अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 4
ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - द्विपदार्ची उष्णिक्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
134
तस्या॑ग्री॒ष्मश्च॑ वस॒न्तश्च॒ द्वौ पादा॒वास्तां॑ श॒रच्च॑ व॒र्षाश्च॒ द्वौ ॥
स्वर सहित पद पाठतस्या॑: । ग्री॒ष्म: । च॒ । व॒स॒न्त: । च॒ । द्वौ । पादौ॑ । आस्ता॑म् । श॒रत् । च॒ । व॒र्षा: । च॒ । द्वौ ॥३.४॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्याग्रीष्मश्च वसन्तश्च द्वौ पादावास्तां शरच्च वर्षाश्च द्वौ ॥
स्वर रहित पद पाठतस्या: । ग्रीष्म: । च । वसन्त: । च । द्वौ । पादौ । आस्ताम् । शरत् । च । वर्षा: । च । द्वौ ॥३.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्मा के विराट् रूप का उपदेश।
पदार्थ
(वसन्तः) वसन्त ऋतु (चच) और (ग्रीष्मः) घाम ऋतु (तस्याः) उस [सिंहासन] के (द्वौ) दो (च) और (वर्षाः)बरसा ऋतु (च) और (शरत्) शरद् ऋतु (द्वौ) दो (पादौ) पाये (आस्ताम्) थे ॥४॥
भावार्थ
घाम आदि ऋतुएँ अर्थात् समस्त काल परमात्मा के वशीभूत हैं ॥४॥
टिप्पणी
४−(तस्याः) आसन्द्याः (ग्रीष्मः)निदाघकालः (च) (वसन्तः) (द्वौ) (पादौ) चरणे (आस्ताम्) अभवताम् (शरत्) शरद्ऋतुः (च) (वर्षाः) वृष्टिकालः (च) (द्वौ) ॥
विषय
व्रात्य की आसन्दी
पदार्थ
१. (सः) = वह व्रात्य विद्वान् (संवत्सरम्) = वर्षभर (कय: अतिष्ठत्) = संसार से मानो ऊपर उठा हुआ ही, अपनी तपस्या में ही स्थित रहा। (तम्) = उसको (देवा:अब्रुवन्) = देववृत्ति के व्यक्तियों ने मिलकर कहा अथवा माता-पिता व आचार्यादि ने (इति) = इसप्रकार कहा कि-हे (व्रात्य) = व्रतमय जीवनवाले विद्धन ! (किम्) = क्या (नु) = अब भी तिष्ठति (इति) = इसप्रकार तपस्या में ही स्थित हुए हो। अब कहीं आश्रम में स्थित होकर लोकहित के दृष्टिकोण से कार्य आरम्भ करो न? २. इसप्रकार देवों के आग्रह पर (स:) = उस व्रात्य ने (इति) = इसप्रकार (अब्रवीत्) = कहा कि मे-मेरे लिए आप आसन्दी संभरन्तु-आसन्दी का संभरण करने की कृपा कीजिए। 'मुझे कहाँ बैठकर कार्य करना चाहिए', उस बात का आप निर्देश कीजिए। ३. यह उत्तर पाने पर सब देवों ने (तस्मै व्रात्याय) = उस व्रात्य के लिए (आसन्दी समभरन) = आसन्दी प्राप्त कराई। वस्तुतः वह आसन्दी क्या थी? सारा काल ही उस आसन्दी के चार चरणों के रूप में था। इस आसन्दी के संभरण का कोई शभ महूर्त थोड़े ही निकालना था। शुभ कार्य के लिए सारा समय ही शुभ है। ४. देवों से प्राप्त कराई गई (तस्याः) = उस आसन्दी के (ग्रीष्मः च वसन्तः च) = ग्रीष्म और वसन्त (ऋतु दौ पादौ आस्ताम्) = दो पाँव थे तथा (शरद च वर्षा च दौ) = शरद और वर्षा दूसरे दो पाये बने। वस्तुत: इस व्रात्य ने न सर्दी देखनी है न गर्मी, न वर्षा न पतझड़। उसने तो सदा ही लोकहित के कार्यों में प्रवृत्त होना है।
भावार्थ
व्रात्य विद्वान् संसार से अलग रहकर तपस्या ही न करता रह जाए। उसे लोकहित के कार्यों को भी अवश्य करना ही चाहिए और इन शुभ कार्यों के लिए मुहूर्त ढूँढने की आवश्यकता नहीं। शुभ कार्य के लिए सारा समय शुभ ही है।
भाषार्थ
(वसन्तः, च) वसन्त (ग्रीष्मः, च) और ग्रीष्म ऋतु (तस्याः) उस आसन्दी के (द्वौ पादौ) दो पाद (आस्ताम) हुए, (वर्षाः, च) वर्षा (शरत्, च) और शरद् ऋतु (द्वौ) शेष दो पाद हुए।
टिप्पणी
[आसन्दी के चार पाद होते हैं। वसन्त से शरद् तक चार१ ऋतुएं उस के चार पाद हुए। इस से ही प्रतीत होता है कि यह आसन्दी शरीर द्वारा बैठने की नहीं, अपितु यह केवल गाथा रूप है। आस्ताम्=अस् भुवि]। [१. ये चार ऋतुएं एक वर्षरूप है। अतः संवत्सर-यात्रा के पश्चात्, संवत्सर-विश्राम में वेदस्वाध्याय की सूचना सूक्त द्वारा दी गई है।]
विषय
व्रात्य के सिंहासन का वर्णन।
भावार्थ
चौंकी का स्वरूप क्या था ? उस ‘आसन्दी’ के दो पाये ग्रीष्म और वसन्त रहे। और (शरत् च वर्षाः च द्वौ) शरत् और वर्षा ये दो पाये और थे।
टिप्पणी
श्यैतं साम= पशवः। नौधसम्-ब्रह्मवर्चसम्। सप्तर्षयः सप्त प्राणाः। सोमः राजा ब्रह्माचारी। बृहद् वै परोक्षं नौधसम्। रथन्तरं ह्यतेत् श्यैतम्॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१ पिपीलिका मध्या गायत्री, २ साम्नी उष्णिक्, ३ याजुषी जगती, ४ द्विपदा आर्ची उष्णिक्, ५ आर्ची बृहती, ६ आसुरी अनुष्टुप्, ७ साम्नी गायत्री, ८ आसुरी पंक्तिः, ९ आसुरी जगती, १० प्राजापत्या त्रिष्टुप्, ११ विराड् गायत्री। एकादशर्चं तृतीयं पर्याय सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
Of the seat, summer and spring were two legs. Autumn and rains were the other two.
Translation
Summer and spring were the two feet of that (settee). Autumn and the rains were the other two feet.
Translation
The spring season and summer season are two legs of this couch and Sharat, the autumn and rainy season are two other legs.
Translation
Atmosphere, and the world conquerable through noble traits, were the two long planks, Vedic knowledge, the welfare of sacrifices (Yajnas) and the five elements created by God the two cross planks.
Footnote
(5-8)How beautiful is the description of the couch of knowledge on which the Brahmcharir ests.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(तस्याः) आसन्द्याः (ग्रीष्मः)निदाघकालः (च) (वसन्तः) (द्वौ) (पादौ) चरणे (आस्ताम्) अभवताम् (शरत्) शरद्ऋतुः (च) (वर्षाः) वृष्टिकालः (च) (द्वौ) ॥
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