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अथर्ववेद के काण्ड - 13 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 43
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम् छन्दः - जगती सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
    54

    अ॒भ्यन्यदे॑ति॒ पर्य॒न्यद॑स्यतेऽहोरा॒त्राभ्यां॑ महि॒षः कल्प॑मानः। सूर्यं॑ व॒यं रज॑सि क्षि॒यन्तं॑ गातु॒विदं॑ हवामहे॒ नाध॑मानाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । अ॒न्यत् । ए॒ति॒ । परि॑ । अ॒न्यत् । अ॒स्य॒ते॒ । अ॒हो॒रा॒त्राभ्या॑म् । म॒हि॒ष: । कल्प॑मान: । सूर्य॑म्‌ । व॒यम् । रज॑सि । क्षि॒यन्त॑म् । गा॒तु॒ऽविद॑म् । ह॒वा॒म॒हे॒ । नाध॑माना: ॥२.४३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभ्यन्यदेति पर्यन्यदस्यतेऽहोरात्राभ्यां महिषः कल्पमानः। सूर्यं वयं रजसि क्षियन्तं गातुविदं हवामहे नाधमानाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि । अन्यत् । एति । परि । अन्यत् । अस्यते । अहोरात्राभ्याम् । महिष: । कल्पमान: । सूर्यम्‌ । वयम् । रजसि । क्षियन्तम् । गातुऽविदम् । हवामहे । नाधमाना: ॥२.४३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 2; मन्त्र » 43
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।

    पदार्थ

    (अन्यत्) एक कोई [उजाला] (अभि) सन्मुख (एति) चलता है, (अन्यत्) दूसरा [अन्धेरा] (परि) सब ओर (अस्यते) फेंका जाता है, [इस प्रकार] (महिषः) महान् [सूर्य लोक] (अहोरात्राभ्याम्) दिन और रात्रि [बनाने] के लिये (कल्पमानः) समर्थ होता हुआ [वर्तमान है]। (रजसि) सब लोक में (क्षियन्तम्) रहते हुए, (गातुविदम्) मार्ग जाननेवाले (सूर्यम्) सर्वप्रेरक [परमेश्वर] को (नाधमानाः) प्रार्थना करते हुए (वयम्) हम लोग (हवामहे) बुलाते हैं ॥४३॥

    भावार्थ

    सूर्य के सर्वथा प्रकाशमान गोले के साथ घूमते हुए पृथिवी आदि लोक एक ही समय दो काम करते हैं−प्रकाश को आगे बढ़ाना और अन्धकार को पीछे की ओर बढ़ाना और आगे को हटाना, अर्थात् सूर्य न कभी अस्त और न कभी उदय होता है, पृथिवी के आधे गोले पर प्रत्येक समय प्रकाश और दूसरे आधे पर अन्धकार रहता है, ध्रुव के समीप भी सूर्य और पृथिवी के घूमाव से दिन और राति अधिक बड़े होते हैं। मनुष्य ऐसी अद्भुत रचना करनेवाले परमेश्वर की उपासना सदा करें ॥४३॥

    टिप्पणी

    ४३−(अभि) अभिमुखम् (अन्यत्) एकम्। प्रकाशद्रव्यम् (एति) गच्छति (परि) सर्वतः (अन्यत्) द्वितीयम्। अन्धकारद्रव्यम् (अस्यते) क्षिप्यते (अहोरात्राभ्याम्) अहोरात्रौ कर्तुम् (महिषः) महान्। सूर्यलोकः (कल्पमानः) समर्थः सन् वर्तते (सूर्यम्) सर्वप्रेरकं परमात्मानम् (वयम्) (रजसि) सर्वस्मिन् लोके (क्षियन्तम्) निवसन्तम् (गातुविदम्) मार्गज्ञातारम् (हवामहे) आह्वयामः। (नाधमानाः) प्रार्थयमानाः ॥

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    विषय

    'गातुवित्' प्रभु

    पदार्थ

    १. (अन्यत् अभि एति) = एक हमारी ओर आता है, (अन्यत् परि अस्यते) = दूसरा हमसे परे फेंका जाता है। दिन आता है तो रात्रि परे फेंकी जाती है। रात्रि आती है तो दिन परे फेंका जाता है। इसप्रकार (अहोरात्राभ्याम्) = दिन और रात्रि के द्वारा (महिषः) = वह पूजनीय प्रभु (कल्पमान:) = हमारे आयुष्यों को काट रहे हैं। दिन और रात्रि एक क्रम में आते हैं और हमारे आयुष्य को जीर्ण करते चलते हैं। २. उस (सूर्यम्) = सूर्यसम ज्योति ब्रह्म को (रजसि क्षियन्तम्) = सम्पूर्ण अन्तरिक्ष में निवास करनेवाले, (गातुविदम्) = हमारे लिए मार्ग का ज्ञापन करनेवाले को, (वयम्) = हम (नाथमानाः हवामहे) = प्रार्थना करते हुए पुकारते हैं। प्रभु ही मार्गदर्शन करते हुए हमें पापों से बचाते हैं और इस प्रकार हमारा कल्याण करते हैं।

    भावार्थ

    दिन व रात्रि के निर्माण द्वारा हमारे आयुष्य का यापन होता चलता है। वे प्रभु सर्वत्र व्याप्त हैं, हमें मार्ग दिखा रहे हैं।

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    भाषार्थ

    (महिषः) महान सूर्य (अहोरात्राभ्याम्) दिन और रात्रि द्वारा, (कल्पमानः) काल का निर्माण करता हुआ, (अन्यत् अभि) पृथिवी के एक पार्श्व के संमुख (एति) आता है, और (अन्यत्) दूसरा पार्श्व (परि उदस्यते) लगभग या पूर्णतया उत्क्षिप्त कर दिया जाता है, छोड़ दिया जाता है। परन्तु (नाधमानाः वयम्) याचना करते हुए हम (रजसि) रञ्जक-जगत् में (क्षियन्तम्) निवास करते हुए, (गातुविदम्) मार्ग दर्शक (सूर्यम्) सूर्य अर्थात् परमेश्वर का (हवामहे) आह्वान करते हैं।

    टिप्पणी

    [सूर्यम्= सूर्य पद परमेश्वर का वाचक है (अथर्व० १३।४(१)। ५)। गातुविदम् = परमेश्वर वेदों द्वारा जीवन के मार्ग को दर्शाता है, और सूर्य पिण्ड पैरों द्वारा चलने का मार्ग दर्शाता है]

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    विषय

    रोहित, परमेश्वर और ज्ञानी।

    भावार्थ

    जिस प्रकार सूर्य (अन्यत् अभि एति) दिन रात दोनों में से जब एक ‘दिन’ भाग पर आरूढ़ होता है और (धन्यत् परि अस्यते) तब दूसरे रात्रि भाग को सदा परे हटाता है और इस प्रकार वह (महिषः) महान् सूर्य (अहोरात्राभ्याम्) दिन रात दोनों से (कल्पमानः) सामर्थ्यवान् होता है, उसी प्रकार शक्तिशाली परमेश्वर दिन और रात्रि के समान उदय अस्त होने वाले जगत् के सर्ग प्रलय दोनों स्थितियों में से जब एक पर आरूढ़ होता है तो दूसरे को दूर करता है। इस प्रकार (वयम्) हम (नाधमानाः) उपासना करते हुए उपासक लोग (रजसि) रजोगुण में (क्षियन्तम्) निवास करते हुए (सूर्यम्) सब के प्रेरक, प्रकाशक (गातुविदम्) समस्त ज्ञान और यज्ञ या संसार के अपने भीतर ले लेनद्वारे परमेश्वर की (हवामहे) स्तुति करते हैं।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘एतिसद्योयं वासवमहोरात्राभ्यां’ (च०) ‘नाधमानाः’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्म रोहितादित्यो देवता। १, १२-१५, ३९-४१ अनुष्टुभः, २३, ८, ४३ जगत्यः, १० आस्तारपंक्तिः, ११ बृहतीगर्भा, १६, २४ आर्षी गायत्री, २५ ककुम्मती आस्तार पंक्तिः, २६ पुरोद्व्यति जागता भुरिक् जगती, २७ विराड़ जगती, २९ बार्हतगर्भाऽनुष्टुप, ३० पञ्चपदा उष्णिग्गर्भाऽति जगती, ३४ आर्षी पंक्तिः, ३७ पञ्चपदा विराड़गर्भा जगती, ४४, ४५ जगत्यौ [ ४४ चतुष्पदा पुरः शाक्वरा भुरिक् ४५ अति जागतगर्भा ]। षट्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rohita, the Sun

    Meaning

    Mighty Sun, forming time by day and night, shines over one half of the earth and folds the other half away into the dark. Prayerful and devoted, we invoke the sun, pervading in the world, and thereby knowing and guiding us on the ways of the world.

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    Translation

    Being shaped by day and night, the mighty (sun), goes towards one (form) and the other (form) is thrust away. Imploring, we invoke the sun, who knows the path and dwells in the midspace.

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    Translation

    This great sun making day and night rises at one part and becomes reverted at another part. We praising its glory always admire the sun stationed in the sky and in motion.

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    Translation

    Just as the Sun shines in day time, in one part of the world, and keeps the night afar in the other, so does God create the universe. Keeping afar its dissolution. So we, prey to passion, with humble prayer for aid call on God, who is our Path-shower.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४३−(अभि) अभिमुखम् (अन्यत्) एकम्। प्रकाशद्रव्यम् (एति) गच्छति (परि) सर्वतः (अन्यत्) द्वितीयम्। अन्धकारद्रव्यम् (अस्यते) क्षिप्यते (अहोरात्राभ्याम्) अहोरात्रौ कर्तुम् (महिषः) महान्। सूर्यलोकः (कल्पमानः) समर्थः सन् वर्तते (सूर्यम्) सर्वप्रेरकं परमात्मानम् (वयम्) (रजसि) सर्वस्मिन् लोके (क्षियन्तम्) निवसन्तम् (गातुविदम्) मार्गज्ञातारम् (हवामहे) आह्वयामः। (नाधमानाः) प्रार्थयमानाः ॥

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