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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - आसुर्यनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    97

    ऋचः॒प्राञ्च॒स्तन्त॑वो॒ यजूं॑षि ति॒र्यञ्चः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋच॑: । प्राञ्च॑: । तन्त॑व: । यजूं॑षि । ति॒र्यञ्च॑ ॥३.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋचःप्राञ्चस्तन्तवो यजूंषि तिर्यञ्चः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋच: । प्राञ्च: । तन्तव: । यजूंषि । तिर्यञ्च ॥३.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 3; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमात्मा के विराट् रूप का उपदेश।

    पदार्थ

    (ऋचः) ऋचाएँ [पदार्थों की गुणप्रकाशक विद्याएँ] [उस सिंहासन के] (प्राञ्चः) लम्बे फैले हुए (तन्तवः) तन्तु [सूत] और (यजूंषि) यजुर्मन्त्र (तिर्यञ्चः) तिरछे फैले हुए [तन्तु] थे ॥६॥

    भावार्थ

    जैसे वस्त्र के ताने-बाने में सूत लगते हैं, वैसे ही परमात्मा ने सृष्टिरचना में ऋग्वेद और यजुर्वेदविद्याएँ बनायी हैं ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(ऋचः) पदार्थविज्ञानप्रकाशिकाविद्याः (प्राञ्चः)प्र+अञ्चु गतिपूजनयोः-क्विन्। प्रकर्षेण प्राप्ताः (तन्तवः) सूत्राणि (यजूंषि)सत्कर्मप्रतिपादकानि ज्ञानानि (तिर्यञ्चः) तिरस्+अञ्चु गतिपूजनयोः-क्विन्।तिर्यग्भवास्तन्तवः ॥

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    विषय

    'ज्ञान व उपासना'-मयी आसन्दी

    पदार्थ

    १. व्रात्य की इस आसन्दी के (बृहत् च रथन्तरं च) = हृदय की विशालता और शरीर-रथ से भवसागर को तैरने की भावना ही (अनूच्ये आस्ताम्) = दाएँ-बाएँ की लकड़ी की दो पाटियाँ थीं (च) = तथा (यज्ञायज्ञियं च वामदेव्यं च) = यज्ञों के लिए हितकर वेदज्ञान तथा सुन्दर दिव्यगुणों के लिए हितकर प्रभु का उपासन ही (तिरश्च्ये) = दो तिरछे काठ सेरुवे थे। २. (ऋच:) = ऋचाएँ प्रकृतिविज्ञान के मन्त्र ही उस आसन्दी के (प्राञ्चः तन्तवः) = लम्बे फैले हुए तन्तु थे और (यजूंषि) = यज्ञ-प्रतिपादक मन्त्र ही (तिर्यञ्च:) = तिरछे फैले हुए तन्तु थे। (वेदः) = ज्ञान ही उस आसन्दी का (आस्तरणम्) = बिछौना था, (ब्रह्म) = तप [ब्रह्म: तप:] व तत्त्वज्ञान ही (उपबर्हणम्) = तकिया [सिर रखने का सहारा] था। (साम) = उपासना-मन्त्र व शान्तभाव ही (आसादः) = उस आसन्दी में बैठने का स्थान था और (उदगीथ:) = उच्यैः गेय 'ओम्' इसका (उपश्रयः) = सहारा था [टेक थी]। ३. (ताम्) = इस ज्ञानमयी (आसन्दीम्) = आसन्दी पर (व्रात्यः आरोहत्) = व्रात्य ने आरोहण किया।

    भावार्थ

    व्रात्य जिस आसन्दी पर आरोहण करता है वह ज्ञान व उपासना की बनी हुई है। उपासना से शक्ति प्राप्त करके व ज्ञान से मार्ग का दर्शन करके वह लोकहित के कार्यों में आसीन होता है-तत्पर होता है।

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    भाषार्थ

    (ऋचः) ऋग्वेद की ऋचाएं (प्राञ्चः) सीधे अर्थात् ताने के (तन्तवः) तन्तु हुए, और (यजूंषि) यजुर्वेद के मन्त्र (तिर्यञ्चः) टेढ़े अर्थात् बाने के।

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    विषय

    व्रात्य के सिंहासन का वर्णन।

    भावार्थ

    उस पीढ़े के (प्राञ्चः तन्तवः) लम्बे, तन्तु या निवार के षलेट (ऋचः) ऋग्वेद के मन्त्र थे और (तीर्यञ्चः) तिरछे तन्तु या पलेट (यजूंषि) यजुर्वेद के मन्त्र थे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १ पिपीलिका मध्या गायत्री, २ साम्नी उष्णिक्, ३ याजुषी जगती, ४ द्विपदा आर्ची उष्णिक्, ५ आर्ची बृहती, ६ आसुरी अनुष्टुप्, ७ साम्नी गायत्री, ८ आसुरी पंक्तिः, ९ आसुरी जगती, १० प्राजापत्या त्रिष्टुप्, ११ विराड् गायत्री। एकादशर्चं तृतीयं पर्याय सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    Rks were the length-wise cords, Yajus, the cross¬ wise.

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    Translation

    The Rk verses were the lengthwise strings and the Yajus (sacrificial formulas) the crosswise strings.

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    Translation

    Rik verses are longwise strings the Yajuh verses the cross tapes.

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    Translation

    Vedic lore was its blanket, and the knowledge of god its coverlet.

    Footnote

    Coverlet: Quilt.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(ऋचः) पदार्थविज्ञानप्रकाशिकाविद्याः (प्राञ्चः)प्र+अञ्चु गतिपूजनयोः-क्विन्। प्रकर्षेण प्राप्ताः (तन्तवः) सूत्राणि (यजूंषि)सत्कर्मप्रतिपादकानि ज्ञानानि (तिर्यञ्चः) तिरस्+अञ्चु गतिपूजनयोः-क्विन्।तिर्यग्भवास्तन्तवः ॥

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