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अथर्ववेद के काण्ड - 13 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 45
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम् छन्दः - अतिजागतगर्भा जगती सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
    86

    पर्य॑स्य महि॒मा पृ॑थि॒वीं स॑मु॒द्रं ज्योति॑षा वि॒भ्राज॒न्परि॒ द्याम॒न्तरि॑क्षम्। सर्वं॑ सं॒पश्य॑न्त्सुवि॒दत्रो॒ यज॑त्र इ॒दं शृ॑णोतु॒ यद॒हं ब्रवी॑मि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परि॑ । अ॒स्य॒ । म॒हि॒मा । पृ॒थि॒वीम् । स॒मु॒द्रम् । ज्योति॑षा । वि॒ऽभ्राज॑न् । परि॑ । द्याम् । अ॒न्तर‍ि॑क्षम् । सर्व॑म् । स॒म्ऽपश्य॑न् । सु॒ऽवि॒दत्र॑: । यज॑त्र: । इ॒दम् । शृ॒णो॒तु॒ । यत् । अ॒हम् । ब्रवी॑मि ॥२.४५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पर्यस्य महिमा पृथिवीं समुद्रं ज्योतिषा विभ्राजन्परि द्यामन्तरिक्षम्। सर्वं संपश्यन्त्सुविदत्रो यजत्र इदं शृणोतु यदहं ब्रवीमि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परि । अस्य । महिमा । पृथिवीम् । समुद्रम् । ज्योतिषा । विऽभ्राजन् । परि । द्याम् । अन्तर‍िक्षम् । सर्वम् । सम्ऽपश्यन् । सुऽविदत्र: । यजत्र: । इदम् । शृणोतु । यत् । अहम् । ब्रवीमि ॥२.४५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 2; मन्त्र » 45
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।

    पदार्थ

    (अस्य) इस [परमेश्वर] की (महिमा) महिमा (पृथिवीम्) पृथिवी और (समुद्रम्) [पृथिवी के] समुद्र से (परि) आगे है, (ज्योतिषा) ज्योति से (विभ्राजन्) विविध प्रकार चमकती हुई [वह महिमा] (द्याम्) सूर्य और (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष से (परि) आगे है। (सर्वम्) सबको (संपश्यन्) निहारता हुआ, (सुविदत्रः) बड़ा लाभ पहुँचानेवाला, (यजत्रः) सर्वपूजनीय [परमेश्वर] (इदम्) इस [वचन] को (शृणोतु) सुने, (यत्) जो (अहम्) मैं (ब्रवीमि) कहता हूँ ॥४५॥

    भावार्थ

    जिस परमात्मा की बड़ाई पृथिवी, समुद्र, सूर्य और अन्तरिक्ष आदि सीमा से अधिक है, मनुष्य उसी जगदीश्वर के नियमों में चलकर आनन्द पावें ॥४५॥

    टिप्पणी

    ४५−(परि) आधिक्ये (अस्य) परमेश्वरस्य (महिमा) महत्त्वम् (पृथिवीम्) (समुद्रम्) पार्थिवजलौघम् (ज्योतिषा) तेजसा (विभ्राजन्) प्रकाशमानः (परि) (द्याम्) सूर्यलोकम् (अन्तरिक्षम्) (सर्वम्) अखिलम्। अन्यत् पूर्ववत्-म० ४४ ॥

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    विषय

    पृथिवीं, समुद्र, द्या, अन्तरिक्षं [परिबभूव]

    पदार्थ

    १. (अस्य) = उस प्रभु की (महिमा) = महिमा (पृथिवीम् समुद्र परि) [बभूव] = पृथिवी और समुद्र को व्याप्त कर रही है। (ज्योतिषः विभ्राजन्) = ज्योति से दीप्त होते हुए वे प्रभु (द्याम् अन्तरिक्षम्) = द्युलोक व अन्तरिक्षलोक को परि[बभूव]-व्याप्त किये हुए हैं। २. (सर्वं संपश्यन्) = सबको सम्यक् देखते हुए वे प्रभु (सुविदाः) = सब उत्तम वस्तुओं के प्रापण के द्वारा हमारा त्राण करनेवाले हैं। (यज्ञत्र:) = वे प्रभु पूजनीय हैं, संगतिकरण-योग्य हैं और समर्पणीय हैं। (यत् अहं ब्रवीमि) = जो भी मैं प्रार्थना के रूप में प्रभु से कहता हूँ, प्रभु (इदं शृणोतु) = उसको सुनें। मेरी प्रार्थना न सुनने योग्य न हो। मैं अपने को प्रार्थना सुने जाने का पात्र बनाऊँ।

    भावार्थ

    प्रभु की महिमा 'पृथिवी, समुद्र, झुलोक व अन्तरिक्षलोक' में सर्वत्र विद्यमान है। वे प्रभु हम सबका ध्यान करते हैं। मैं इस योग्य बनें कि वे 'सुविदत्र, यज्ञत्र' प्रभु मेरी प्रार्थना को सुनें।

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    भाषार्थ

    (अस्य) इस की (महिमा) महिमा (पृथिवीं, समुद्रं, परि) पृथिवी और समुद्र के चारों ओर फैली हुई है, (ज्योतिषा विभ्राजन) ज्योति द्वारा प्रकाशमान परमेश्वर (द्याम्, अन्तरिक्षम्, परि) द्युलोक और अन्तरिक्ष के चारों ओर व्याप्त है। (सर्वं सं पश्यन् सुविदत्रः यजत्रः इदं शृणोतु यद् अहं ब्रवीमि) सब को सम्यक्-देखता हुआ, सम्यक्-ज्ञानी, संसार-यज्ञ का रचयिता परमेश्वर इस वचन को सुनें जिसे मैं कहता हूं।

    टिप्पणी

    [शृणोतु= प्रार्थी के कथन को परमेश्वर तो सुन सकता है, सूर्य पिण्ड नहीं, देखो मन्त्र (४४)]।

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    विषय

    रोहित, परमेश्वर और ज्ञानी।

    भावार्थ

    (अस्य) इस परमात्मा की (महिमा) महिमा, बड़ा भारी सामर्थ्य (पृथिवीम् परि समुद्रम् परि) पृथिवी और समुद्र दोनों पर व्याप्त है। वह (ज्योतिषा) ज्योति, परम तेज से (द्याम् परि, अन्तरिक्षम् परि) द्यौ और अन्तरिक्ष दोनों में व्यापक है। (सर्वम् सम्पश्यन्०) इत्यादि पूर्ववत्।

    टिप्पणी

    (द्वि० तृ०) ‘अहोरात्राभ्यां सह सवसाना उषानियुः प्रतराद् अनिष्टम्’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्म रोहितादित्यो देवता। १, १२-१५, ३९-४१ अनुष्टुभः, २३, ८, ४३ जगत्यः, १० आस्तारपंक्तिः, ११ बृहतीगर्भा, १६, २४ आर्षी गायत्री, २५ ककुम्मती आस्तार पंक्तिः, २६ पुरोद्व्यति जागता भुरिक् जगती, २७ विराड़ जगती, २९ बार्हतगर्भाऽनुष्टुप, ३० पञ्चपदा उष्णिग्गर्भाऽति जगती, ३४ आर्षी पंक्तिः, ३७ पञ्चपदा विराड़गर्भा जगती, ४४, ४५ जगत्यौ [ ४४ चतुष्पदा पुरः शाक्वरा भुरिक् ४५ अति जागतगर्भा ]। षट्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rohita, the Sun

    Meaning

    Blazing with splendour as the Sun is, the Lord’s glory shines over earth and the seas, over heaven and the firmament. Watching every thing wholly and favourably, kindly knowing, all adorable, may the Lord, I pray, listen to what I say in prayer and adoraton.

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    Translation

    The grandeur of Him goes beyond the earth, beyond the ocean, and blazing brilliant with light it goes beyond the midspace and the sky. May he, the benevolent, worshipful, beholding all, listen to what I say.

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    Translation

    The sun brilliant with light pervades the heavenly region and middle-void. The grandeur of this sun pervades the earth and ocean. Let......like the previous verse.

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    Translation

    Vast spread is the glory of God, Glowing with His Majesty, He hath compassed ocean, earth, heaven and air’s mid-region. May He, All-seeing, Wise, Charitable and Adorable, listen to the word I utter.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४५−(परि) आधिक्ये (अस्य) परमेश्वरस्य (महिमा) महत्त्वम् (पृथिवीम्) (समुद्रम्) पार्थिवजलौघम् (ज्योतिषा) तेजसा (विभ्राजन्) प्रकाशमानः (परि) (द्याम्) सूर्यलोकम् (अन्तरिक्षम्) (सर्वम्) अखिलम्। अन्यत् पूर्ववत्-म० ४४ ॥

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