ४५ जगत्यौ [ ४४ चतुष्पदा पुरः शाक्वरा भुरिक् ४५ अति जागतगर्भा ]। षट्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rohita, the Sun
Meaning
That infinite share of it, it receives from Divinity on way by its own dynamics of nature. From there, and from that path, it never deviates. By that very path and that relentless sincerity, it never restrains, never withholds, the rightful share of the divinities from Nature, (it gives, freely, profusely, because it receives freely and profusely only for that purpose.)
Translation
That path he covers with fast speeds; he does not want to move away from that path. Thereby he does not obstruct the food of elixir of the enlightened ones.
Translation
The sun finishes that course through its speedy expanding rays, and it never turns its operation aside. (It is why) that it does not hinder water-consuming work of its shining rays.
Translation
A Yogi finishes his journey with the force of knowledge, and never turns his thought aside. Thereby he withholds nol from the learned the enjoyment of food.
Footnote
It is necessary for the learned to take nutritious food for preserving their physical, and mental vigor.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१५−(तम्) अध्वानम् (समाप्नोति) सम्यक् प्राप्नोति (जूतिभिः) जवनैः। वेगैः (ततः) तस्मात् मार्गात् (न) निषेधे (अप) (चिकित्सति) कित व्याधिप्रतीकारनिग्रहापनयननाशनसंशयेषु−स्वार्थे सन्। संदेहं प्रमादं करोति (तेन) कारणेन (अमृतस्य) अमरणस्य। जीवनसाधनस्य। (भक्षम्) वृतॄवदिवचि०। उ० ३।६२। भज सेवायाम्-स। सेवनम् (देवानाम्) विजिगीषूणाम् (न) निषेधे (अव) (रुन्धते) वर्जयन्ति विघ्नाः ॥
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