अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 46
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
77
अबो॑ध्य॒ग्निः स॒मिधा॒ जना॑नां॒ प्रति॑ धे॒नुमि॑वाय॒तीमु॒षास॑म्। य॒ह्वा इ॑व॒ प्र व॒यामु॒ज्जिहा॑नाः॒ प्र भा॒नवः॑ सिस्रते॒ नाक॒मच्छ॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअबो॑धि । अ॒ग्नि: । स॒म्ऽइधा॑ । जना॑नाम् । प्रति॑ । धे॒नुम्ऽइ॑व । आ॒ऽय॒तीम् । उ॒षस॑म् । य॒ह्वा:ऽइ॑व । प्र । व॒याम् । उ॒त्ऽजिहा॑ना: । प्र । भा॒नव॑: । सि॒स्र॒ते॒ । नाक॑म् । अच्छ॑ ॥२.४६॥
स्वर रहित मन्त्र
अबोध्यग्निः समिधा जनानां प्रति धेनुमिवायतीमुषासम्। यह्वा इव प्र वयामुज्जिहानाः प्र भानवः सिस्रते नाकमच्छ ॥
स्वर रहित पद पाठअबोधि । अग्नि: । सम्ऽइधा । जनानाम् । प्रति । धेनुम्ऽइव । आऽयतीम् । उषसम् । यह्वा:ऽइव । प्र । वयाम् । उत्ऽजिहाना: । प्र । भानव: । सिस्रते । नाकम् । अच्छ ॥२.४६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पदार्थ
(अग्निः) अग्नि [जैसे] (जनानाम्) प्राणियों में (समिधा) प्रज्वलित करने के साधन [काष्ठ, घृत, अन्न आदि] से (अबोधि) जगाया गया है, [अथवा] (इव) जैसे (उषसं प्रति) उषा समय [प्रातः सायं सन्धिवेला] में (आयतीम्) आती हुई (धेनुम्) दुधैल गौ को [लोग प्राप्त होते हैं]। [अथवा] (इव) जैसे (उज्जिहानाः) ऊँचे चलते हुए (यह्वाः) बड़े पुरुष (वयाम्) उत्तम नीति को (प्र) अच्छे प्रकार [प्राप्त होते हैं], [वैसे ही] (भानवः) प्रकाशमान लोग (नाकम्) सुखस्वरूप [परमात्मा] को (अच्छ) अच्छे प्रकार (प्र सिस्रते) प्राप्त होते रहते हैं ॥४६॥
भावार्थ
जैसे प्राणियों को भोज्य अन्न आदि से यथाविधि उत्तेजित अग्नि प्रिय होता है, जैसे गौ दूध के लिये प्रिय होती है और जैसे विचारशीलों को उचित नीति अर्थात् वेदवाणी प्रिय होती है, वैसे ही सब मनुष्य समर्थ होकर सुखस्वरूप परमात्मा को पाकर आनन्दित होवें ॥४६॥यह मन्त्र ऋग्वेद में है−५।१।१, यजुर्वेद में १५।२४ और सामवेद में−पू० १।८।१। और उ० ८।३।१३ ॥
टिप्पणी
४६−(अबोधि) बुध्यतेस्म (अग्निः) शारीरिकाग्निः (समिधा) काष्ठान्नघृतादिप्रदीपनसाधनेन (जनानाम्) प्राणिनां मध्ये (प्रति) (धेनुम्) दीग्ध्रीं गाम् (इव) यथा (आयतीम्) आगच्छन्तीम् (उषसम्) सांहितिको दीर्घः। प्रातः सायं सन्धिवेलाम् (यह्वाः) शेवायह्वजिह्वा०। उ० १।१५४। यज देवपूजादिषु-वन्, जस्य हः। यह्वो महन्नाम-निघ० ३।३। महान्तः पुरुषाः (प्र) प्रकर्षेण (वयाम्) वय गतौ-अच्, टाप्। गतिम्। नीतिम् (उज्जिहानाः) ओहाङ् गतौ-शानच्। ऊर्ध्वं गच्छन्तः (प्र) (भानवः) प्रकाशमानाः प्रभवः पुरुषाः (सिस्रते) सृ गतौ-लट्, शपः श्लुः, आत्मनेपदं छान्दसम्। प्राप्नुवन्ति (नाकम्) सुखस्वरूपं परमात्मानम् (अच्छ) आभिमुख्येन ॥
विषय
आश्रम चतुष्टय
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार जब प्रभु हमारी प्रार्थना को सुनते हैं तब ब्रह्मचर्याश्रम में (समिधा) = 'पृथिवी, अन्तरिक्ष व धुलोक' के पदार्थों के ज्ञान द्वारा [इन्ध् दीप्ती] (अग्निः अबोधि) = ज्ञानाग्नि दीस की जाती है। ब्रह्मचारी आचार्य द्वारा ज्ञानसमिद्ध किया जाता है। ये ब्रह्मचारी स्नातक बनकर [स स्नात: बभ्रः०] जब गृहस्थ बनता है तब प्रति आयती उषासम-प्रत्येक आनेवाले ऊषाकाल में (जनानां धेनुं इव) = लोगों के प्रति गौ की भाँति होता है। गौ जैसे-दूध देकर लोगों का पोषण करती है, यह भी सब आश्रमियों का पोषण करनेवाला होता है। २. जैसे (यह्वा:) = तनिक बड़े होकर (पक्षी वयाम्) = शाखा को (प्र उज्जिहाना:) = प्रकर्षेन छोड़नेवाले होते हैं-घोंसले से निकलकर जैसे वे आकाश में उड़ते हैं, उसीप्रकार ये भी गृहस्थ की समाप्ति पर घर को छोड़कर वनस्थ होने की कामनावाले होते है। अब वानप्रस्थ की साधना को पूर्ण करके (भानवः) = सूर्यसम ज्ञान की ज्योतिवाले वे संन्यस्त पुरुष सबके लिए प्रभु का सन्देश सुनाते हुए (नाकं अच्छ प्रसिस्त्रते) = मोक्षलोक की ओर आगे बढ़ते हैं।
भावार्थ
ब्रह्मचारी ज्ञानदीस बनें, गृहस्थ सबका पालन करनेवाला हो। गृहस्थ को पूर्ण करके मनुष्य वनस्थ बनें। साधना के द्वारा ज्ञानदीप्त बनकर प्रभु का सन्देश सबको सुनाता हुआ मोक्ष की ओर प्रगतिवाला हो।
भाषार्थ
(धेनुम् इव) दुधार गौ की तरह (आयतीम्, उषासम्, प्रति) आती हुई उषा को लक्ष्य कर के (जनानाम्) जनों की (समिधा) समिधायों द्वारा (अग्निः) अग्नि (अबोधि) प्रबुद्ध हुई है। (भानवः) रश्मियां (नाकम्, अच्छ) नाक की ओर (सिस्रते) प्रसूत हुई हैं, फैली हैं, (इव) जैसे कि (यह्वाः) बड़े वृक्ष (वयाम्) शाखाओं को (प्र उज्जिहानाः) दूर तक ऊपर की ओर फैंकते हैं।
टिप्पणी
[उषा के आगमन काल में जैसे अग्निहोत्र में अग्नि प्रबुद्ध होती है, वैसे उपासना में परमेश्वराग्नि के प्रबोधक का विधान मन्त्र में हुआ है। उपासना में समिधा के लिए कहा है "त्रिः सप्त समिधः कृताः" (यजु० ३१।१५)। त्रिः सप्त समिधाएँ= ५ ज्ञानेन्द्रियां, मन और अहंकार; ५ कर्मेन्द्रियां, मन और अहंकार; ५ तन्मात्राएँ, मन और अहंकार। ये तीन सप्तक हैं, जो कि उपासना में समिधाएं हैं। उपासना में इन तीन सप्तकों को परमेश्वरार्पित कर, परमेश्वर में चित्त गाड़ कर, परमेश्वराग्नि को उद्बुद्ध करना चाहिए। धेनुम् = दुधार गौ जब आती है तो उसे चारा भेंट किया जाता है, इसी प्रकार उषा के समय अग्निहोत्र की अग्नि को, तथा परमेश्वराग्नि को, यथोचित समिधाएं भेंट की जाती हैं। समर्पण या भेंट तो करनी होती हैं,-ज्ञानेन्द्रियां कर्मेंद्रियां और ५ तन्मात्राएँ परन्तु मन और अहंकार साथ न दें, तो इन तीन सप्तकों का समर्पण नहीं हो सकता। इसलिये तीन सप्तकों के साथ मन और अहंकार की गणना की है। समर्पण का वर्णन निम्नलिखित मन्त्र द्वारा अधिक स्पष्ट होता हैं। यथा "यस्मै हस्ताभ्यां पादाभ्यां वाचा श्रोत्रेण चक्षुषा। यस्मै देवाः सदा बलिं प्रयच्छन्ति विमितेऽमितं स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः ॥" (अथर्व० १०।७।३९)। इस मन्त्र में “बलिं हरन्ति" द्वारा समर्पण का वर्णन हुआ है। कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों की निज शक्तियों का, स्कम्भ परमेश्वर के प्रति समर्पण का कथन हुआ है। हस्त-पाद-वाक्, कर्मेन्द्रियों के सूचक है, और श्रोत्र- चक्षुः ज्ञानेन्द्रियों के सूचक हैं]।
विषय
रोहित, परमेश्वर और ज्ञानी।
भावार्थ
(जनानाम्) मनुष्यों की (समिधा) काष्ठ से प्रज्वलित अग्निहोत्र की अग्नि प्रातः काल के अवसर (अबोधि) जागती है, (धेनुम् इव) और जिस प्रकार वच्छा दूध पिलाने वाली गाय के प्रति चला जाता है उसी प्रकार वह अग्नि प्रबुद्ध होकर मानो (आयतीम्) प्राप्त होती हुई उषा के पास पहुंचती है। (यह्वाः) जिस प्रकार शिशु पक्षी (उज्जिहानाः) उड़ते उड़ते (वयाम् प्र) शाखा पर चले जाते हैं उसी प्रकार सूर्य के (भानवः) किरण (अच्छ) भली प्रकार (नाकम् प्र सिस्रते) नाक आकाश तक पहुंचते हैं। अध्यात्म में—(जनानां समिधा अग्निः अबोधि) जब विद्वान् जनों का अग्नि अग्निरूप आत्मा उत्तम सम्यक् ज्ञान से प्रबुद्ध होता है। तब (धेनुम् प्रति इव) जिस प्रकार बछड़ा गाय के प्रति जाता है उसी प्रकार उनका आत्मा (आयतीम् उषासम्प्रति) प्राप्त होती हुई विशोका ज्योतिष्मती प्रज्ञा की तरफ़ बढ़ता है। (यह्वा इत्र वयाम्) जिस प्रकार पक्षीगण शाखा पर जाते हैं उसी प्रकार (भानवः) कान्तिमान, मुक्त योगी। (नाकम् प्रसिस्रते) सुखमय परमात्मा की ओर गति करते और उसीका अवलम्ब लेते हैं।
टिप्पणी
(च०) ‘ससृजे’ इति पैप्प० सं०। ‘सस्रते’ इति साम०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्म रोहितादित्यो देवता। १, १२-१५, ३९-४१ अनुष्टुभः, २३, ८, ४३ जगत्यः, १० आस्तारपंक्तिः, ११ बृहतीगर्भा, १६, २४ आर्षी गायत्री, २५ ककुम्मती आस्तार पंक्तिः, २६ पुरोद्व्यति जागता भुरिक् जगती, २७ विराड़ जगती, २९ बार्हतगर्भाऽनुष्टुप, ३० पञ्चपदा उष्णिग्गर्भाऽति जगती, ३४ आर्षी पंक्तिः, ३७ पञ्चपदा विराड़गर्भा जगती, ४४, ४५ जगत्यौ [ ४४ चतुष्पदा पुरः शाक्वरा भुरिक् ४५ अति जागतगर्भा ]। षट्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rohita, the Sun
Meaning
As the abundant cow is awake at the rise of dawn, so the fire is lit and rises with fuel and ghrta offered by yajnic people. As trees shoot up their branches, leaves and tendrils, so the rays of the Sun rise high to reach the heaven of bliss and beauty. (So do enlightened people rise to the light of heaven and the freedom of divine bliss with prayer.)
Translation
With the fire-wood of people, the fire divine has awakened, just as a milch-cow awakens at the coming of the dawn. Like young plants throwing their branches upwards, the beams of rays go forth towards the heaven.
Translation
The fire having in purview the arrival of dawn like cow is wakened by the fuels of men performing Yajna. Like the plants shooting up their branches the flames are mounting to the vault of heaven.
Translation
When the fiery soul of learned persons glitters with knowledge, then it advances towards refined intellect, just as a calf goes to the cow. Just as birds go to their nest on a tree, so do the emancipated yogis march on to the Joyful God and seek His refuge.
Footnote
See Rig, 5-2-1, Yajur, 15-24.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४६−(अबोधि) बुध्यतेस्म (अग्निः) शारीरिकाग्निः (समिधा) काष्ठान्नघृतादिप्रदीपनसाधनेन (जनानाम्) प्राणिनां मध्ये (प्रति) (धेनुम्) दीग्ध्रीं गाम् (इव) यथा (आयतीम्) आगच्छन्तीम् (उषसम्) सांहितिको दीर्घः। प्रातः सायं सन्धिवेलाम् (यह्वाः) शेवायह्वजिह्वा०। उ० १।१५४। यज देवपूजादिषु-वन्, जस्य हः। यह्वो महन्नाम-निघ० ३।३। महान्तः पुरुषाः (प्र) प्रकर्षेण (वयाम्) वय गतौ-अच्, टाप्। गतिम्। नीतिम् (उज्जिहानाः) ओहाङ् गतौ-शानच्। ऊर्ध्वं गच्छन्तः (प्र) (भानवः) प्रकाशमानाः प्रभवः पुरुषाः (सिस्रते) सृ गतौ-लट्, शपः श्लुः, आत्मनेपदं छान्दसम्। प्राप्नुवन्ति (नाकम्) सुखस्वरूपं परमात्मानम् (अच्छ) आभिमुख्येन ॥
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