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अथर्ववेद के काण्ड - 13 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 36
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
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    उ॒च्चा पत॑न्तमरु॒णं सु॑प॒र्णं मध्ये॑ दि॒वस्त॒रणिं॒ भ्राज॑मानम्। पश्या॑म त्वा सवि॒तारं॒ यमा॒हुरज॑स्रं॒ ज्योति॒र्यद॑विन्द॒दत्त्रिः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒च्चा । पत॑न्तम् । अ॒रु॒णम् । सु॒ऽप॒र्णम् । मध्ये॑ । दि॒व: । त॒रणि॑म् । भ्राज॑मानम् । पश्या॑म । त्वा॒ । स॒वि॒तार॑म् । यम् । आ॒हु: । अज॑स्रम् । ज्योति॑: । यत् । अवि॑न्दत् । अत्त्रि॑: ॥२.३६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उच्चा पतन्तमरुणं सुपर्णं मध्ये दिवस्तरणिं भ्राजमानम्। पश्याम त्वा सवितारं यमाहुरजस्रं ज्योतिर्यदविन्ददत्त्रिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उच्चा । पतन्तम् । अरुणम् । सुऽपर्णम् । मध्ये । दिव: । तरणिम् । भ्राजमानम् । पश्याम । त्वा । सवितारम् । यम् । आहु: । अजस्रम् । ज्योति: । यत् । अविन्दत् । अत्त्रि: ॥२.३६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 2; मन्त्र » 36
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।

    पदार्थ

    (उच्चा) ऊँचे (पतन्तम्) ऐश्वर्यवान् होते हुए, (अरुणम्) सर्वव्यापक, (सुपर्णम्) बड़े पालनेवाले, (दिवः) व्यवहार के (मध्ये) मध्य (तरणिम्) पार करनेवाले (भ्राजमानम्) प्रकाशमान, (सवितारम्) सर्वप्रेरक (त्वा) तुझ [परमेश्वर] को (पश्याम) हम देखें, (यम्) जिसको (अजस्रम्) निरन्तर (ज्योतिः) ज्योति (आहुः) वे [विद्वान् लोग] बताते हैं, (यत्) जिस [ज्योति] को (अत्त्रिः) निरन्तर ज्ञानी [योगी पुरुष] ने (अविन्दत्) पाया है ॥३६॥

    भावार्थ

    जिस सर्वोपरि विराजमान, सर्वान्तर्यामी परमेश्वर का ध्यान करके योगी जन आनन्द पाते हैं, उसी की आराधना करके हम पुरुषार्थ के साथ उन्नति करें ॥३६॥

    टिप्पणी

    ३६−(उच्चा) उच्चैः (पतन्तम्) ऐश्वर्यं प्राप्नुवन्तम् (अरुणम्) अर्त्तेश्च। उ० ३।६०। ऋ गतौ-उनन्, चित्। सर्वव्यापकम् (सुपर्णम्) शोभनं पर्णं पालनं यस्मात् तम् (मध्ये) (दिवः) प्रत्येकव्यवहारस्य (तरणिम्) तारकम् (भ्राजमानम्) दीप्यमानम् (पश्याम) अवलोकयाम (त्वा) (सवितारम्) सर्वप्रेरकम् (यम्) (आहुः) कथयन्ति विद्वांसः (अजस्रम्) निरन्तरम् (ज्योतिः) तेजः (यत्) (अविन्दत्) अलभत (अत्त्रिः) म० ४। निरन्तरज्ञानी योगिजनः ॥

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    विषय

    यम् अविन्दत् अत्रिः

    पदार्थ

    १. (उच्या पतन्तम्) = सर्वोच्च स्थिति में परमैश्वर्यवान् होते हुए [पत् गतौ ऐश्वयें च] (अरुणम्) = तेजस्वी व प्रकाशमान (सुपर्णम्) = उत्तमता से सबका पालन करनेवाले (दिवः मध्ये तरणिम्) = ज्ञान के मध्य में तारनेवाले, अर्थात् ज्ञान देकर सब दुरितों से पार करनेवाले, (भ्राजमानम्) = दीप्त (सवितारम्) = सबके उत्पादक व प्रेरक (त्वा) = आपको हे प्रभो! (पश्याम) = देखें। उन आपको देखें, (यम्) = जिनको (अजस्त्रं ज्योति: आहु:) = 'न क्षीण होनेवाली निरन्तर ज्योति', इस रूप में कहते हैं। पास पोति को (अत्रि:) = त्रिगुणातीत नित्य सत्त्वस्थ] पुरुष (अवन्दित्) = प्रास करता है। उस प्रभु का दर्शन अत्रि करता है।

    भावार्थ

    प्रभु परमेश्वर है, तेजस्वी हैं, सबका पालन करनेवाले हैं। ज्ञान द्वारा दुरितों से दूर करनेवाले, दीप्त व प्रेरक हैं। ये प्रभु सदा प्रकाशमय हैं, त्रिगुणातीत पुरुष ही प्रभु को पाते हैं।

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    भाषार्थ

    (सुपर्णम्) उत्तम-पंखों वाले पक्षी के समान (उच्चा पतन्तम्) ऊंचे आकाश में उड़ते हुए, (अरुणम्) आरोचमान, (दिवः मध्ये भ्राजमानम्) द्युलोक के मध्य में चमकते हुए, (तरणिम्) नौकारूप में तैरते हुए, (त्वा सवितारम्) तुझ प्रेरक को (पश्याम) हम देखें, (यम्) जिसे कि (अजस्रं ज्योतिः आहुः) अनश्वर ज्योति कहते हैं, (यद्) जिस ज्योति को (अत्त्रिः) “अत्ता" परमेश्वर ने (अविन्दत्) प्राप्त किया, उस पर स्वामित्त्व प्राप्त किया है।

    टिप्पणी

    [इस प्रकार स्वीय और स्वामी के रूप में, मन्त्र में, सूर्यपिण्ड और उसके अधिष्ठाता का वर्णन हुआ है। अजस्रं१ ज्योतिः= सूर्य कल्पान्तस्थायी हैं, इसलिये इसे अनश्वर ज्योतिः कहा है]।[१. ज्योतियां ३ हैं। यथा 'त्रीणि ज्योतींषि सचते स षोडशी" (यजू ३२।५)। ये है (१) भौमाग्निरूप; (२) अन्तरिक्षीय विद्युत्; (३) द्युलोकस्थ, जिस में मुख्य सूर्याग्नि है। (१) और (२) ज्योतियां नश्वर है। परन्तु सूर्याग्नि कल्पान्त तक रहेगी। अतः इसे "अजस्रम्" अर्थात् अनश्वर कहा है। अजस्रम् = अ + जसु (हिंसायाम्)।]

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    विषय

    रोहित, परमेश्वर और ज्ञानी।

    भावार्थ

    (उच्चा पतन्तम्) उँचे पद, मोक्ष को जाते हुए (अरुणम्) ज्योतिर्मय (सुपर्णं) उत्तम ज्ञान सम्पन्न (दिवः मध्ये) द्यौलोक के बीच में सूर्य के समान (भ्राजमानम्) अति देदीप्यमान (तरणिम्) सर्व दुःखतारक (सवितारम्) सर्व प्रेरक सर्वोत्पादक (त्वाम्) तुझको (अजस्त्रम्) अविनाशी, नित्य (ज्योतिः) ज्योति के रूप में (पश्याम) हम साक्षात् करें (यत्) जिसको (अत्त्रिः) सबको अपने भीतर लीलने वाला मुख्य प्राण (अविन्दत्) धारण करता है।

    टिप्पणी

    (तृ०) ‘पश्येम त्वा’ इति पैप्प० सं०॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्म रोहितादित्यो देवता। १, १२-१५, ३९-४१ अनुष्टुभः, २३, ८, ४३ जगत्यः, १० आस्तारपंक्तिः, ११ बृहतीगर्भा, १६, २४ आर्षी गायत्री, २५ ककुम्मती आस्तार पंक्तिः, २६ पुरोद्व्यति जागता भुरिक् जगती, २७ विराड़ जगती, २९ बार्हतगर्भाऽनुष्टुप, ३० पञ्चपदा उष्णिग्गर्भाऽति जगती, ३४ आर्षी पंक्तिः, ३७ पञ्चपदा विराड़गर्भा जगती, ४४, ४५ जगत्यौ [ ४४ चतुष्पदा पुरः शाक्वरा भुरिक् ४५ अति जागतगर्भा ]। षट्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rohita, the Sun

    Meaning

    We see you, O Sun, rising high to glory and crimson magnificence, a divine Bird of life with the gift of light, blazing and floating like a saving ark of Divinity in the midst of heavenly space, giver and harbinger of life, energy and inspiration, whom poets and sages call imperishable light of Eternity, which Attri, Lord Supreme free from time, space and mutability, created and gifted to life of the world.

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    Translation

    May we behold you, the impeller, flying high, strong-winged, swimming in the midst of heaven, blazing bright, whom they - call the light eternal, which an enjoyer realizes.

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    Translation

    We behold that sun which shines moves at high place, which possesses rays, which is the supporter of other bodies shining itself in the midst of heavenly region, which the learned ones call Savitar and which is ever-effulgent light that Atrih, the fire has attained.

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    Translation

    May we behold Thee O God, highly supreme, Omnipresent, Nourishing, Guide in all transactions. Refulgent, All-urging, Whom the learned call as Unwearied Light, Whom a yogi has visualized.

    Footnote

    Attri is not the name of a Rishi, A highly learned yogi is called Attri.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३६−(उच्चा) उच्चैः (पतन्तम्) ऐश्वर्यं प्राप्नुवन्तम् (अरुणम्) अर्त्तेश्च। उ० ३।६०। ऋ गतौ-उनन्, चित्। सर्वव्यापकम् (सुपर्णम्) शोभनं पर्णं पालनं यस्मात् तम् (मध्ये) (दिवः) प्रत्येकव्यवहारस्य (तरणिम्) तारकम् (भ्राजमानम्) दीप्यमानम् (पश्याम) अवलोकयाम (त्वा) (सवितारम्) सर्वप्रेरकम् (यम्) (आहुः) कथयन्ति विद्वांसः (अजस्रम्) निरन्तरम् (ज्योतिः) तेजः (यत्) (अविन्दत्) अलभत (अत्त्रिः) म० ४। निरन्तरज्ञानी योगिजनः ॥

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