अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 15/ मन्त्र 9
ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - विराट् गायत्री
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
42
तस्य॒व्रात्य॑स्य। योऽस्य॑ सप्त॒मः प्रा॒णोऽप॑रिमितो॒ नाम॒ ता इ॒माः प्र॒जाः ॥
स्वर सहित पद पाठतस्य॑ । व्रात्य॑स्य । य: । अ॒स्य॒ । स॒प्त॒म: । प्रा॒ण: । अप॑रिऽमित: । नाम॑ । ता: । इ॒मा: । प्र॒ऽजा: ॥१५.९॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्यव्रात्यस्य। योऽस्य सप्तमः प्राणोऽपरिमितो नाम ता इमाः प्रजाः ॥
स्वर रहित पद पाठतस्य । व्रात्यस्य । य: । अस्य । सप्तम: । प्राण: । अपरिऽमित: । नाम । ता: । इमा: । प्रऽजा: ॥१५.९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
अतिथि के सामर्थ्य का उपदेश।
पदार्थ
(तस्य) उस (व्रात्यस्य) व्रात्य [सत्यव्रतधारी अतिथि] का−(यः) जो (अस्य) उस [व्रात्य] का (सप्तमः) सातवाँ (प्राणः) प्राण [श्वास] (अपरिमितः) अपरिमित [असीम] (नाम) नामहै, (ताः) सो (इमाः प्रजाः) यह प्रजाएँ हैं [अर्थात् वह समझाता है कि परमात्माकी सृष्टि में भूलोक, चन्द्रलोक, सूर्यलोक आदि के मनुष्य, जीव-जन्तुओं कासम्बन्ध आपस में और दूसरे लोकवालों से क्या रहता है] ॥९॥
भावार्थ
विद्वान् मस्तक के सातछिद्रों द्वारा [मन्त्र १, २ देखो] प्रथम श्वास में विद्या, दूसरे मेंसूर्यविद्या, तीसरे में चन्द्रविद्या, चौथे में वायुविद्या, पाँचवें मेंजलविद्या, छठे में पशुविद्या, और सातवें में प्रजाओं के परस्पर संघटन की विद्याका प्रकाश करता है, अर्थात् वह बहुत शीघ्र मन की वृत्तियों को वश में करकेप्रत्येक इन्द्रिय से प्रत्येक श्वास में संसार का उपकार करता है॥३-९॥
टिप्पणी
९−(अपरिमितः) अगणितः (प्रजाः) सङ्घटनविद्याः। अन्यत् पूर्ववत् स्पष्टं च ॥
विषय
पवमानः, आपः, पशवः, प्रजा:
पदार्थ
१. (तस्य व्रात्यस्य) = उस व्रात्य का, (य:) = जो (अस्य) = इसका (चतुर्थः प्राण:) = चतुर्थ प्राण है, वह (विभूः नाम) = विभू नामवाला है-वैभवसम्पन्न-शक्तिशाली। (अयं स:) = यह वह (पवमान:) = वायु है-जीवन को गति देने के द्वारा पवित्र रखनेवाला है। पवित्रता के साथ शक्ति भी देने के कारण यह 'विभू' है। २. (तस्य व्रात्यस्य) = उस व्रात्य का (यः अस्य) = जो इसका (पञ्चमः प्राण:) = पाँचवा प्राण है, (योनिः नाम) = वह योनि नामवाला है-उत्तम सन्तति को जन्म देनेवाला-उत्पत्ति का कारण ताः इमाः आपः वे ये रेत:कण ही हैं। प्राणायाम द्वारा सुरक्षित रेत:कण ही सन्तान को जन्म देने का साधन बनते हैं। ३. (तस्य व्रात्यस्य) = उस व्रात्य का (यः अस्य) = जो इसका (षष्ठः प्राण:) = षष्ठ प्राण है, वह (प्रियः नाम) = प्रिय नामवाला है-प्रीति को उत्पन्न करनेवाला। (ते इमे पशव:) = वे ये पश ही हैं। 'पश्यन्ति इति' जो ज्ञान-प्राप्ति का साधन बनती है, अर्थात ज्ञानेन्द्रियाँ ही यहाँ पशु कही गई हैं। प्राणशक्ति की वृद्धि में इनकी भी वृद्धि है। ये ज्ञान का वर्धन करती हुई प्रीति का कारण बनती हैं। ४. (तस्य व्रात्यस्य) = उस व्रात्य का (यः) = जो इसका (सप्तमः प्राण:) = सातवाँ प्राण है, वह (अपरिमितः नाम) = अपरिमित नामवाला है। यह मनुष्य को बड़ी व्यापक वृत्तिवाला बनाता है। (ताः इमाः प्रजा:) = वे ही ये शक्तियों के प्रादुर्भाव हैं। प्राणायाम से अद्भुत शक्तियों का प्रादुर्भाव होता है-इसी को यहाँ 'प्रजाः' [जनी प्रादुर्भावे] इस रूप में कहा गया है।
भावार्थ
प्राणसाधना से शक्तियों का जन्म होकर जीवन की पवित्रता उत्पन्न होती है। शरीर में सुरक्षित रेत:कण उत्तम सन्तति को जन्म देने का साधन बनाते हैं। ज्ञानेन्द्रियाँ सशक्त होकर ज्ञानसम्पादन करती हुई प्रीति उत्पन्न करती हैं और सब शक्तियों का प्रादुर्भाव होकर हम अपरिमित लोकों [ब्रह्मलोक] को प्राप्त करनेवाले बनते हैं।
भाषार्थ
(तस्य) उस (वात्यस्य) व्रतपति तथा प्राणिवर्गों के हितकारी परमेश्वर की [सृष्टि में] (यः) जो (अस्य) इस परमेश्वर का (सप्तमः प्राणः१) सातवां प्राण है, वह (अपरिमित) "अपरिमित" (नाम) नाम वाला है (ताः) वे हैं (इमाः) ये (प्रजाः) प्रजाएं।
टिप्पणी
[मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतङ्ग, मत्स्य आदि परमेश्वर की प्रजाएं है, जिन की संख्या असंख्यात् है, मापी नहीं जा सकती। इन्हें भी अपने प्राणवत् जानकर इन की सुरक्षा करनी चाहिये। बलियज्ञ में भी सर्वभूत-मैत्री भावना ओत प्रोत है। यथा-- शूनां च पतितानां च श्वपचां पापरोगिणाम् । वयसानां कृमीणां च शनकैर्निर्वपेद्भुवि ।।मनु०।। अर्थात गृहस्थी - कुत्तों, पतितों, कुत्ते का मांस खाने वालों, पाप रोगियों, कृमियों, कौओं आदि के लिए भी अन्न प्रदान करे, उन की सुरक्षा करे।] [१. अग्नि, आदित्य, चन्द्रमा, पवमान, आपः, पशवः और प्रजा -- ये जीवनीय तत्त्वों का प्रदान करते हैं, अतः प्राण है।]
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
The seventh pranic energy of this Vratya is ‘Aparimita’ by name, the Unbounded, and that is these living beings.
Translation
Of that Vratya; what is his seventh in-breath called Aparimita (limitless) that are these creatures.
Translation
The seventh vital air of that Vratya called Aparimitah, unlimited are these creatures.
Translation
His seventh vital breath, called Unlimited, are these creatures.
Footnote
It signifies how men living on Earth, Sun and Moon etc. should behave towards one another. The vital breaths of a yogi who comes as a guest signify the knowledge of different sciences.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
९−(अपरिमितः) अगणितः (प्रजाः) सङ्घटनविद्याः। अन्यत् पूर्ववत् स्पष्टं च ॥
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