अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 17
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - चतुरवसाना सप्तपदा कृतिः
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
62
येना॑दि॒त्यान्ह॒रितः॑ सं॒वह॑न्ति॒ येन॑ य॒ज्ञेन॑ ब॒हवो॒ यन्ति॑ प्रजा॒नन्तः॑। यदेकं॒ ज्योति॑र्बहु॒धा वि॒भाति॑। तस्य॑ दे॒वस्य॑ क्रु॒द्धस्यै॒तदागो॒ य ए॒वं वि॒द्वांसं॑ ब्राह्म॒णं जि॒नाति॑। उद्वे॑पय रोहित॒ प्र क्षि॑णीहि ब्रह्म॒ज्यस्य॒ प्रति॑ मुञ्च॒ पाशा॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठयेन॑ । आ॒दि॒त्यान् । ह॒रित॑: । स॒म्ऽवह॑न्ति । येन॑ । य॒ज्ञेन॑ । ब॒हव॑: । यन्ति॑ । प्र॒ऽजा॒नन्त॑: । यत् । एक॑म् । ज्योति॑: । ब॒हु॒ऽधा । वि॒ऽभाति॑ । तस्य॑ । दे॒वस्य॑ ॥ क्रु॒ध्दस्य॑ । ए॒तत् । आग॑: । य: । ए॒वम् । वि॒द्वांस॑म् । ब्रा॒ह्म॒णम् । जि॒नाति॑ । उत् । वे॒प॒य॒ । रो॒हि॒त॒ । प्र । क्षि॒णी॒हि॒ । ब्र॒ह्म॒ऽज्यस्य॑ । प्रति॑ । मु॒ञ्च॒ । पाशा॑न् ॥३.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
येनादित्यान्हरितः संवहन्ति येन यज्ञेन बहवो यन्ति प्रजानन्तः। यदेकं ज्योतिर्बहुधा विभाति। तस्य देवस्य क्रुद्धस्यैतदागो य एवं विद्वांसं ब्राह्मणं जिनाति। उद्वेपय रोहित प्र क्षिणीहि ब्रह्मज्यस्य प्रति मुञ्च पाशान् ॥
स्वर रहित पद पाठयेन । आदित्यान् । हरित: । सम्ऽवहन्ति । येन । यज्ञेन । बहव: । यन्ति । प्रऽजानन्त: । यत् । एकम् । ज्योति: । बहुऽधा । विऽभाति । तस्य । देवस्य ॥ क्रुध्दस्य । एतत् । आग: । य: । एवम् । विद्वांसम् । ब्राह्मणम् । जिनाति । उत् । वेपय । रोहित । प्र । क्षिणीहि । ब्रह्मऽज्यस्य । प्रति । मुञ्च । पाशान् ॥३.१७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्मा और जीवात्मा का उपदेश।
पदार्थ
(येन) जिस [परमेश्वर] के साथ (हरितः) दिशाएँ (आदित्यान्) आदित्य [अखण्ड] ब्रह्मचारियों को (संवहन्ति) मिलकर ले चलती हैं, (येन) जिस [परमेश्वर] के साथ (यज्ञेन) पूजनीय कर्म से (बहवः) बहुत से (प्रजानन्तः) भविष्यज्ञानी लोग (यन्ति) चलते हैं। (यत्) जो (एकम्) एक (ज्योतिः) ज्योतिःस्वरूप परमात्मा (बहुधा) बहु प्रकार से [प्रत्येक वस्तु में] (विभाति) चमकता रहता है। (तस्य) उस (क्रुद्धस्य) क्रुद्ध (देवस्य) प्रकाशमान [ईश्वर] के लिये.... [म० १] ॥१७॥
भावार्थ
सब मनुष्य उस अद्वितीय प्रकाशस्वरूप परमात्मा को प्रत्येक स्थान में पाकर भविष्यवेत्ता होकर सामर्थ्य बढ़ावें ॥१७॥
टिप्पणी
१७−(येन) परमेश्वरेण सह (आदित्यान्) अखण्डब्रह्मचारिणः पुरुषान् (हरितः) दिशः-निघ० १।६। (संवहन्ति) संगत्य प्रापयन्ति (येन) (यज्ञेन) पूजनीयेन कर्मणा (बहवः) (यन्ति) गच्छन्ति (प्रजानन्तः) भविष्यज्ञानिनः (यत्) (एकम्) अद्वितीयम् (ज्योतिः) तेजःस्वरूपं ब्रह्म (बहुधा) अनेकप्रकारेण (विभाति) विविधं प्रकाशते ॥
विषय
एक ज्योति:
पदार्थ
१. (येन) = जिस प्रभु की शक्ति से (हरित:) = जल व रोगों का हरण करनेवाली सूर्य-रश्मियाँ (आदित्यान् संवहन्ति) = रश्मिभेद से भिन्न-भिन्न नामों से कहे जानेवाले इन सूर्यों का वहन करती हैं और (येन यज्ञेन) = जिस उपास्य व संगतिकरण योग्य प्रभु से-प्रभु की उपासना से (बहवः) = बहुत से (प्रजानन्त:) = ज्ञानी पुरुष (यन्ति) = मोक्ष को प्राप्त होते है। २. (यत्) = जो (एकम्) = अद्वितीय (ज्योति:) = प्रकाश (बहुधा) = नाना प्रकार से (विभाति) = दीप्त होता है। वस्तुत: वह प्रभु ही सूर्य, चन्द्र में आभारूप से और अग्नि में तेज के रूप से चमकता है। ज्ञानियों का ज्ञान भी वे प्रभु है, बुद्धिमानों की बुद्धि भी वे ही हैं। इसप्रकार से ब्रह्म को देखनेवाले का हनन वस्तुतः ब्रह्म के प्रति अपराध ही है। शेष पूर्ववत्।
भावार्थ
प्रभु की शक्ति से ही किरणें सूर्य का वहन करती हैं। प्रभु के सम्पर्क से ही ज्ञानी मोक्ष को प्राप्त होते हैं। प्रभुरूप ज्योति ही भिन्न-भिन्न रूपों में धोतित होती है। इस ब्रह्म ज्योति के द्रष्टा का हनन ब्रह्म के प्रति महान् पाप है।
भाषार्थ
(येन) जिस परमेश्वर की सहायता द्वारा (हरितः) अन्धकार का हरण करने वाली आदित्य-रश्मियां (सं वहन्ति) परस्पर मिलकर आदित्य का वहन करती हैं, (येन यज्ञेन) जिस यजनीय परमेश्वर की सहायता द्वारा (प्रजानन्तः) प्रज्ञा को प्राप्त हुए जन (यन्ति) जीवनयापन करते हैं। (यद) जो (एकं ज्योतिः) एक ज्योति (बहुधा) बहु प्रकार से (वि भाति) चमक रही है, अर्थात् जगत् के विविध रूपों में चमक रही है, (तस्य देवस्य.........पाशान्), पूर्ववत् (मन्त्र १)।
विषय
रोहित, आत्मा ज्ञानवान् राजा और परमात्मा का वर्णन।
भावार्थ
(येन) जिस के बल से प्रेरित होकर (हरितः) हरणशील वेगवती शक्तियां (आदित्यान्) सूर्यों को (सं वहन्ति) निरन्तर चला रही हैं, (येन यज्ञेन) जिस यज्ञरूप सब के उपास्य देव के संग से (बहवः) बहुत से मुक्त जीव (प्रजानन्तः) उत्कृष्ट ज्ञान से सम्पन्न होकर (यन्ति) मोक्षधाम को प्राप्त होते हैं। (यद्) जो (एकम्) एकमात्र (ज्योतिः) ज्योति होकर स्वयं (बहुधा) नानारूपों से (वि भाति) प्रकाशित होता है (तस्य०) इत्यादि पूर्ववत्।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्मम्। रोहित आदित्य देवता। १ चतुरवसानाष्टपदा आकृतिः, २-४ त्र्यवसाना षट्पदा [ २, ३ अष्टिः, २ भुरिक् ४ अति शाक्वरगर्भा धृतिः ], ५-७ चतुरवसाना सप्तपदा [ ५, ६ शाक्वरातिशाक्वरगर्भा प्रकृतिः ७ अनुष्टुप् गर्भाति धृतिः ], ८ त्र्यवसाना षट्पदा अत्यष्ठिः, ६-१९ चतुरवसाना [ ९-१२, १५, १७ सप्तपदा भुरिग् अतिधृतिः १५ निचृत्, १७ कृति:, १३, १४, १६, १९ अष्टपदा, १३, १४ विकृतिः, १६, १८, १९ आकृतिः, १९ भुरिक् ], २०, २२ त्र्यवसाना अष्टपदा अत्यष्टिः, २१, २३-२५ चतुरवसाना अष्टपदा [ २४ सप्तपदाकृतिः, २१ आकृतिः, २३, २५ विकृतिः ]। षड्विंशत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
To the Sun, against Evil Doer
Meaning
That Supreme Brahma by whose prime potential the rays of light irradiate the sun over the zodiacs, by whose adorable grace learned sages live and attain to Freedom, the One Light that shines in many forms, to that Lord that person is an offensive sinner who violates a Brahmana, the man who knows Brahma in truth.
Translation
By whom the golden coursers (the rays) bear along the Adityas (the suns of twelve months); by which worship many a realized ones go; who, being the sole light, shines out in various forms - to that wrathful (enraged) Lord it is offending that some one scathes such a learned intellectual person. O ascending one, make him tremble; destroy him; pur your snares upon the harasser of intellectual persons.
Translation
He who..... by whose power the rays of the sun bear twelve months by whose support many persons knowing the advantage proceed on with the performance of Yajna, and under whose control one light shines various places in various ways.
Translation
Urged by God, the powerful forces of nature are setting the suns in motion. Through His company, various souls, equipping themselves with knowledge attain to salvation. God, the sole light, manifests Himself in various ways. This God is wroth offended by the sinner who vexes the Brahmin who hath gained this knowledge. Terrify him, O King, destroy him, entangle in thy snares the Brahman’s tyrant!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१७−(येन) परमेश्वरेण सह (आदित्यान्) अखण्डब्रह्मचारिणः पुरुषान् (हरितः) दिशः-निघ० १।६। (संवहन्ति) संगत्य प्रापयन्ति (येन) (यज्ञेन) पूजनीयेन कर्मणा (बहवः) (यन्ति) गच्छन्ति (प्रजानन्तः) भविष्यज्ञानिनः (यत्) (एकम्) अद्वितीयम् (ज्योतिः) तेजःस्वरूपं ब्रह्म (बहुधा) अनेकप्रकारेण (विभाति) विविधं प्रकाशते ॥
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