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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 20
    ऋषिः - आत्मा देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
    230

    भग॑स्त्वे॒तोन॑यतु हस्त॒गृह्या॒श्विना॑ त्वा॒ प्र व॑हतां॒ रथे॑न। गृ॒हान्ग॑च्छ गृ॒हप॑त्नी॒यथासो॑ व॒शिनी॒ त्वं वि॒दथ॒मा व॑दासि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भग॑: । त्वा॒ । इ॒त: । न॒य॒तु॒ । ह॒स्त॒ऽगृह्य॑ । अ॒श्विना॑ । त्वा॒ । प्र । व॒ह॒ता॒म् । रथे॑न । गृ॒हान् । ग॒च्छ॒ । गृ॒हऽप॑त्नी । यथा॑ । अस॑: । व॒शिनी॑ । त्वम् । वि॒दथ॑म् । आ । व॒दा॒सि॒ ॥१.२०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भगस्त्वेतोनयतु हस्तगृह्याश्विना त्वा प्र वहतां रथेन। गृहान्गच्छ गृहपत्नीयथासो वशिनी त्वं विदथमा वदासि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भग: । त्वा । इत: । नयतु । हस्तऽगृह्य । अश्विना । त्वा । प्र । वहताम् । रथेन । गृहान् । गच्छ । गृहऽपत्नी । यथा । अस: । वशिनी । त्वम् । विदथम् । आ । वदासि ॥१.२०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 20
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    विवाह संस्कार का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे वधू !] (भगः)ऐश्वर्यवान् वर (त्वा) तुझे (इतः) यहाँ से (हस्तगृह्य) हाथ पकड़ कर (नयतु) लेचले, (अश्विना) विद्या को प्राप्त दोनों [स्त्री-पुरुष समूह] (त्वा) तुझे (रथेन)रथ द्वारा (प्र वहताम्) अच्छे प्रकार ले चलें। (गृहान्) घरों में (गच्छ) पहुँच, (यथा) जिससे (गृहपत्नी) गृहपत्नी [घर की स्वामिनी] (असः) तू होवे और (वशिनी) वशमें करनेवाली (त्वम्) तू (विदथम्) सभागृह में (आ वदासि) बातचीत करे ॥२०॥

    भावार्थ

    प्रतापी वर गुणवती वधूको आदर से ले चले, विद्वान् स्त्री-पुरुष उसे रथ पर चढ़ावें। सभ्या वधू पतिगृहमें पहुँच कर अपनी विद्वत्ता और शुभ गुणों के कारण प्रिय वचन और बरताव से सबकोप्रसन्न करे ॥२०॥मन्त्र २०, २१ भेद से ऋग्वेद में हैं−१०।८५।२६, २७ ॥

    टिप्पणी

    २०−(भगः)ऐश्वर्यवान् वरः (त्वा) वधूम् (इतः) अस्मात् स्थानात्। पितृगृहात् (नयतु) (हस्तगृह्य) अ० ५।१४।४। हस्तेन गृहीत्वा (अश्विना) प्राप्तविद्यौ स्त्री-पुरुषसमूहौ (त्वा) (प्र) प्रकर्षेण (वहताम्) नयताम् (रथेन) (गृहान्) पतिगृहान् (गच्छ)प्राप्नुहि (गृहपत्नी) गृहस्वामिनी (यथा) येन प्रकारेण (असः) भवेः (वशिनी) गृहगतानां वशं प्रापयित्री (त्वम्) (विदथम्) सभागृहम् (आ) आभिमुख्येन (वदासि)ब्रूयाः ॥

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    विषय

    पिता का कन्या को उपदेश

    पदार्थ

    १. पतिगृह को जाते समय पिता कन्या को अन्तिम उपदेश देता है कि (भग:) = ऐश्वर्य का. उपार्जन करनेवाला यह पति (हस्तगृह्य) = पाणिग्रहण करके-यथाविधि तेरे हाथ का ग्रहण करके (त्वा इत: नयतु) = तुझे यहाँ-पितृगृह से ले-जानेवाला हो। इस समय (अश्विना) = ये तेरे धर्मपिता व धर्ममाता [श्वसुर एवं श्व] (त्वा) = तुझे (रथेन) = रथ से (प्रवहताम्) = घर की ओर ले-जानेवाले हो। २. तू (गृहान् गच्छ) = पतिगृह को जा। (यथा) = जिससे तू गृहपत्नी (असः) = पतिगृह में गृहपत्नी बन पाए। तूने वहाँ घर के सारे उत्तरदायित्व को अपने कन्धे पर लेना है, (अत: वशिनी) = अपनी सब इन्द्रियों को वश में करनेवाली (त्वम्) = तू (विदथम् आवदासि) = ज्ञानपूर्वक, समझदारी से सब कार्य करनेवाली हो। तेरी प्रत्येक बात का घर के निर्माण पर प्रभाव होना है, अत: अपना नियन्त्रण करती हुई. समझदारी से सब कार्य करती हुई सच्चे अर्थों में गृहपत्नी बनना।

    भावार्थ

    गृहपत्नी के लिए आवश्यक है कि [क] सब इन्द्रियों को वश में करके चले तथा [ख] सब बातें समझदारी से करे।

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    भाषार्थ

    (भगः) ६ भगों से सम्पन्न पति (त्वा) हे पुत्रि ! तुझे (हस्तगृह्य) तेरा हाथ पकड़ कर (नयतु) ले चले, (अश्विना) वर के माता-पिता (त्वा) तुझे (रथेन) रथ द्वारा (प्रवहताम्) सुखपूर्वक घर पहुंचाए। हे पुत्रि ! (गृहान्) पति के गृहवासियों की ओर (गच्छ) तू जा, (यथा) ताकि (पत्नी) पतिगृह की स्वामिनी (असः) तू हो सके, (वशिनी) पुत्रों और भृत्य आदि को वश में रखने वाली हो कर (त्वम्) तू (विदथम्) उन्हें कर्त्तव्यज्ञान का (आ वदासि) निरन्तर कथन किया कर।

    टिप्पणी

    [भगः=मन्त्र १८; सुभगा पद की व्याख्या में। प्र वहताम् = प्र+वह (प्रापणे)। गृहान् = गृहाः दाराः, तथा अन्य गृहवासी] [व्याख्या - पिता पुत्री को कहता है कि हे पुत्रि ! तेरा यह पति भगस्वरूप या भगों वाला है (अर्श आद्यच्) यह प्राकृतिक और आध्यात्मिक सम्पत्तियों से सम्पन्न है, धर्मात्मा तथा यशस्वी है, ज्ञानी तथा वैराग्यवान् है। इस कथन द्वारा पुत्री को पिता पति के सद्गुणों का परिज्ञान देता है, ताकि पति पर कन्या भरोसा, विश्वास, तथा श्रद्धा कर सके। पत्नी को पति, पितृगृह से, हाथ पकड़ कर रथ तक ले चले, तत्पश्चात् पति के माता-पिता की सुरक्षा में पत्नी, पतिगृह को रथ द्वारा जाए। कन्या का पिता पुत्री को यह भी उपदेश देता है कि तू पति के घर जा कर अपने सद्गुणों के कारण पतिगृह की स्वामिनी बन। पत्नीगृह की तथा गृहवासियों की सच्ची स्वामिनी तभी बन सकती है जब कि वह अपने सेवाभाव तथा कर्त्तव्यभावना से सब गृहवासियों के मनों को मोह ले। गृहपत्नी का एक और भी अभिप्राय है। वह यह है कि विवाह के समय ही पत्नी, पतिगृह की स्वामिनी अर्थात् उत्तराधिकारिणी उद्घोषित कर दी गई है। मानो यह पत्नी का कानूनन हक उद्घोषित किया गया है।]

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    विषय

    गृहाश्रम प्रवेश और विवाह प्रकरण।

    भावार्थ

    हे कन्ये ! पुत्रि ! (त्वा) तुझको (भगः) ऐश्वर्यवान् सौभायशील वर (इतः) इस पितृगृह से (हस्तगृह्य) हाथ से पकड़ कर, पाणिग्रहण करके (नयतु) ले जावे। (अश्विना) अश्व पर आरूढ़ वर और उसका भाई दोनों (त्वा) तुझको (रथेन) रथ पर बैठकर (प्र वहताम्) ले जायें ! हे कन्ये ! तू गृहपत्नी होकर (गृहान् गच्छ) घर को जा। (यथा) जिससे (त्वं) तू (गृहपत्नी) गृहस्वामिनी (असः) हो (वशिनी) सबको वश करनेहारी, सब के हृदयहारिणी (त्वं) तू (विदथम्) ज्ञान से भरे वचन (आवदासि) कहा कर।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘पूषा त्वेतो’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सावित्री सूर्या ऋषिका। आत्मा देवता। [१-५ सोमस्तुतिः], ६ विवाहः, २३ सोमार्कों, २४ चन्द्रमाः, २५ विवाहमन्त्राशिषः, २५, २७ वधूवासः संस्पर्शमोचनौ, १-१३, १६-१८, २२, २६-२८, ३०, ३४, ३५, ४१-४४, ५१, ५२, ५५, ५८, ५९, ६१-६४ अनुष्टुभः, १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १५ आस्तारपंक्तिः, १९, २०, २३, २४, ३१-३३, ३७, ३९, ४०, ४५, ४७, ४९, ५०, ५३, ५६, ५७, [ ५८, ५९, ६१ ] त्रिष्टुभः, (२३, ३१२, ४५ बृहतीगर्भाः), २१, ४६, ५४, ६४ जगत्यः, (५४, ६४ भुरिक् त्रिष्टुभौ), २९, २५ पुरस्ताद्बुहत्यौ, ३४ प्रस्तारपंक्तिः, ३८ पुरोबृहती त्रिपदा परोष्णिक्, [ ४८ पथ्यापंक्तिः ], ६० पराऽनुष्टुप्। चतुःषष्ट्यृचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Surya’s Wedding

    Meaning

    Let Bhaga, the noble husband, take your hand and lead you home. Let the Ashvins, father and mother of the husband, take you home by chariot in all comfort and safety with love. Go to your new home and new inmates of the home, be the mistress dedicated to your home, manager and darling love of all, ordering your new homely life, speaking well with love and affection to all.

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    Translation

    May the Lord of wealth and glory (Bhaga) conduct you from here grasping your hand; may the twin divine doctors (Asvinau) transport you in their chariot.;go to the house, so that you may become the mistress of the house. Having control over all, speak amicably to the gathering:

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    Translation

    O bride, Bhagah, the prosperity lead you from fathers' family here holding your hand and Ashvinau, the Prana and Apana carry you by chariot, you go to the house of your husband, so that you may be the mistress of the house, take you all under your control. You always speek with understanding.

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    Translation

    Let the Prosperous bridegroom take thy hand and hence conduct thee. Let thy husband and his brother on their car transport thee. Go to the house of thy husband to be the household’s mistress. Controlling all members of the family, utter words full of knowledge.

    Footnote

    See Rig, 10-85-26.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २०−(भगः)ऐश्वर्यवान् वरः (त्वा) वधूम् (इतः) अस्मात् स्थानात्। पितृगृहात् (नयतु) (हस्तगृह्य) अ० ५।१४।४। हस्तेन गृहीत्वा (अश्विना) प्राप्तविद्यौ स्त्री-पुरुषसमूहौ (त्वा) (प्र) प्रकर्षेण (वहताम्) नयताम् (रथेन) (गृहान्) पतिगृहान् (गच्छ)प्राप्नुहि (गृहपत्नी) गृहस्वामिनी (यथा) येन प्रकारेण (असः) भवेः (वशिनी) गृहगतानां वशं प्रापयित्री (त्वम्) (विदथम्) सभागृहम् (आ) आभिमुख्येन (वदासि)ब्रूयाः ॥

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